Author: कविता बहार

  • बाल मजदूर पर कविता (लावणी छंद मुक्तक)

    बाल मजदूर पर कविता (लावणी छंद मुक्तक)

    हर साल 12 जून को विश्व दिवस बाल श्रमिकों की दुर्दशा को उजागर करने और उनकी मदद के लिए किया जा सकता है, इसके लिए सरकारों, नियोक्ताओं और श्रमिक संगठनों, नागरिक समाज के साथ-साथ दुनिया भर के लाखों लोगों को एक साथ लाता है।

    बाल मजदूर पर कविता (लावणी छंद मुक्तक)

    बाल मजदूर पर कविता (लावणी छंद मुक्तक)


    राज, समाज, परायों अपनों, के कर्मो के मारे हैं!
    घर परिवार से हुये किनारे, फिरते मारे मारे हैं!
    पेट की आग बुझाने निकले, देखो तो ये दीवाने!
    बाल भ्रमित मजदूर बेचारे,हार हारकर नित हारे!
    __
    यह भाग्य दोष या कर्म लिखे,
    . ऐसी कोई बात नहीं!
    यह विधना की दी गई हमको,
    कोई नव सौगात नहीं!
    मानव के गत कृतकर्मो का,
    फल बच्चे ये क्यों भुगते!
    इससे ज्यादा और शर्म… की,
    यारों कोई बात नही!

    यायावर से कैदी से ये ,दीन हीन से पागल से!
    बालश्रमिक मेहनत करते ये, होते मानो घायल से!
    पेट भरे न तन ढकता सच ,ऐसी क्यों लाचारी है!
    खून चूसने वाले इनके, मालिक होते *तायल से!

    ये बेगाने से बेगारी से, ये दास प्रथा अवशेषी है!
    इनको आवारा न बोलो, ये जनगणमन संपोषी हैं!
    सत्सोचें सच मे ही क्या ये, सच में ही सचदोषी है!
    या मानव की सोचों की ये, सरे आम मदहोंशी है!
    __
    जीने का हक तो दें देवें ,रोटी कपड़े संग मुकाम!
    शिक्षासंग प्रशिक्षण देवें,जो दिलवादें अच्छा काम!
    आतंकी गुंडे जेलों मे, खाते मौज मनाते हैं!
    कैदी-खातिर बंद करें ये, धन आजाए इनके काम!
    . (तायल=गुस्सैल)

    बाबूलाल शर्मा

  • आँख खुलने लगी / नीलम

    आँख खुलने लगी / नीलम

    आँख खुलने लगी/ नीलम

    chandani raat

    आँख खुलने लगी/ नीलम

    रात के पिछले पहर में
    शीत की ठंडी लहर में
    कोहरे की चादर ओढ़े
    सो रहे थे चाँद-तारे

    धीरे -धीरे धरा सरकती
    जा पहुँची प्राची के द्वारे
    थरथराती ठंड से सिकुड़ती
    थपथपा खुलवा रही थी द्वार

    उषा ने धीमें से झांका झिरी से
    फिर हौले से खोले द्वार
    पहचान पृथा को थोड़ा सा
    किया स्वागत उजास

    फिर हौले से रवि की चादर
    हल्के हल्के सरकाने लगी
    किरणों के कर-पग धुलवाने लगी
    आँखे मलते-मलते फिर
    सूरज बाहर निकल पड़ा
    चाँद-सितारों को भेज
    धरती को ताप देने लगा

    जरा जरा सी उष्मा पाकर
    अंगड़ाई ले प्रकृति जागने लगी
    हर तरफ सोई धरा की
    *आँख खुलने* लगी

    फैलने लगा प्रातः का उजियारा
    नवजीवन का ले संदेश
    नहीं स्थिर है सब की गति अशेष

    रात जितनी भी अंधेरी
    सर्द -जर्द से जकड़ी
    पर उजाले की किरण
    उसमें ही है छिपी कहीं

