मजदूरों के नाम समर्पित यह दिन 1 मई है। मजदूर दिवस को लेबर डे, श्रमिक दिवस या मई डे के नाम से भी जाना जाता है। श्रमिकों के सम्मान के साथ ही मजदूरों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने के उद्देश्य से भी इस दिन को मनाते हैं, ताकि मजदूरों की स्थिति समाज में मजबूत हो सके। मजदूर किसी भी देश के विकास के लिए अहम भूमिका में होते हैं।
मजदूर की दशा पर कविता
कविता 1
अभावों से जीवन घिरा,
फिर भी अधरों पर मुस्कान है।
कठिन श्रम कर घर-बार संजोए,
रखते श्रम की मान है।
तन पर चिथड़े कपड़े ढक,
अपना पसीना बहाते हैं।
भोर हुआ सूरज को देख,
आँखों में नव स्वप्न सजाते हैं।
दो रोटी की आस लिए,
दर-दर भटके श्रमिक जन।
अपने स्वाभिमान से कर्मठ बन,
तपा रहे नित तन और मन।
जीवन के हर उम्र पर,
थामे कड़ी मेहनत का डोर।
धरे कुदाल और फावड़ा,
लगा रहे कर्मों पर जोर।
तृप्त भावना मन धैर्य जगाए,
विचरण करते धन चाह में।
सुदूर हुए निज परिवार से,
भटके श्रमिक सकल संसार में।
रखना होगा मान श्रमिक का,
निश्छल करे श्रमदान हैं।
सृष्टि के नवनिर्माण में,
उनका श्रेष्ठ योगदान है।
*~ डॉ. मनोरमा चन्द्रा ‘रमा’*
रायपुर (छ.ग.)
कविता 2
बंद होते ही काम
खत्म हुआ श्रम दाम
बस इतना था अपराध
भूख को सह न सका
पेट बाँध रह न सका।
निकल पड़ा राह में
घर जाने की चाह में
चलता रहा मीलों तक
नदी पहाड़ झीलों तक
पथरीले राह थे कटीले
काँटे कंकड़ थे नुकीले।
पगडंडी सड़क रेल पटरी
बीवी बच्चे सर पर गठरी
कभी प्यास कभी भूख
सह सह कर सारे दुःख
कोई दे देता था निवाले
रोक सका न पैर के छाले।
कहीं वर्दी का रौब झाड़ते
पीठ कमर पर बेत मारते
दर्द बेजान जिस्म पर सहा
जाना था उफ तक न कहा
चलते चलते पहुँच गया द्वार
कुछ अपने जिंदगी से गए हार
घर में बूढी अम्मा देख देख कर रोई
दूर से निहारते क्या जाने दर्द कोई।
मजदूरों पर बात बड़े बड़े
थे अकेले मुसीबत में पड़े
बेत के दर्द से,हम नहीं सो रहे।
याद कर पैदल सफर,रो रहे।
बच्चों को खूब पढ़ाएँगे
पर मजदूर नहीं बनाएंगे।
राजकिशोर धिरही
तिलई,जांजगीर छत्तीसगढ़
कविता 3
वह ढोता जाता है पत्थर सारी दुपहरी
तब कहीं खाने को कुछ कमा पाता है,
वो एक गरीब मजदूर जो ठहरा साहब
कभी कभार तो भूखा ही सो जाता है।
बदन लथपथ रहता है स्वेद की बूंदों से
लेकिन वो अनवरत चलता ही जाता है,
उसके नसीब में कहां है हर रोज खाना
वो कई दफा गाली से पेट भर जाता है।
बनाता है वो कई बड़ी बड़ी इमारतें, पर
ख़ुद किसी पेड़ की छांव में सो जाता है,
अन्न की कीमत उससे पूछना कभी, वो
खुद को खाकर घर की भूख भगाता है।
जब जरूरत हो तो सुनता है मधुर वाणी
वरना चाय की मक्खी सा फैंका जाता है,
सुन लें धन दौलत का गुमान रखने वाले
मजदूर के कंधों से ही देश चल पाता है।
कविता 4
मैं मजदूर कहलाता हूँ
कंधे पर मैं बोझ उठाकर,
काम सफल कर जाता हूँ।
निज पैरों पर चलने वाला,
मैं मजदूर कहाता हूँ।
★★★★★★★★★
नहीं काम से डरा कभी मैं,
हरदम आगे चलता हूँ।
दुनिया को रौशन करने को,
दीपक जैसे जलता हूँ।
रोक नहीं कोई पाता,
है,जब अपने पर आता हूँ।
निज पैरों पर चलने वाला,
मैं मजदूर कहाता हूँ।
★★★★★★★★★
नदियों पर मैं बाँध बनाता,
मैं ही रेल बिछाता हूँ।
कल पुर्जे हैं सब मुझसे ही।
सब उद्योग चलाता हूँ।
फिर भी मैं संतोष धार कर,
गीत खुशी के गाता हूँ।
निज पैरों पर चलने वाला,
मैं मजदूर कहाता हूँ।
★★★★★★★★★
डिजेन्द्र कुर्रे “कोहिनूर”
पीपरभावना (छत्तीसगढ़)
मो. 8120587822