हाइकु त्रयी
[१]
कोहरा घना
जंगल है दुबका
दूर क्षितिज!
[२]
कोहरा ढांपे
न दिखे कुछ पार
ओझल ताल
[३]
हाथ रगड़
कुछ गर्माहट हो
कांपता हाड़
निमाई प्रधान’क्षितिज’*
नन्ही नन्ही कोमल काया
निज स्वेद बहाते हैं।
जीवन के झंझावातों में,
श्रमिक बन जाते है।
हाथ खिलौने वाले देखो,
ईंटों को झेल रहे।
नसीब नहीं किताबें इनको
मिट्टी से खेल रहे
कठिन मेहनत करते है तब
दो रोटी पाते है।
जीवन के—–
गरीबी अशिक्षा के चलते,
जीवन दूभर होता
तपा ईंट भठ्ठे में जीवन
बचपन कुंदन होता
सपने सारे दृग जल होते
यौवन मुरझाते है।
जीवन के—–
ज्वाल भूख की धधक रही है
घर घर हाँडी खाली
भूख भूख आवाज लगाती,
उदर बना है सवाली
मजबूरी की दास्ताँ कहती
बाल श्रमिक मुस्काते हैं।
सुधा शर्मा
राजिम, छत्तीसगढ़
31-5-2019
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
यहाँ मान पर हिंदी कविता लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।
सांझ सबेरे तेरी,,,,,,,,
राह निहारूं माई,,,,,,,,,
मुझे छोड़-छोड़ मां तू, कहां चली जाती है।
पलना कठोर भारी,,,,,,,
लगता बड़ा जोर है,,,,,,,,,,,
रोज-रोज आते ही मुझे, बांहों में ऊठाती है।
भूख लगती जोर से,,,,,,
तब दूध तू पिलाती है,,,,,,,,,,
मुन्ना राजा चुप हो जा, लोरी जो सुनाती है।
चंदा मामा दूध के,,,,,,,,
कटोरा ले कर आएगा,,,,,,,,,,
मेरे मम्मी रात-रात ,कहानी को बताती है।
मेरा मुन्ना राजा बेटा,,,,,,,,
दुलार बहुत जताती है,,,,,,,,,,
थोड़ी सी गुस्सैल ,थोड़ी-थोडी मुस्कराती है।
निन्दिया आंखों में मेरे,,,,,,,
जब आके बस जाती हैं,,,,,,,,,
जागी-जागी बैठी-बैठी ,रात तू पहाती है।
माई तेरी आंचल प्यारी,,,,,,,,
धरती से बहुत भारी है,,,,,,,,,,,,
नौ माहीने कोख में रखे ,पल-पल गुजारी है।
सांझ सबेरे तेरी,,,,,,,,,,
राह निहारूं माई,,,,,,,,,,
मुझे छोड़-छोड़ मां तू ,कहां चली जाती है।
सन्त राम सलाम
भैंसबोड़ (बालोद), छत्तीसगढ़।
भारत के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को बच्चे प्यार से ‘चाचा नेहरू’ भी कहते हैं। जवाहरलाल नेहरू का मानना था कि बच्चे किसी भी समाज की मूल नींव होते हैं, इसलिए उनका पालन-पोषण उपयुक्त वातावरण में किया जाना चाहिए और पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती के उपलक्ष्य में हर साल 14 नवंबर को बाल दिवस मनाया जाता है।
बच्चों के चाचा नेहरू इन्सान ही तो थे
जन-जन करोड़ों की मधुर मुसकान भी तो थे
गांधी-टोपी और कोट पहचान थी उनकी
महके हुए गुलाब-सी मुसकान थी उनकी
भारतीय जनतंत्र के प्रथम प्रधान भी तो थे । जन-जन …
दौलत की चकाचौंध से कोसों रहे वो दूर
जन-जन समाज जोड़ने से हो गए मशहूर
गांधी के दाएँ हाथ की कमान भी तो थे । जन-जन ….
शांति के पुकारी औ’ बच्चों के प्यारे थे
लाखों देशवासियों की आँखों के तारे थे
गुटनिरपेक्षता व पंचशील की वे जान भी तो थे । जन-जन …
मोतीलाल के लाल सचमुच थे कमाल
लेखन के क्षेत्र में भी कर दिया धमाल
‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ की शान भी तो थे । जन-जन ….
आजादी की लड़ाई में न इनका जवाब था
शोलों की धधक में भी हिमानी मिजाज था
गाँधी की अहिंसा की पहचान भी तो थे । जन-जन …
जनता को रोजी-रोटी औ’ शिक्षा दिला सके
ये और बात है कि हम तिब्बत ना पा सके
ये देश-दुनिया की उच्च मचान भी तो थे । जन-जन …
हँसमुख स्वरूप उनका क्या भुला सकेंगे हम ?
