Author: कविता बहार

  • राजकिशोर धिरही के बेहतरीन बाल कवितायेँ

    बाल दिवस पर बेहतरीन बाल कवितायेँ राजकिशोर धिरही के द्वारा प्रस्तुत किये जा रहे हैं जो आपको बेहद पसंद आयेगी.

    राजकिशोर धिरही के बेहतरीन बाल कवितायेँ
    14 नवम्बर बाल दिवस 14 November Children’s Day

    बाल कविता-लंगूर

    एक लंगूर छत पर आया
    उछल कूद कर धूम मचाया

    चीखा उदित,अनिस चिल्लाया
    मंकी आया मंकी आया

    विद्या बोली नीचे आओ
    बिस्किट चॉकलेट सब खाओ

    वह लंगूर उतर कर आया
    बिस्किट,चॉकलेट सब खाया

    बच्चों ने बोला फिर आना
    केला वेला सब कुछ खाना

    आम पेड़ पर चढ़ा लंगूर
    उछल कूद कर हो गया दूर

    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-घड़ियाल

    सरीसृप वर्ग में
    आता घड़ियाल
    मछली रोज पकड़
    खाता घड़ियाल

    लम्बी पूँछ
    थूथन लम्बा रहता
    धूप जाड़ा वर्षा
    सबकुछ सहता

    जल थल में
    करता रहता है वास
    थूथन में रहे
    घड़े आकृति खास

    आँखों से अपने
    आँसू बहाता
    घड़ियाली आँसू
    सदा कहलाता

    मगरमच्छ के जैसे
    होता रूप
    जल में रहता
    लेता जाकर धूप


    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-डायनासोर

    करोड़ो साल पहले जब,
    डायनासोर रहते थे।
    विशालकाय जीव उसको,
    इस धरती का कहते थे।

    जीवाश्म मिला है इनके,
    अंडे भी तो पाए हैं।
    वैज्ञानिक जीवाश्म देख,
    पंख वाले बताए हैं।

    दो पैरों से ही चलते,
    माँसाहारी रहते थे।
    शोध हुआ तो पता चला,
    खूँखार उसे कहते थे।

    संग्रहालय में रखे हैं,
    कंकाल देख लो जाकर।
    बड़ी छिपकली कहते,
    जीते थे पत्ती खाकर।

    विलुप्त हो गया धरा से,
    अवशेष इसके हर ओर।
    बड़े आकार वाले थे,
    ज्ञात रहे डायनासोर।
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-बंदर का अस्पताल

    भालू को सर्दी खाँसी
    बहुत तेज था बुखार
    बंदर ने दी जब गोली
    फिर हुआ बहुत सुधार

    भालू से बोला बंदर
    मास्क को लगाया कर
    घबराने की बात नहीं
    दूर से बताया कर

    स्वस्थ हुआ जब से भालू
    बताया उसने हाल
    जंगल में बनवाया है
    बंदर ने अस्पताल

    जंगल का राजा सुनकर
    सच का पता लगाया
    बंदर के अस्पताल में
    हाथी, भर्ती पाया

    अस्पताल में आकर के
    एक सुई लगवाते
    बाँह पकड़ कर के अपनी
    उई-उई सब गाते

    शेर ने कहा जंगल में
    सच में है ये कमाल
    जंगल में बनवाया है
    बंदर ने अस्पताल.


    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-अ से अनार

    अ से अनार आ से आम
    पढ़ना लिखना सुबह शाम

    इ से इमली ई से ईख
    मातृ कहती जल्दी सीख

    उ से उल्लू ऊ से ऊन
    मन में चलती बस ये धुन

    ए एड़ी ऐ से ऐनक
    रोज पढूँ आखिर कब तक

    ओ से ओखली बताते
    औ से औरत समझाते

    अं से अंगूर पढूँ जब
    अंत में अ: तक कहूँ सब
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-ककड़ी

    हरी-हरी ककड़ी को खाओ
    तन से गर्मी दूर भगाओ

    टेढ़ी-मेढ़ी इसकी सूरत
    पोषक तत्व सबकी जरूरत

    पोटेशियम पोषक विटामिन
    खाते रहना हर दो-दो दिन

    ककड़ी करती कब्ज को दूर
    पानी इसमें मिले भरपूर

    खाने में ककड़ी मजेदार
    त्वचा को बनाती चमकदार

    घर लेकर के आओ ककड़ी
    जी भर के तुम खाओ ककड़ी
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-उल्लू

    बड़ी-बड़ी आँखों का उल्लू
    सिर को खूब घुमाता उल्लू
    बुद्धिमान पक्षी है उल्लू
    दिन में प्रायः सोता उल्लू

    कीट,पतंगे खाता उल्लू
    चूहे भी अति भाता उल्लू
    करता डरावनी आवाजें
    निशि में अक्सर उड़ता उल्लू
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-बंदर

    बंदर को जब लगी प्यास
    चला गया कुएँ के पास

    देखा पानी को अंदर
    झाँकने लगा वह बंदर

    देख-देख अपनी छाया
    उछल-कूद खूब मचाया

    बंदर ने दाँत दिखाया
    हूबहू प्रतिकार पाया

    बंदर भूल गया प्यास
    बच्चे करने लगे उपहास
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता- दिव्यांगों को पढ़ने देना

    दिव्यांगों को पढ़ने देना
    उनको आगे बढ़ने देना

    बाल अपाहिज संकट झेले
    संग बैठ कर उनसे खेले

    साथ पढ़ाई मिलकर करते
    सपने वो भी देखा करते

    दिव्यांग हमारे हो साथी
    रहे खिलौने घोड़े हाथी

    भेद-भाव छोड़ बने समता
    दिव्यांगों में अद्‌भुत क्षमता

    जाकर के डॉक्टर दिखलाना
    मन उनके उजियारा लाना

    बाल अपाहिज जब मुस्काएं
    तन-मन में उमंग हो जाएं
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता- ऐ भाई

    ऐ भाई कुछ तो मेरी भी अब सुन
    गाय देती दूध भेड़ से है ऊन

    ऐ भाई बकरी बकरा बड़े खास
    ऊँचे दाम में बिकते इनके माँस

    ऐ भाई पी ले कुछ ज्ञान की घूँट
    रेगिस्तान का जहाज होते ऊँट

    ऐ भाई जानवर गधे हैं महान
    इनपर ढ़ोते पत्थर ईंट सामान

    ऐ भाई खेत में हल खींचे बैल
    होते हैं ज्यादा ताकतवर गुसैल

    ऐ भाई बलशाली होते घोड़े
    ताँगा गाडी को वह खींचे दौड़े
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-जिराफ


    ऊँची कद काठी वाला होता है जिराफ
    लंबी गर्दन वाला होता है हर जिराफ

    टांगें जीभ लंबी,प्यारा जानवर जिराफ
    बेहद शर्मिला जानवर होता है जिराफ

    धीमी आवाज में ही बोलता है जिराफ
    फल फूल पत्तियाँ खाता रहता है जिराफ

    जन्म के दिन ही चलता दौड़ता है जिराफ
    पैर मोड़ कर पानी को पीता है जिराफ
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-गैंडा

    ताकतवर कहलाता है गैंडा
    दौड़ कर भाग जाता है गैंडा

    आराम बहुत फरमाता गैंडा
    आलसपन को वह भाता गैंडा

    हरी घास पत्ती खाता गैंडा
    अपने सींग से डराता गैंडा

    कीचड़ में ही रह जाता गैंडा
    धूल मिट्टी में नहाता गैंडा

    कुरूप जानवर कहाता गैंडा
    चिड़ियाघर में दिख जाता गैंडा
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-हाथी


    भारी भरकम होता हाथी
    मोटे गद्देदार पाँव
    उनके साथ महावत आते
    कभी-कभी हमारे गाँव

    बच्चे देखा करते हाथी
    जोर-जोर से चिल्लाते
    हा हा हा हा हँसते रहते
    ताली भी खूब बजाते

    सूँड हिलाता रहता हाथी
    पोखर से पीता पानी
    पत्ते-डाली खाते रहता
    करता रहता मनमानी

    बड़ी जोर से यह चिंघाड़े
    बच्चे सुन कर डर जाते
    हाथी आया सुन-सुन के
    दर्शन करने को आते
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-बत्तख

