रिश्ते पर कविता

रिश्ते पर कविता

दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया
रिश्तों की तपिश से झुलसता चला गया
अपनों और बेगानों में उलझता चला गया
दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

कुछ अपने भी ऐसे थे जो बेगाने हो गए थे
सामने फूल और पीछे खंजर लिए खड़े थे
मै उनमें खुद को ढूंढता चला गया
दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

बहुत सुखद अहसासों से
भरी थी नाव रिश्तों की
कुछ रिश्तों ने नाव में सुराख कर दिया
मै उन सुराखों को भरने के लिए
पिसता चला गया
दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

बहुत बेशकीमती और अमूल्य होते हैं रिश्ते
पति पत्नी से जब माँ पिता में ढलते हैं रिश्ते
एक नन्हा फरिश्ता उसे जोड़ता चला गया
दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

अनछुये और मनचले होते हैं कुछ रिश्ते
दिल की गहराई में समाये
और बेनाम होते हैं कुछ रिश्ते
उस वक्त का रिश्ता भी गुजरता चला गया
दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया

वक़्त और अपनेपन की
गर्माहट दीजिये रिश्तों को
स्वार्थ और चापलूसी से
ना तौलिये रिश्तों को
दिल से दिल का रिश्ता यूँ ही जुड़ता जायेगा
यही बात मै लोगों को बताता चला गया
दर्द कागज़ पर बिखरता चला गया
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वर्षा जैन “प्रखर”
दुर्ग (छत्तीसगढ़)

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