अफसोस भी तो है उन्हें न पा सकेंगे हम
भगवान् की इच्छा के निगेबहान भी तो थे । जन-जन …
बाल मजदूरी निषेध पर कविताएँ: बाल-श्रम का मतलब यह है कि जिसमे कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा से छोटा होता है। इस प्रथा को कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संघठनों ने शोषित करने वाली प्रथा माना है। अतीत में बाल श्रम का कई प्रकार से उपयोग किया जाता था, लेकिन सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के साथ औद्योगीकरण, काम करने की स्थिति में परिवर्तन तथा कामगारों श्रम अधिकार और बच्चों अधिकार की अवधारणाओं के चलते इसमे जनविवाद प्रवेश कर गया। बाल श्रम अभी भी कुछ देशों में आम है।
कोमल हाथों से चलाता औजार कोई उसको न रोका,
माँ – बाप का उठ गया साया दे गया बचपन धोखा।
तपती सुरज की गर्मी और प्यास से सुखा गला,
दो वक्त की रोटी के लिए बचपन – मजदूरी करने चला।
नन्हें हाथों से आँसू पोंछ करते मालिक की आज्ञा पूरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।
किस्मत के हाथों मजबूर बालक बन गया बाल मजदूर,
खाते गाली अगर हो गई गलती फिर भी इसको नहीं है गुरूर।
सोंचता बाल- मजदूर मैं भी जाऊँ स्कूल काश मैं भी पढ़ता,
बेचारा क्या करे वो अपनी गरीबी हालात से है लड़ता।
गरीब बच्चों के लिए है कंपकपाती सिकुड़न भरी रात,
अमीरों के लिए स्वेटर – हिटर है जरुरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।
कोई खिलौना कोई सिनेमा कोई देखें मेला,
देकर खुद को दिलासा ये कंकड़ियों के साथ है खेला।
चाय – अखबार बेच साफ करता मेज- ग्लास और थाली,
अगर कोई गलती हो जाए तो खाता मालिक से गाली।
काश इसकी हर ख्वाहिश होती अब पुरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।
नहीं मिला कुछ तो भुखा पेट सो गया,
खाली पेट पिकर पानी सिसक सिसक कर रो गया।
करता सेवा मालिक का कहता हर-पल जी हुजूर,
ढांढस बांधले मन में जब भी देखे वो बादाम- किशमिश और खजूर।
कहते ये सो जाता कहाँ है मैय्या मोरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।
बचपन ने दबा दिया इनकी कल्पना,
बाल – मजदूर ने जो देखा था सपना।
आओ दें हम इनका भरपूर साथ,
खुशियों से भर जाए इनका दिन और रात।
हम करेंगे इनकी पुरी ख्वाहिश जो रह गई है अधूरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।
अकिल खान रायगढ़ जिला – रायगढ़ (छ. ग.) पिन – 496440.
उमर जब खेलने की थी खिलौनों से।
वो सोचने लगा,पेट कैसे भरेगा निबालों से।
भाग्य से किश्मत से, होकर के मजबूर।
अबोध बालक ही, बन जाते हैं मजदूर।
पेट की भूख, इनको मजबूर बनाती।
कड़की ठंड में भी, जीना सिखाती।
उठे जब भाव दर्द, अश्रु ही वो बहाते।
बिन पोछे, स्वयं सूर्यदेव कभी सुखाते।
उमर भी रही कम, जब बनाने थे थाट।
छोड़ गुरुर,सहनी पड़ती मालिक की डांट।
कहीं चाय बेचे, अखबार भी कहीं पर।
जब क्षीण हो शक्ति, रो बैठे जमीं पर।
मृदुल हाथों से वह हथियार चलाता।
मात पितु का जब साया उठ जाता।
कथनी व करनी बाल मजदूरी पर ऐसी।
समाज में लगती सेमल फूल जैसी।
निरर्थक हो जाती हैं बाल योजनाएं।
जब नन्हा दुलारा मजदूरी कमाए।
माना किश्मत ने किया है,उसके साथ धोखा।
मगर सभ्य समाज ने, उसे क्यूँ नहीं रोका।
दे देता कलम और, किताब उसके हाथों में।
किश्मत बदल सकती, उसकी जज्बातों में।
आओ इनकी बेवशी को, खुशियों से झोंक दें।
चलों यारों अब तो, बाल मजदूरी को रोक दें।
अशोक शर्मा, लक्ष्मीगंज, कुशीनगर,उ.प्र.