    सुंदर-सुंदर प्यारे बत्तख
    सबके मन को ये भाते हैं
    तैर-तैर कर पोखर में ये
    दूर-दूर तक भी जाते हैं

    चपटी चोंच सपाट बने हैं
    पैर होते हैं जालीदार
    काले नीले स्वेत रंग के
    इनसे करते हैं सभी प्यार

    किट पतंगों को खाते रोज
    रहते हैं सदा जल में मस्त
    उल्टा कर दे इनको कोई
    हो जाते हैं बहुत ही लस्त

    क्वेक-क्वेक करते ही रहते
    सुन लें मानव कभी भी शोर
    पोखर में जाने को बत्तख
    उठ जाते हैं सदा ही भोर

    सैकड़ो अंडे देती सदा
    बत्तख को पाला करते हैं
    बत्तख पालन करते हैं जो
    दाने भी डाला करते हैं
    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-गोल-गोल

    गोल-गोल पहिये
    गोल बनी है धरती
    गोल गेंद होते
    गोल घूमे आरती

    गोल वृत्त होते
    गोल काँच चूड़ी
    गोल बने थाली
    गोल-गोल हो पूड़ी

    गोल टिफिन होते
    गोल ग्लोब भी रहते
    गोल सूरज चाँद
    गोल-बोल भी कहते

    गोल-गप्पे बने
    गोल खेल गोटी
    गोल पहिये चले
    गोल बने सब रोटी


    राजकिशोर धिरही
    छत्तीसगढ़


    बाल कविता-बकरी

    बाड़ी में घुस आती बकरी
    सब्जी भाजी खाती बकरी

    डंडा लेकर दौड़े दादा
    दूर भगाने करते वादा

    में में में बकरी चिल्लाती
    उछल कूद कर धूम मचाती

    बच्चे उसको पास बुलाते
    आओ आओ सब चिल्लाते

    बकरी कुछ समझ नहीं पाती
    भीड़ देख के वह डर जाती

    बच्चे हा-हा करते सारे
    चिल्लाकर ताली भी मारे

    बच्चे कहते बकरी प्यारी
    लगती हमको सबसे न्यारी

    राजकिशोर धिरही

    बाल कविता-जोंक

    जोंक देख के
    डर जाते हैं बच्चे
    तन से चिपके
    घबराते हैं बच्चे

    रक्त चूसक जोंक को
    कहते बच्चे
    पास आए
    दूर रहते सब बच्चे

    जोंक की होती है
    चपटी आकार
    जोंक करती है सदा
    रक्त आहार

    जोंक तेल भी
    बनाते हैं कुछ लोग
    जोंक थेरेपी
    खूब भगाते रोग

    घाव होने पर
    जोंक चिपकाते हैं
    गंदे रक्त जोंक से
    हटवाते हैं

    पोखर में तैरती
    रहती है जोंक
    मुनिया कहती
    अनोखी होती जोंक

    राजकिशोर धिरही
    जाँजगीर
    छत्तीसगढ़

    बाल कविता-गोह

    गोह जंगल में दिख जाती है
    मछली मेंढक बहुत खाती हैं

    छिपकली जैसी यह लगती है
    दौड़कर ये भागा करती है

    जीभ अपनी खूब लपलपाती
    देख कर किसी को भाग जाती

    दीवारों में चिपक जाती है
    पकड़ को मजबूत बनाती है

    गोह पकड़ बांध फेंका करते
    महल में फिर चढ़ जाया करते

    गोह देखकर डर नहीं जाना
    अपनी दूरी जरूर बनाना

    राजकिशोर धिरही
    छत्तीसगढ़

    बाल कविता-मधुमक्खी चौपाई

    मधुमक्खी है कीट कहाती
    छत्ते में वह मोम बनाती
    सबने इनकी सुनी कहानी
    एक रहे मधुमक्खी रानी

    फूलों से ही शहद बनाते
    औषधि मान सभी हैं खाते
    नर नारी सौंदर्य सदा पाते
    खाँसी सर्दी दूर भगाते

    मधुमक्खी से हम सब डरते
    झुंड बनाकर हमला करते
    छेड़े बिना नहीं ये काटे
    मधुमक्खी भरते फर्राटे

    उड़-उड़ कर इधर-उधर जाते
    पेड़ शाख में वास बनाते
    घर दीवार बनाते छत्ता
    देख लगे वह कागज गत्ता

    मधुमक्खी होती हैं प्यारी
    इसमें भी होते नर-नारी
    लाकर इसको घर में डाले
    रोजगार करने को पाले


    राजकिशोर धिरही
    छत्तीसगढ़

  • मैथिलीशरण गुप्त की 10 लोकप्रिय कवितायेँ

    चारु चंद्र की चंचल किरणें / मैथिलीशरण गुप्त

    मैथिलीशरण गुप्त की 10 लोकप्रिय कवितायेँ

    चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
    स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
    पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
    मानों झीम[1] रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥

    पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
    जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
    जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
    भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥

    किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
    राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
    बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
    जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!

    मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
    तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
    वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
    विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥

    कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
    आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
    बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
    मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-

    क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
    है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
    बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
    पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!

    है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
    रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
    और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
    शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।

    सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
    अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
    अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
    पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥

    तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
    वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
    अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
    किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!

    और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
    व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
    कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
    पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!

    सखि वे मुझसे कह कर जाते / मैथिलीशरण गुप्त

    सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
    कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?

    मुझको बहुत उन्होंने माना
    फिर भी क्या पूरा पहचाना?
    मैंने मुख्य उसी को जाना
    जो वे मन में लाते।
    सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

    स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
    प्रियतम को, प्राणों के पण में,
    हमीं भेज देती हैं रण में –
    क्षात्र-धर्म के नाते
    सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

    हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
    किसपर विफल गर्व अब जागा?
    जिसने अपनाया था, त्यागा;
    रहे स्मरण ही आते!
    सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

    नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
    पर इनसे जो आँसू बहते,
    सदय हृदय वे कैसे सहते ?
    गये तरस ही खाते!
    सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

    जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
    दुखी न हों इस जन के दुख से,
    उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
    आज अधिक वे भाते!
    सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

    गये, लौट भी वे आवेंगे,
    कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
    रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
    पर क्या गाते-गाते ?
    सखि, वे मुझसे कहकर जाते।

    नर हो, न निराश करो मन को / मैथिलीशरण गुप्त

    नर हो, न निराश करो मन को

    कुछ काम करो, कुछ काम करो
    जग में रह कर कुछ नाम करो
    यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
    समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
    कुछ तो उपयुक्त करो तन को
    नर हो, न निराश करो मन को।

    संभलो कि सुयोग न जाय चला
    कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
    समझो जग को न निरा सपना
    पथ आप प्रशस्त करो अपना
    अखिलेश्वर है अवलंबन को
    नर हो, न निराश करो मन को।

    जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
    फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
    तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
    उठके अमरत्व विधान करो
    दवरूप रहो भव कानन को
    नर हो न निराश करो मन को।

    निज गौरव का नित ज्ञान रहे
    हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
    मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
    सब जाय अभी पर मान रहे
    कुछ हो न तजो निज साधन को
    नर हो, न निराश करो मन को।

    प्रभु ने तुमको कर दान किए
    सब वांछित वस्तु विधान किए
    तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
    फिर है यह किसका दोष कहो
    समझो न अलभ्य किसी धन को
    नर हो, न निराश करो मन को।

    किस गौरव के तुम योग्य नहीं
    कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
    जन हो तुम भी जगदीश्वर के
    सब है जिसके अपने घर के
    फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
    नर हो, न निराश करो मन को।

    करके विधि वाद न खेद करो
    निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
    बनता बस उद्‌यम ही विधि है
    मिलती जिससे सुख की निधि है
    समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
    नर हो, न निराश करो मन को
    कुछ काम करो, कुछ काम करो।

    अर्जुन की प्रतिज्ञा / मैथिलीशरण गुप्त

    उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा,
    मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा ।
    मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ,
    प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ?

    युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से,
    अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से ।
    निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही,
    तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही ।

    साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं,
    पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं ।
    जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी,
    वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी ।

    अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है,
    इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है,
    उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है,
    उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है ।

    उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है,
    पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है ।
    अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं,
    तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं ।

    अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही,
    साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही ।
    सूर्यास्त से पहले न जो मैं कल जयद्रथ-वधकरूँ,
    तो शपथ करता हूँ स्वयं मैं ही अनल में जल मरूँ ।

    दोनों ओर प्रेम पलता है / मैथिलीशरण गुप्त

    दोनों ओर प्रेम पलता है।
    सखि, पतंग भी जलता है हा! दीपक भी जलता है!

    सीस हिलाकर दीपक कहता–
    ’बन्धु वृथा ही तू क्यों दहता?’
    पर पतंग पड़ कर ही रहता
    कितनी विह्वलता है!
    दोनों ओर प्रेम पलता है।
    बचकर हाय! पतंग मरे क्या?
    प्रणय छोड़ कर प्राण धरे क्या?
    जले नही तो मरा करे क्या?
    क्या यह असफलता है!
    दोनों ओर प्रेम पलता है।
    कहता है पतंग मन मारे–
    ’तुम महान, मैं लघु, पर प्यारे,
    क्या न मरण भी हाथ हमारे?
    शरण किसे छलता है?’
    दोनों ओर प्रेम पलता है।
    दीपक के जलने में आली,
    फिर भी है जीवन की लाली।
    किन्तु पतंग-भाग्य-लिपि काली,
    किसका वश चलता है?
    दोनों ओर प्रेम पलता है।
    जगती वणिग्वृत्ति है रखती,
    उसे चाहती जिससे चखती;
    काम नहीं, परिणाम निरखती।
    मुझको ही खलता है।
    दोनों ओर प्रेम पलता है।

    किसान (कविता) / मैथिलीशरण गुप्त

    हेमन्त में बहुधा घनों से पूर्ण रहता व्योम है
    पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है

    हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ
    खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ

    आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में
    अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में

    बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा
    है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा

    देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे
    किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे

    घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा
    घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा

    तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं
    किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं

    बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है
    है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है

    तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते
    यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

    सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है
    है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है

    मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है
    शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है

    शिशिर न फिर गिरि वन में / मैथिलीशरण गुप्त

    शिशिर न फिर गिरि वन में
    जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में
    कितना कंपन तुझे चाहिए ले मेरे इस तन में
    सखी कह रही पांडुरता का क्या अभाव आनन में
    वीर जमा दे नयन नीर यदि तू मानस भाजन में
    तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में
    हँसी गई रो भी न सकूँ मैं अपने इस जीवन में
    तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव भुवन में।

    मुझे फूल मत मारो / मैथिलीशरण गुप्त

    मुझे फूल मत मारो,
    मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
    होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु गरल न गारो,
    मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
    नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
    बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह–यह हरनेत्र निहारो!
    रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
    लो, यह मेरी चरण-धूलि उस रति के सिर पर धारो!

    मातृभूमि / मैथिलीशरण गुप्त

    नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
    सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
    नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
    बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
    करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
    हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥
    जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
    घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
    परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
    जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥
    हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
    हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?
    पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
    तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
    तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
    बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥
    फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
    हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥
    निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
    शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
    षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
    हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥
    शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
    हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥
    सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
    भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
    औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
    खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥
    जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
    हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥
    क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
    सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
    विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
    भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥
    हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
    हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥
    जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
    उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
    लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
    उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥
    उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
    होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥

    भारत का झण्डा / मैथिलीशरण गुप्त

    भारत का झण्डा फहरै।
    छोर मुक्ति-पट का क्षोणी पर,
    छाया काके छहरै॥

    मुक्त गगन में, मुक्त पवन में,
    इसको ऊँचा उड़ने दो।
    पुण्य-भूमि के गत गौरव का,
    जुड़ने दो, जी जुड़ने दो।
    मान-मानसर का शतदल यह,
    लहर लहर का लहरै।
    भारत का झण्डा फहरै॥

    रक्तपात पर अड़ा नहीं यह,
    दया-दण्ड में जड़ा हुआ।
    खड़ा नहीं पशु-बल के ऊपर,
    आत्म-शक्ति से बड़ा हुआ।
    इसको छोड़ कहाँ वह सच्ची,
    विजय-वीरता ठहरै।
    भारत का झण्डा फहरै॥

    इसके नीचे अखिल जगत का,
    होता है अद्भुत आह्वान!
    कब है स्वार्थ मूल में इसके ?
    है बस, त्याग और बलिदान॥
    ईर्षा, द्वेष, दम्भ; हिंसा का,
    हदय हार कर हहरै।
    भारत का झण्डा फहरै॥

    पूज्य पुनीत मातृ-मन्दिर का,
    झण्डा क्या झुक सकता है?
    क्या मिथ्या भय देख सामने,
    सत्याग्रह रुक सकता है?
    घहरै दिग-दिगन्त में अपनी
    विजय दुन्दभी घहरै।
    भारत का झण्डा फहरै॥

  • सुमित्रानंदन पंत की १० सर्वश्रेष्ठ कवितायेँ

    sumitranandan pant
    sumitranandan pant

    परिवर्तन / सुमित्रानंदन पंत


    (१)
    अहे निष्ठुर परिवर्तन!
    तुम्हारा ही तांडव नर्तन
    विश्व का करुण विवर्तन!
    तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
    निखिल उत्थान, पतन!
    अहे वासुकि सहस्र फन!
    लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर
    छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
    शत-शत फेनोच्छ्वासित,स्फीत फुतकार भयंकर
    घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
    मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
    अखिल विश्व की विवर
    वक्र कुंडल
    दिग्मंडल !

    (२)
    आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
    भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
    ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
    राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
    स्वर्ग की सुषमा जब साभार
    धरा पर करती थी अभिसार!
    प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
    (स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
    गूंज उठते थे बारंबार,
    सृष्टि के प्रथमोद्गार!
    नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
    ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!
    अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
    कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
    दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
    अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!


    (३)
    अह दुर्जेय विश्वजित !
    नवाते शत सुरवर नरनाथ
    तुम्हारे इन्द्रासन-तल माथ;
    घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
    सतत रथ के चक्रों के साथ !
    तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित ,
    करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित ,
    नग्न नगर कर,भग्न भवन,प्रतिमाएँ खंडित
    हर लेते हों विभव,कला,कौशल चिर संचित !
    आधि,व्याधि,बहुवृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल
    वह्नि,बाढ़,भूकम्प –तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
    अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल
    हिल-इल उठता है टलमल
    पद दलित धरातल !

    (४)
    जगत का अविरत ह्रतकंपन
    तुम्हारा ही भय -सूचन ;
    निखिल पलकों का मौन पतन
    तुम्हारा ही आमंत्रण !
    विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल
    छान रहे तुम,कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल;
    तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल
    दलमल देते,वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल !
    अये ,सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल
    नैश गगन – सा सकल
    तुम्हारा हीं समाधि स्थल !

    ताज / सुमित्रानंदन पंत

    हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
    जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
    संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन,
    नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?

    मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
    आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
    प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
    स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?
    शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का
    मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?

    गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
    मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!
    भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
    मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर!