    वैसे ही मन कितना ही सुप्त रहे
    वक्त आने पर फिर उसकी भी आँख खुले।

            डा.नीलम.अजमेर

  • मानवता के दीप /भुवन बिष्ट

    मानवता के दीप /भुवन बिष्ट

    मानवता के दीप/ भुवन बिष्ट

    मानवता के दीप /भुवन बिष्ट

    मानवता के दीप/ भुवन बिष्ट

    हम तो सदा ही मानवता के दीप जलाते हैं,
    उदास चेहरों पर सदा मुस्कराहट लाते हैं।

    हार मानकर  बैठते जो कठिन राहों को देख,
    हौंसला बढ़ाकर उनको भी चलना सिखाते हैं।

    कर देते पग डगमग कभी उलझनें देखकर,
    मन में साहस लेकर हम फिर भी मुस्कराते हैं।

    मिल जाये साथ सभी का बन जायेगा कारंवा,
    मिलकर आओ अब एकता की माला बनाते हैं।

    लक्ष्य को पाने में सदा आती हैं कठिनाईयां,
    साहस से जो डटे रहते सदा मंजिल वही पाते हैं।

    राह रोकने को आती दिवारें सदा बड़ी-बड़ी,
    सच्चाई पाने को अब हम दिवारों से टकराते हैं।

    फैलायें आओ मानवता को मिलकर चारों ओर,
    दुनियां को अपनी एकता आओ हम दिखाते हैं।
     भुवन बिष्ट
     रानीखेत (उत्तराखण्ड)

  • चांदनी रात / क्रान्ति

    चांदनी रात / क्रान्ति

    चांदनी रात / क्रान्ति द्वारा रचित

    चांदनी रात / क्रान्ति

    चांदनी रात / क्रान्ति

    चांदनी रात में
    पिया की याद सताए
    मिलने की चाह
    दिल में दर्द जगाए।।

    हवा की तेज लहर
    जिगर में घोले जहर
    कैसे बताऊं मैं तुम्हें
    सोई नहीं मैं रातभर।।

    दिल के झरोखे में
    दस्तक देती हवाएं
    देखकर हंसे मुझपर
    दिल के पीर बढ़ाए।।

    दिल पर रख के पत्थर
    दर्द अपना छुपाया है
    कैसे बताऊं तुझको मैं
    तू कितना याद आया है।।

    क्रान्ति,सीतापुर,सरगुजा,छग

  • धूप की ओट में बैठा क्षितिज / निमाई प्रधान’क्षितिज’

    धूप की ओट में बैठा क्षितिज / निमाई प्रधान’क्षितिज’

    धूप की ओट में बैठा क्षितिज /निमाई प्रधान’क्षितिज’

    धूप की ओट में बैठा क्षितिज / निमाई प्रधान'क्षितिज'

    रवि-रश्मियाँ-रजत-धवल
    पसरीं वर्षान्त की दुपहरी
    मैना की चिंचिंयाँ-चिंयाँ से
    शहर न लगता था शहरी
    वहीं महाविद्यालय-प्रांगण में
    प्राध्यापकों की बसी सभा थी
    किंतु परे ‘वह’ एक-अकेला
    छांव पकड़ना सीख रहा था !

    धूप की ओट में बैठा ‘क्षितिज’
    ख़ुद के भीतर जाना सीख रहा था !!

    मधु-गीत लिये , मधु-रंग लिये
    दिये वर्ष ने कई प्रीति-प्रस्ताव
    पीछे वैभव-सुख छूटा जाता था
    किंतु न मोड़ा ‘उसने’ जीवन-प्रवाह
    जहाँ जाना उसे था, ‘वह’ चले चला..
    नित-नित आगे बढ़ना सीख रहा था !

    धूप की ओट में बैठा ‘क्षितिज’
    ख़ुद के भीतर जाना सीख रहा था !!

    कितने पराये यहाँ अपनों के वेश में
    कितने अजनबियों का साथ मिला
    प्रतिक्षण घात मिला , संघात मिला
    विश्वासों को रह-रह आघात मिला
    हर चोट, हर धोखे से संभलता ‘वह’
    चेहरों के मुखौटे गिनना सीख रहा था !

    धूप की ओट में बैठा ‘क्षितिज’
    ख़ुद के भीतर जाना सीख रहा था !!


    *-@निमाई प्रधान’क्षितिज’*
        रायगढ़,छत्तीसगढ़
         31/12/2018