गरीबी उन्मूलन दिवस पर कविता
गरीबी से संग्राम
आचार्य मायाराम ‘पतंग’
चलो साथियों! हम सेवा के काम करें।
आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।
यह न समझना हमें गरीबी थोड़ी दूर हटानी है।
अपने आँगन से बुहारकर नहीं पराए लानी है।
एक शहर से नहीं उठाकर दूजे गाँव बसानी है।
करें इरादा भारतभर से इसकी जड़ें मिटानी हैं।
ठोस करें हम काम, न केवल नाम करें।
आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।
यह भारी अभिशाप कसकती पीड़ा हृदय दुखाती है।
दीमक बनकर मानवता को भीतर-भीतर खाती है।
जिसको लेती पकड़ पीढ़ियों तक भी उसे सताती है।
इच्छा के अंबार लगाती डगर-डगर तरसाती है।
आओ इसका मिलकर काम तमाम करें।
आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।
आलस इसका पिता और माता है इसकी बेकारी।
पालन-पोषण करती इसका सदा अशिक्षा की नारी।
साकी प्याला और मधुशाला सखी-सहेली लाचारी ।
चारों मोहरों पर लोहा लेने की कर लो तैयारी।
बस्ती-बस्ती गली-गली में ऐलान करें।
आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।
हथियारों से नहीं गरीबी, हारेगी औजारों से ।
नहीं बनेगी बात भाषणों, लेखों या अखबारों से।
मेहनत ही आधार मिला, कटती मंजिल कब नारों से।
सारे जोर लगाएँ मिलकर, बस्ती शहर बाजारों से।
हाथ करोड़ों साथ निरंतर काम करें।
आज गरीबी से जमकर संग्राम कर।।
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कुटिया बाट निहार रही है
आचार्य मायाराम ‘पतंग’
सेवा पथ के राही हो तुम,
मंजिल तुम्हें पुकार रही है।
उठो, देश की पावन माटी,
साहस को ललकार रही है।
अभी कोठियों में, बँगलों में,
कैद पड़ी आजादी सारी।
गली-मोहल्लों में, गाँवों में,
छाई है अब तक अँधियारी,
किस दिन पहुँचेगी उजियारी ।
कुटिया बाट निहार रही है ।
सेवा पथ के…
आज स्वयं दीपक बन जाओ,
गली-गली तुम रोशन कर दो।
सेवा है संकल्प तुम्हारा,
हर बगिया हरियाली कर दो ॥
जन-जन के मन में रस भर दो.
जननी तुम्हें दुलार यही है ।
सेवा पथ के.
इसी देश के बेटे, अब भी,
एक जून भूखे सोते हैं।
तड़प रहे दाने-दाने को,
सुबह-शाम बच्चे रोते हैं।
दान नहीं कुछ काम दिलाओ।
युग की आज पुकार रही है।
सेवा पथ के….
रोजी-रोटी पाकर भी कुछ,
बन जाते अनजान अनाड़ी।
व्यसनों में जीवन खोते हैं,
मारें अपने पाँव कुल्हाड़ी।
सदाचार का पंथ दिखाओ।
सेवा का आधार यही है।
सेवा पथ के राही हो तुम,
मंजिल तुम्हें पुकार रही है।
उठो, देश की पावन माटी,
साहस को ललकार रही है।