    ग्राम श्री / सुमित्रानंदन पंत

    फैली खेतों में दूर तलक
    मख़मल की कोमल हरियाली,
    लिपटीं जिससे रवि की किरणें
    चाँदी की सी उजली जाली !
    तिनकों के हरे हरे तन पर
    हिल हरित रुधिर है रहा झलक,
    श्यामल भू तल पर झुका हुआ
    नभ का चिर निर्मल नील फलक।

    रोमांचित-सी लगती वसुधा
    आयी जौ गेहूँ में बाली,
    अरहर सनई की सोने की
    किंकिणियाँ हैं शोभाशाली।
    उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध,
    फूली सरसों पीली-पीली,
    लो, हरित धरा से झाँक रही
    नीलम की कलि, तीसी नीली।

    रँग रँग के फूलों में रिलमिल
    हँस रही संखिया मटर खड़ी।
    मख़मली पेटियों सी लटकीं
    छीमियाँ, छिपाए बीज लड़ी।
    फिरती हैं रँग रँग की तितली
    रंग रंग के फूलों पर सुन्दर,
    फूले फिरते हों फूल स्वयं
    उड़ उड़ वृंतों से वृंतों पर।

    अब रजत-स्वर्ण मंजरियों से
    लद गईं आम्र तरु की डाली।
    झर रहे ढाँक, पीपल के दल,
    हो उठी कोकिला मतवाली।
    महके कटहल, मुकुलित जामुन,
    जंगल में झरबेरी झूली।
    फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,
    आलू, गोभी, बैंगन, मूली।

    पीले मीठे अमरूदों में
    अब लाल लाल चित्तियाँ पड़ीं,
    पक गये सुनहले मधुर बेर,
    अँवली से तरु की डाल जड़ीं।
    लहलह पालक, महमह धनिया,
    लौकी औ’ सेम फली, फैलीं,
    मख़मली टमाटर हुए लाल,
    मिरचों की बड़ी हरी थैली।

    गंजी को मार गया पाला,
    अरहर के फूलों को झुलसा,
    हाँका करती दिन भर बन्दर
    अब मालिन की लड़की तुलसा।
    बालाएँ गजरा काट-काट,
    कुछ कह गुपचुप हँसतीं किन किन,
    चाँदी की सी घंटियाँ तरल
    बजती रहतीं रह रह खिन खिन।

    छायातप के हिलकोरों में
    चौड़ी हरीतिमा लहराती,
    ईखों के खेतों पर सुफ़ेद
    काँसों की झंड़ी फहराती।
    ऊँची अरहर में लुका-छिपी
    खेलतीं युवतियाँ मदमाती,
    चुंबन पा प्रेमी युवकों के
    श्रम से श्लथ जीवन बहलातीं।

    बगिया के छोटे पेड़ों पर
    सुन्दर लगते छोटे छाजन,
    सुंदर, गेहूँ की बालों पर
    मोती के दानों-से हिमकन।
    प्रात: ओझल हो जाता जग,
    भू पर आता ज्यों उतर गगन,
    सुंदर लगते फिर कुहरे से
    उठते-से खेत, बाग़, गृह, वन।

    बालू के साँपों से अंकित
    गंगा की सतरंगी रेती
    सुंदर लगती सरपत छाई
    तट पर तरबूज़ों की खेती।
    अँगुली की कंघी से बगुले
    कलँगी सँवारते हैं कोई,
    तिरते जल में सुरख़ाब, पुलिन पर
    मगरौठी रहती सोई।

    डुबकियाँ लगाते सामुद्रिक,
    धोतीं पीली चोंचें धोबिन,
    उड़ अबालील, टिटहरी, बया,
    चाहा चुगते कर्दम, कृमि, तृन।
    नीले नभ में पीलों के दल
    आतप में धीरे मँडराते,
    रह रह काले, भूरे, सुफ़ेद
    पंखों में रँग आते जाते।

    लटके तरुओं पर विहग नीड़
    वनचर लड़कों को हुए ज्ञात,
    रेखा-छवि विरल टहनियों की
    ठूँठे तरुओं के नग्न गात।
    आँगन में दौड़ रहे पत्ते,
    घूमती भँवर सी शिशिर वात।
    बदली छँटने पर लगती प्रिय
    ऋतुमती धरित्री सद्य स्नात।

    हँसमुख हरियाली हिम-आतप
    सुख से अलसाए-से सोये,
    भीगी अँधियाली में निशि की
    तारक स्वप्नों में-से-खोये,–
    मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम–
    जिस पर नीलम नभ आच्छादन,–
    निरुपम हिमान्त में स्निग्ध शांत
    निज शोभा से हरता जन मन!

    पर्वत प्रदेश में पावस / सुमित्रानंदन पंत

    पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
    पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

    मेखलाकर पर्वत अपार
    अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
    अवलोक रहा है बार-बार
    नीचे जल में निज महाकार,

    -जिसके चरणों में पला ताल
    दर्पण सा फैला है विशाल!

    गिरि का गौरव गाकर झर-झर
    मद में लनस-नस उत्‍तेजित कर
    मोती की लडि़यों सी सुन्‍दर
    झरते हैं झाग भरे निर्झर!

    गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
    उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
    है झॉंक रहे नीरव नभ पर
    अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

    उड़ गया, अचानक लो, भूधर
    फड़का अपार वारिद के पर!
    रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
    है टूट पड़ा भू पर अंबर!

    धँस गए धरा में सभय शाल!
    उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
    -यों जलद-यान में विचर-विचर
    था इंद्र खेलता इंद्रजाल

    संध्‍या के बाद / सुमित्रानंदन पंत

    सिमटा पंख साँझ की लाली
    जा बैठी तरू अब शिखरों पर
    ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
    झरते चंचल स्‍वर्णिम निझर!
    ज्‍योति स्‍थंभ-सा धँस सरिता में
    सूर्य क्षितीज पर होता ओझल
    बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा
    लगता चितकबरा गंगाजल!
    धूपछाँह के रंग की रेती
    अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित
    नील लहरियों में लोरित
    पीला जल रजत जलद से बिंबित!
    सिकता, सलिल, समीर सदा से,
    स्‍नेह पाश में बँधे समुज्‍ज्‍वल,
    अनिल पीघलकर सलि‍ल, सलिल
    ज्‍यों गति द्रव खो बन गया लवोपल
    शंख घट बज गया मंदिर में
    लहरों में होता कंपन,
    दीप शीखा-सा ज्‍वलित कलश
    नभ में उठकर करता निराजन!
    तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
    विधवाएँ जप ध्‍यान में मगन,
    मंथर धारा में बहता
    जिनका अदृश्‍य, गति अंतर-रोदन!
    दूर तमस रेखाओं सी,
    उड़ती पंखों सी-गति चित्रित
    सोन खगों की पाँति
    आर्द्र ध्‍वनि से निरव नभ करती मुखरित!
    स्‍वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
    किरणों की बादल-सी जलकर,
    सनन् तीर-सा जाता नभ में
    ज्‍योतित पंखों कंठों का स्‍वर!
    लौटे खग, गायें घर लौटीं
    लौटे कृषक श्रांत श्‍लथ डग धर
    छिपे गृह में म्‍लान चराचर
    छाया भी हो गई अगोचर,
    लौट पैंठ से व्‍यापारी भी
    जाते घर, उस पार नाव पर,
    ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
    खाली बोरों पर, हुक्‍का भर!
    जोड़ों की सुनी द्वभा में,
    झूल रही निशि छाया छाया गहरी,
    डूब रहे निष्‍प्रभ विषाद में
    खेत, बाग, गृह, तरू, तट लहरी!
    बिरहा गाते गाड़ी वाले,
    भूँक-भूँकर लड़ते कूकर,
    हुआँ-हुआँ करते सियार,
    देते विषण्‍ण निशि बेला को स्‍वर!

    माली की मँड़इ से उठ,
    नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
    मंद पवन में तिरती
    नीली रेशम की-सी हलकी जाली!
    बत्‍ती जल दुकानों में
    बैठे सब कस्‍बे के व्‍यापारी,
    मौन मंद आभा में
    हिम की ऊँध रही लंबी अधियारी!
    धुआँ अधिक देती है
    टिन की ढबरी, कम करती उजियाली,
    मन से कढ़ अवसाद श्रांति
    आँखों के आगे बुनती जाला!
    छोटी-सी बस्‍ती के भीतर
    लेन-देन के थोथे सपने
    दीपक के मंडल में मिलकर
    मँडराते घिर सुख-दुख अपने!
    कँप-कँप उठते लौ के संग
    कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
    क्षीण ज्‍योति ने चुपके ज्‍यों
    गोपन मन को दे दी हो भाषा!
    लीन हो गई क्षण में बस्‍ती,
    मिली खपरे के घर आँगन,
    भूल गए लाला अपनी सुधी,
    भूल गया सब ब्‍याज, मूलधन!
    सकूची-सी परचून किराने की ढेरी
    लग रही ही तुच्‍छतर,
    इस निरव प्रदोष में आकुल
    उमड़ रहा अंतर जग बाहर!
    अनुभव करता लाला का मन,
    छोटी हस्‍ती का सस्‍तापन,
    जाग उठा उसमें मानव,
    औ’ असफल जीवन का उत्‍पीड़न!
    दैन्‍य दुख अपमाल ग्‍लानि
    चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
    बिना आय की क्‍लांति बनी रही
    उसके जीवन की परिभाषा!
    जड़ अनाज के ढेर सदृश ही
    वह दीन-भर बैठा गद्दी पर
    बात-बात पर झूठ बोलता
    कौड़ी-सी स्‍पर्धा में मर-मर!
    फिर भी क्‍या कुटुंब पलता है?
    रहते स्‍वच्‍छ सुधर सब परिजन?
    बना पा रहा वह पक्‍का घर?
    मन में सुख है? जुटता है धन?
    खिसक गई कंधों में कथड़ी
    ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
    सोच रहा बस्‍ती का बनिया
    घोर विवशता का कारण!
    शहरी बनियों-सा वह भी उठ
    क्‍यों बन जाता नहीं महाजन?
    रोक दिए हैं किसने उसकी
    जीवन उन्‍नती के सब साधन?
    यह क्‍यों संभव नहीं
    व्‍यवस्‍था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
    कर्म और गुण के समान ही
    सकल आय-व्‍याय का हो वितरण?
    घुसे घरौंदे में मि के
    अपनी-अपनी सोच रहे जन,
    क्‍या ऐसा कुछ नहीं,
    फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन?
    मिलकर जन निर्माण करे जग,
    मिलकर भोग करें जीवन करे जीवन का,
    जन विमुक्‍त हो जन-शोषण से,
    हो समाज अधिकारी धन का?
    दरिद्रता पापों की जननी,
    मिटे जनों के पाप, ताप, भय,
    सुंदर हो अधिवास, वसन, तन,
    पशु पर मानव की हो जय?
    वक्ति नहीं, जग की परिपाटी
    दोषी जन के दु:ख क्‍लेश की
    जन का श्रम जन में बँट जाए,
    प्रजा सुखी हो देश देश की!
    टूट गया वह स्‍वप्‍न वणिक का,
    आई जब बुढि़या बेचारी,
    आध-पाव आटा लेने
    लो, लाला ने फिर डंडी मारी!
    चीख उठा घुघ्‍घू डालों में
    लोगों ने पट दिए द्वार पर,
    निगल रहा बस्‍ती को धीरे,
    गाढ़ अलस निद्रा का अजगर!

    कला के प्रति / सुमित्रानंदन पंत

    तुम भाव प्रवण हो।
    जीवन पिय हो, सहनशील सहृदय हो, कोमल मन हो।
    ग्राम तुम्हारा वास रूढ़ियों का गढ़ है चिर जर्जर,
    उच्च वंश मर्यादा केवल स्वर्ण-रत्नप्रभ पिंजर।
    जीर्ण परिस्थितियाँ ये तुम में आज हो रहीं बिम्बित,
    सीमित होती जाती हो तुम, अपने ही में अवसित।
    तुम्हें तुम्हारा मधुर शील कर रहा अजान पराजित,
    वृद्ध हो रही हो तुम प्रतिदिन नहीं हो रही विकसित।

    नारी की सुंदरता पर मैं होता नहीं विमोहित,
    शोभा का ऐश्वर्य मुझे करता अवश्य आनंदित।
    विशद स्त्रीत्व का ही मैं मन में करता हूँ निज पूजन,
    जब आभा देही नारी आह्लाद प्रेम कर वर्षण
    मधुर मानवी की महिमा से भू को करती पावन।
    तुम में सब गुण हैं: तोड़ो अपने भय कल्पित बन्धन,
    जड़ समाज के कर्दम से उठ कर सरोज सी ऊपर,
    अपने अंतर के विकास से जीवन के दल दो भर।
    सत्य नहीं बाहर: नारी का सत्य तुम्हारे भीतर,
    भीतर ही से करो नियंत्रित जीवन को, छोड़ो डर।

    सोनजुही / सुमित्रानंदन पंत

    सोनजुही की बेल नवेली,
    एक वनस्पति वर्ष, हर्ष से खेली, फूली, फैली,
    सोनजुही की बेल नवेली!
    आँगन के बाड़े पर चढ़कर
    दारु खंभ को गलबाँही भर,
    कुहनी टेक कँगूरे पर
    वह मुस्काती अलबेली!
    सोनजुही की बेल छबीली!
    दुबली पतली देह लतर, लोनी लंबाई,
    प्रेम डोर सी सहज सुहाई!
    फूलों के गुच्छों से उभरे अंगों की गोलाई,
    निखरे रंगों की गोराई
    शोभा की सारी सुघराई
    जाने कब भुजगी ने पाई!
    सौरभ के पलने में झूली
    मौन मधुरिमा में निज भूली,
    यह ममता की मधुर लता
    मन के आँगन में छाई!
    सोनजुही की बेल लजीली
    पहिले अब मुस्काई!
    एक टाँग पर उचक खड़ी हो
    मुग्धा वय से अधिक बड़ी हो,
    पैर उठा कृश पिंडुली पर धर,
    घुटना मोड़ , चित्र बन सुन्दर,
    पल्लव देही से मृदु मांसल,
    खिसका धूप छाँह का आँचल
    पंख सीप के खोल पवन में
    वन की हरी परी आँगन में
    उठ अंगूठे के बल ऊपर
    उड़ने को अब छूने अम्बर!
    सोनजुही की बेल हठीली
    लटकी सधी अधर पर!
    झालरदार गरारा पहने
    स्वर्णिम कलियों के सज गहने
    बूटे कढ़ी चुनरी फहरा
    शोभा की लहरी-सी लहरा
    तारों की-सी छाँह सांवली,
    सीधे पग धरती न बावली
    कोमलता के भार से मरी
    अंग भंगिमा भरी, छरहरी!
    उदि्भद जग की-सी निर्झरिणी
    हरित नीर, बहती सी टहनी!
    सोनजुही की बेल,
    चौकड़ी भरती चंचल हिरनी!
    आकांक्षा सी उर से लिपटी,
    प्राणों के रज तम से चिपटी,
    भू यौवन की सी अंगड़ाई,
    मधु स्वप्नों की सी परछाई,
    रीढ़ स्तम्भ का ले अवलंबन
    धरा चेतना करती रोहण
    आ, विकास पथ पर भू जीवन!
    सोनजुही की बेल,
    गंध बन उड़ी, भरा नभ का मन!

    ग्राम देवता / सुमित्रानंदन पंत

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, भूति ग्राम !
    तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्णकाम,
    शिर पर शोभित वर छत्र तड़ित स्मित घन श्याम,
    वन पवन मर्मरित-व्यजन, अन्न फल श्री ललाम।

    तुम कोटि बाहु, वर हलधर, वृष वाहन बलिष्ठ,
    मित असन, निर्वसन, क्षीणोदर, चिर सौम्य शिष्ट;
    शिर स्वर्ण शस्य मंजरी मुकुट, गणपति वरिष्ठ,
    वाग्युद्ध वीर, क्षण क्रुद्ध धीर, नित कर्म निष्ठ।

    पिक वयनी मधुऋतु से प्रति वत्सर अभिनंदित,
    नव आम्र मंजरी मलय तुम्हें करता अर्पित।
    प्रावृट्‍ में तव प्रांगण घन गर्जन से हर्षित,
    मरकत कल्पित नव हरित प्ररोहों में पुलकित!

    शशि मुखी शरद करती परिक्रमा कुंद स्मित,
    वेणी में खोंसे काँस, कान में कुँई लसित।
    हिम तुमको करता तुहिन मोतियों से भूषित,
    बहु सोन कोक युग्मों से तव सरि-सर कूजित।

    अभिराम तुम्हारा बाह्य रूप, मोहित कवि मन,
    नभ के नीलम संपुट में तुम मरकत शोभन!
    पर, खोल आज निज अंतःपुर के पट गोपन
    चिर मोह मुक्त कर दिया, देव! तुमने यह जन!

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, रूढ़ि धाम!
    तुम स्थिर, परिवर्तन रहित, कल्पवत्‌ एक याम,
    जीवन संघर्षण विरत, प्रगति पथ के विराम,
    शिक्षक तुम, दस वर्षों से मैं सेवक, प्रणाम।

    कवि अल्प, उडुप मति, भव तितीर्षु,–दुस्तर अपार,
    कल्पना पुत्र मैं, भावी द्रष्टा, निराधार,
    सौन्दर्य स्वप्नचर,– नीति दंडधर तुम उदार,
    चिर परम्परा के रक्षक, जन हित मुक्त द्वार।

    दिखलाया तुमने भारतीयता का स्वरूप,
    जन मर्यादा का स्रोत शून्य चिर अंध कूप,
    जग से अबोध, जानता न था मैं छाँह धूप,
    तुम युग युग के जन विश्वासों के जीर्ण स्तूप!

    यह वही अवध! तुलसी की संस्कृति का निवास!
    श्री राम यहीं करते जन मानस में विलास!
    अह, सतयुग के खँडहर का यह दयनीय ह्रास!
    वह अकथनीय मानसिक दैन्य का बना ग्रास!!

    ये श्रीमानों के भवन आज साकेत धाम!
    संयम तप के आदर्श बन गए भोग काम!
    आराधित सत्व यहाँ, पूजित धन, वंश, नाम!
    यह विकसित व्यक्तिवाद की संस्कृति! राम राम!!

    श्री राम रहे सामंत काल के ध्रुव प्रकाश,
    पशुजीवी युग में नव कृषि संस्कृति के विकास;
    कर सके नहीं वे मध्य युगों का तम विनाश,
    जन रहे सनातनता के तब से क्रीत दास!

    पशु-युग में थे गणदेवों के पूजित पशुपति,
    थी रुद्रचरों से कुंठित कृषि युग की उन्नति ।
    श्री राम रुद्र की शिव में कर जन हित परिणति,
    जीवित कर गए अहल्या को, थे सीतापति!

    वाल्मीकि बाद आए श्री व्यास जगत वंदित,
    वह कृषि संस्कृति का चरमोन्नत युग था निश्चित;
    बन गए राम तब कृष्ण, भेद मात्रा का मित,
    वैभव युग की वंशी से कर जन मन मोहित।

    तब से युग युग के हुए चित्रपट परिवर्तित,
    तुलसी ने कृषि मन युग अनुरूप किया निर्मित।
    खोगया सत्य का रूप, रह गया नामामृत,
    जन समाचरित वह सगुण बन गया आराधित!

    गत सक्रिय गुण बन रूढ़ि रीति के जाल गहन
    कृषि प्रमुख देश के लिए होगए जड़ बंधन।
    जन नही, यंत्र जीवनोपाय के अब वाहन,
    संस्कृति के केन्द्र न वर्ग अधिप, जन साधारण!

    उच्छिष्ट युगों का आज सनातनवत्‌ प्रचलित,
    बन गईं चिरंतन रीति नीतियाँ, — स्थितियाँ मृत।
    गत संस्कृतियाँ थी विकसित वर्ग व्यक्ति आश्रित,
    तब वर्ग व्यक्ति गुण, जन समूह गुण अब विकसित।

    अति-मानवीय था निश्चित विकसित व्यक्तिवाद,
    मनुजों में जिसने भरा देव पशु का प्रमाद।
    जन जीवन बना न विशद, रहा वह निराह्लाद,
    विकसित नर नर-अपवाद नही, जन-गुण-विवाद।

    तब था न वाष्प, विद्युत का जग में हुआ उदय,
    ये मनुज यंत्र, युग पुरुष सहस्र हस्त बलमय।
    अब यंत्र मनुज के कर पद बल, सेवक समुदय,
    सामंत मान अब व्यर्थ,– समृद्ध विश्व अतिशय।

    अब मनुष्यता को नैतिकता पर पानी जय,
    गत वर्ग गुणों को जन संस्कृति में होना लय;
    देशों राष्ट्रों को मानव जग बनना निश्चय,
    अंतर जग को फिर लेना वहिर्जगत आश्रय।

    राम राम,
    हे ग्राम्य देवता, यथा नाम ।
    शिक्षक हो तुम, मै शिष्य, तुम्हें सविनय प्रणाम।
    विजया, महुआ, ताड़ी, गाँजा पी सुबह शाम
    तुम समाधिस्थ नित रहो, तुम्हें जग से न काम!

    पंडित, पंडे, ओझा, मुखिया औ’ साधु, संत
    दिखलाते रहते तुम्हें स्वर्ग अपवर्ग पंथ।
    जो था, जो है, जो होगा,–सब लिख गए ग्रंथ,
    विज्ञान ज्ञान से बड़े तुम्हारे मंत्र तंत्र।

    युग युग से जनगण, देव! तुम्हारे पराधीन,
    दारिद्र्य दुःख के कर्दम में कृमि सदृश लीन!
    बहु रोग शोक पीड़ित, विद्या बल बुद्धि हीन,
    तुम राम राज्य के स्वप्न देखते उदासीन!

    जन अमानुषी आदर्शो के तम से कवलित,
    माया उनको जग, मिथ्या जीवन, देह अनित;
    वे चिर निवृत्ति के भोगी,–त्याग विराग विहित,
    निज आचरणों में नरक जीवियों तुल्य पतित!

    वे देव भाव के प्रेमी,–पशुओं से कुत्सित,
    नैतिकता के पोषक,– मनुष्यता से वंचित,
    बहु नारी सेवी,- – पतिव्रता ध्येयी निज हित,
    वैधव्य विधायक,– बहु विवाह वादी निश्चित।

    सामाजिक जीवन के अयोग्य, ममता प्रधान,
    संघर्षण विमुख, अटल उनको विधि का विधान।
    जग से अलिप्त वे, पुनर्जन्म का उन्हें ध्यान,
    मानव स्वभाव के द्रोही, श्वानों के समान।

    राम राम,
    हे ग्राम देव, लो हृदय थाम,
    अब जन स्वातंत्र्य युद्ध की जग में धूम धाम।
    उद्यत जनगण युग क्रांति के लिए बाँध लाम,
    तुम रूढ़ि रीति की खा अफ़ीम, लो चिर विराम!

    यह जन स्वातंत्र्य नही, जनैक्य का वाहक रण,
    यह अर्थ राजनीतिक न, सांस्कृति संघर्षण।
    युग युग की खंड मनुजता, दिशि दिशि के जनगण
    मानवता में मिल रहे,– ऐतिहासिक यह क्षण!

    नव मानवता में जाति वर्ग होंगे सब क्षय,
    राष्ट्रों के युग वृत्तांश परिधि मे जग की लय।
    जन आज अहिंसक, होंगे कल स्नेही, सहृदय,
    हिन्दु, ईसाई, मुसलमान,–मानव निश्चय।

    मानवता अब तक देश काल के थी आश्रित,
    संस्कृतियाँ सकल परिस्थितियों से थीं पीड़ित।
    गत देश काल मानव के बल से आज विजित,
    अब खर्व विगत नैतिकता, मनुष्यता विकसित।

    छायाएँ हैं संस्कृतियाँ, मानव की निश्चित,
    वह केन्द्र, परिस्थितियों के गुण उसमें बिम्बित।
    मानवी चेतना खोल युगों के गुण कवलित
    अब नव संस्कृति के वसनों से होगी भूषित।

    विश्वास धर्म, संस्कृतियाँ, नीति रीतियाँ गत
    जन संघर्षण में होगी ध्वंस, लीन, परिणत।
    बंधन विमुक्त हो मानव आत्मा अप्रतिहत
    नव मानवता का सद्य करेगी युग स्वागत।

    राम राम,
    हे ग्राम देवता, रूढ़िधाम!
    तुम पुरुष पुरातन, देव सनातन, पूर्ण काम,
    जड़वत्, परिवर्तन शून्य, कल्प शत एक याम,
    शिक्षक हो तुम, मैं शिष्य, तुम्हें शत शत प्रणाम।

    भारतमाता / सुमित्रानंदन पंत

    भारत माता
    ग्रामवासिनी।
    खेतों में फैला है श्यामल
    धूल भरा मैला सा आँचल,
    गंगा यमुना में आँसू जल,
    मिट्टी कि प्रतिमा
    उदासिनी।

    दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन,
    अधरों में चिर नीरव रोदन,
    युग युग के तम से विषण्ण मन,
    वह अपने घर में
    प्रवासिनी।

    तीस कोटि संतान नग्न तन,
    अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन,
    मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन,
    नत मस्तक
    तरु तल निवासिनी!

    स्वर्ण शस्य पर -पदतल लुंठित,
    धरती सा सहिष्णु मन कुंठित,
    क्रन्दन कंपित अधर मौन स्मित,
    राहु ग्रसित
    शरदेन्दु हासिनी।

    चिन्तित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित,
    नमित नयन नभ वाष्पाच्छादित,
    आनन श्री छाया-शशि उपमित,
    ज्ञान मूढ़
    गीता प्रकाशिनी!

    सफल आज उसका तप संयम,
    पिला अहिंसा स्तन्य सुधोपम,
    हरती जन मन भय, भव तम भ्रम,
    जग जननी
    जीवन विकासिनी।

    नौका-विहार / सुमित्रानंदन पंत

    शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
    अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
    सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
    लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
    तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
    लहरे उर पर कोमल कुंतल।
    गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
    चंचल अंचल-सा नीलांबर!
    साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
    सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर।

    चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
    हम चले नाव लेकर सत्वर।
    सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
    लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।
    मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर
    तिर रही, खोल पालों के पर।
    निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर
    दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।
    कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन,
    पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।

    नौका से उठतीं जल-हिलोर,
    हिल पड़ते नभ के ओर-छोर।
    विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल
    ज्योतित कर नभ का अंतस्तल,
    जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल
    फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल।
    सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल,
    रुपहरे कचों में ही ओझल।
    लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख
    दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।

    अब पहुँची चपला बीच धार,
    छिप गया चाँदनी का कगार।
    दो बाहों-से दूरस्थ-तीर, धारा का कृश कोमल शरीर
    आलिंगन करने को अधीर।
    अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल, लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,
    अपलक-नभ नील-नयन विशाल;
    मा के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
    ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप;
    वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-शोक?
    छाया की कोकी को विलोक?

    पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार,
    नौका घूमी विपरीत-धार।
    ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार,
    बिखराती जल में तार-हार।
    चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल
    रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल।
    लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
    फैले फूले जल में फेनिल।
    अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह
    हम बढ़े घाट को सहोत्साह।

    ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
    उर में आलोकित शत विचार।
    इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
    शाश्वत है गति, शाश्वत संगम।
    शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास,
    शाश्वत लघु-लहरों का विलास।
    हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार,
    शाश्वत जीवन-नौका-विहार।
    मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
    करता मुझको अमरत्व-दान।

  • माखनलाल चतुर्वेदी की १० सर्वश्रेष्ठ कवितायेँ

    माखनलाल चतुर्वेदी की १० सर्वश्रेष्ठ कवितायेँ

    दीप से दीप जले / माखनलाल चतुर्वेदी

    सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
    कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

    लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
    लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
    लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
    लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
    लक्ष्मी सर्जन हुआ
    कमल के फूलों में
    लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

    गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
    सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार
    मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
    सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
    शकट चले जलयान चले
    गतिमान गगन के गान
    तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

    उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
    रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
    सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर
    गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर
    भवन-भवन तेरा मंदिर है
    स्वर है श्रम की वाणी
    राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

    वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
    खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
    सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल
    आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।
    तू ही जगत की जय है,
    तू है बुद्धिमयी वरदात्री
    तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

    युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
    सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।

    कैदी और कोकिला / माखनलाल चतुर्वेदी

    क्या गाती हो?
    क्यों रह-रह जाती हो?
    कोकिल बोलो तो!
    क्या लाती हो?
    सन्देशा किसका है?
    कोकिल बोलो तो!

    ऊँची काली दीवारों के घेरे में,
    डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में,
    जीने को देते नहीं पेट भर खाना,
    मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना!
    जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है,
    शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है?
    हिमकर निराश कर चला रात भी काली,
    इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली ?

    क्यों हूक पड़ी?
    वेदना-बोझ वाली-सी;
    कोकिल बोलो तो!

    “क्या लुटा?
    मृदुल वैभव की रखवाली सी;
    कोकिल बोलो तो।”

    बन्दी सोते हैं, है घर-घर श्वासों का
    दिन के दुख का रोना है निश्वासों का,
    अथवा स्वर है लोहे के दरवाजों का,
    बूटों का, या सन्त्री की आवाजों का,
    या गिनने वाले करते हाहाकार।
    सारी रातें है-एक, दो, तीन, चार-!
    मेरे आँसू की भरीं उभय जब प्याली,
    बेसुरा! मधुर क्यों गाने आई आली?

    क्या हुई बावली?
    अर्द्ध रात्रि को चीखी,
    कोकिल बोलो तो!
    किस दावानल की
    ज्वालाएँ हैं दीखीं?
    कोकिल बोलो तो!

    निज मधुराई को कारागृह पर छाने,
    जी के घावों पर तरलामृत बरसाने,
    या वायु-विटप-वल्लरी चीर, हठ ठाने
    दीवार चीरकर अपना स्वर अजमाने,
    या लेने आई इन आँखों का पानी?
    नभ के ये दीप बुझाने की है ठानी!
    खा अन्धकार करते वे जग रखवाली
    क्या उनकी शोभा तुझे न भाई आली?

    तुम रवि-किरणों से खेल,
    जगत् को रोज जगाने वाली,
    कोकिल बोलो तो!
    क्यों अर्द्ध रात्रि में विश्व
    जगाने आई हो? मतवाली
    कोकिल बोलो तो !

    दूबों के आँसू धोती रवि-किरनों पर,
    मोती बिखराती विन्ध्या के झरनों पर,
    ऊँचे उठने के व्रतधारी इस वन पर,
    ब्रह्माण्ड कँपाती उस उद्दण्ड पवन पर,
    तेरे मीठे गीतों का पूरा लेखा
    मैंने प्रकाश में लिखा सजीला देखा।

    तब सर्वनाश करती क्यों हो,
    तुम, जाने या बेजाने?
    कोकिल बोलो तो!
    क्यों तमपत्र पर विवश हुई
    लिखने चमकीली तानें?
    कोकिल बोलो तो!

    क्या?-देख न सकती जंजीरों का गहना?
    हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश-राज का गहना,
    कोल्हू का चर्रक चूँ? -जीवन की तान,
    मिट्टी पर अँगुलियों ने लिक्खे गान?
    हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ,
    खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूआ।
    दिन में कस्र्णा क्यों जगे, स्र्लानेवाली,
    इसलिए रात में गजब ढा रही आली?

    इस शान्त समय में,
    अन्धकार को बेध, रो रही क्यों हो?
    कोकिल बोलो तो!
    चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज
    इस भाँति बो रही क्यों हो?
    कोकिल बोलो तो!

    काली तू, रजनी भी काली,
    शासन की करनी भी काली
    काली लहर कल्पना काली,
    मेरी काल कोठरी काली,
    टोपी काली कमली काली,
    मेरी लौह-श्रृंखला काली,
    पहरे की हुंकृति की व्याली,
    तिस पर है गाली, ऐ आली!

    इस काले संकट-सागर पर
    मरने को, मदमाती!
    कोकिल बोलो तो!
    अपने चमकीले गीतों को
    क्योंकर हो तैराती!
    कोकिल बोलो तो!

    तेरे `माँगे हुए’ न बैना,
    री, तू नहीं बन्दिनी मैना,
    न तू स्वर्ण-पिंजड़े की पाली,
    तुझे न दाख खिलाये आली!
    तोता नहीं; नहीं तू तूती,
    तू स्वतन्त्र, बलि की गति कूती
    तब तू रण का ही प्रसाद है,
    तेरा स्वर बस शंखनाद है।

    दीवारों के उस पार!
    या कि इस पार दे रही गूँजें?
    हृदय टटोलो तो!
    त्याग शुक्लता,
    तुझ काली को, आर्य-भारती पूजे,
    कोकिल बोलो तो!

    तुझे मिली हरियाली डाली,
    मुझे नसीब कोठरी काली!
    तेरा नभ भर में संचार
    मेरा दस फुट का संसार!
    तेरे गीत कहावें वाह,
    रोना भी है मुझे गुनाह!
    देख विषमता तेरी मेरी,
    बजा रही तिस पर रण-भेरी!

    इस हुंकृति पर,
    अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ?
    कोकिल बोलो तो!
    मोहन के व्रत पर,
    प्राणों का आसव किसमें भर दूँ!
    कोकिल बोलो तो!

    फिर कुहू!—अरे क्या बन्द न होगा गाना?
    इस अंधकार में मधुराई दफनाना?
    नभ सीख चुका है कमजोरों को खाना,
    क्यों बना रही अपने को उसका दाना?
    फिर भी कस्र्णा-गाहक बन्दी सोते हैं,
    स्वप्नों में स्मृतियों की श्वासें धोते हैं!
    इन लौह-सीखचों की कठोर पाशों में
    क्या भर देगी? बोलो निद्रित लाशों में?

    क्या? घुस जायेगा स्र्दन
    तुम्हारा नि:श्वासों के द्वारा,
    कोकिल बोलो तो!
    और सवेरे हो जायेगा
    उलट-पुलट जग सारा,
    कोकिल बोलो तो!

    पुष्प की अभिलाषा / माखनलाल चतुर्वेदी


    चाह नहीं, मैं सुरबाला के
    गहनों में गूँथा जाऊँ,


    चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
    प्यारी को ललचाऊँ,


    चाह नहीं सम्राटों के शव पर
    हे हरि डाला जाऊँ,


    चाह नहीं देवों के सिर पर
    चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,


    मुझे तोड़ लेना बनमाली,
    उस पथ पर देना तुम फेंक!


    मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
    जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

    झूला झूलै री / माखनलाल चतुर्वेदी

    संपूरन कै संग अपूरन झूला झूलै री,
    दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री।
    गड़े हिंडोले, वे अनबोले मन में वृन्दावन में,
    निकल पड़ेंगे डोले सखि अब भू में और गगन में,
    ऋतु में और ऋचा में कसके रिमझिम-रिमझिम बरसन,
    झांकी ऐसी सजी झूलना भी जी भूलै री,
    संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
    रूठन में पुतली पर जी की जूठन डोलै री,
    अनमोली साधों में मुरली मोहन बोलै री,
    करतालन में बँध्यो न रसिया, वह तालन में दीख्यो,
    भागूँ कहाँ कलेजौ कालिंदी मैं हूलै री।
    संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।
    नभ के नखत उतर बूँदों में बागों फूल उठे री,
    हरी-हरी डालन राधा माधव से झूल उठे री,
    आज प्रणव ने प्रणय भीख से कहा कि नैन उठा तो,
    साजन दीख न जाय संभालो जरा दुकूलै री,
    दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री,
    संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।

    अमर राष्ट्र / माखनलाल चतुर्वेदी

    छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,
    यह लुटिया-डोरी ले अपनी,
    फिर वह पापड़ नहीं बेलने;
    फिर वह माल पडे न जपनी।

    यह जागृति तेरी तू ले-ले,
    मुझको मेरा दे-दे सपना,
    तेरे शीतल सिंहासन से
    सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

    सूली का पथ ही सीखा हूँ,
    सुविधा सदा बचाता आया,
    मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ,
    जीवन-ज्वाल जलाता आया।

    एक फूँक, मेरा अभिमत है,
    फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,
    मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी,
    फेंक चुका कब का गंगाजल।

    इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,
    इस उतार से जा न सकोगे,
    तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो,
    जीवन-पथ अपना न सकोगे।

    श्वेत केश?- भाई होने को-
    हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी,
    आया था इस घर एकाकी,
    जाने दो मुझको एकाकी।

    अपना कृपा-दान एकत्रित
    कर लो, उससे जी बहला लें,
    युग की होली माँग रही है,
    लाओ उसमें आग लगा दें।

    मत बोलो वे रस की बातें,
    रस उसका जिसकी तस्र्णाई,
    रस उसका जिसने सिर सौंपा,
    आगी लगा भभूत रमायी।

    जिस रस में कीड़े पड़ते हों,
    उस रस पर विष हँस-हँस डालो;
    आओ गले लगो, ऐ साजन!
    रेतो तीर, कमान सँभालो।

    हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर,
    तुमने पत्थर का प्रभू खोजा!
    लगे माँगने जाकर रक्षा
    और स्वर्ण-रूपे का बोझा?

    मैं यह चला पत्थरों पर चढ़,
    मेरा दिलबर वहीं मिलेगा,
    फूँक जला दें सोना-चाँदी,
    तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा।

    चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस,
    सागर गरजे मस्ताना-सा,
    प्रलय राग अपना भी उसमें,
    गूँथ चलें ताना-बाना-सा,

    बहुत हुई यह आँख-मिचौनी,
    तुम्हें मुबारक यह वैतरनी,
    मैं साँसों के डाँड उठाकर,
    पार चला, लेकर युग-तरनी।

    मेरी आँखे, मातृ-भूमि से
    नक्षत्रों तक, खीचें रेखा,
    मेरी पलक-पलक पर गिरता
    जग के उथल-पुथल का लेखा !

    मैं पहला पत्थर मन्दिर का,
    अनजाना पथ जान रहा हूँ,
    गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर
    मन्दिर अनुमान रहा हूँ।

    मरण और सपनों में
    होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी,
    किसकी यह मरजी-नामरजी,
    किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी?

    अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र !
    यह मेरी बोली
    यह `सुधार’ `समझौतों’ बाली
    मुझको भाती नहीं ठठोली।

    मैं न सहूँगा-मुकुट और
    सिंहासन ने वह मूछ मरोरी,
    जाने दे, सिर, लेकर मुझको
    ले सँभाल यह लोटा-डोरी !

    मुझे रोने दो / माखनलाल चतुर्वेदी

    भाई, छेड़ो नहीं, मुझे
    खुलकर रोने दो।
    यह पत्थर का हृदय
    आँसुओं से धोने दो।
    रहो प्रेम से तुम्हीं
    मौज से मजुं महल में,
    मुझे दुखों की इसी
    झोपड़ी में सोने दो।

    कुछ भी मेरा हृदय
    न तुमसे कह पावेगा
    किन्तु फटेगा, फटे
    बिना क्या रह पावेगा,
    सिसक-सिसक सानंद
    आज होगी श्री-पूजा,
    बहे कुटिल यह सौख्य,
    दु:ख क्यों बह पावेगा?

    वारूँ सौ-सौ श्वास
    एक प्यारी उसांस पर,
    हारूँ अपने प्राण, दैव,
    तेरे विलास पर
    चलो, सखे, तुम चलो,
    तुम्हारा कार्य चलाओ,
    लगे दुखों की झड़ी
    आज अपने निराश पर!

    हरि खोया है? नहीं,
    हृदय का धन खोया है,
    और, न जाने वहीं
    दुरात्मा मन खोया है।
    किन्तु आज तक नहीं,
    हाय, इस तन को खोया,
    अरे बचा क्या शेष,
    पूर्ण जीवन खोया है!

    पूजा के ये पुष्प
    गिरे जाते हैं नीचे,
    वह आँसू का स्रोत
    आज किसके पद सींचे,
    दिखलाती, क्षणमात्र
    न आती, प्यारी किस भांति
    उसे भूतल पर खीचें।

    जो न बन पाई तुम्हारे / माखनलाल चतुर्वेदी

    जो न बन पाई तुम्हारे
    गीत की कोमल कड़ी।

    तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है?
    तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है?
    तो प्रणय में प्रार्थना का मोह क्यों है?
    तो प्रलय में पतन से विद्रोह क्यों है?
    आये, या जाये कहीं—
    असहाय दर्शन की घड़ी;
    जो न बन पाई तुम्हारे
    गीत की कोमल कड़ी।

    सूझ ने ब्रम्हांड में फेरी लगाई,
    और यादों ने सजग धेरी लगाई,
    अर्चना कर सोलहों साधें सधीं हाँ,
    सोलहों श्रृंगार ने सौहें बदीं हाँ,
    मगन होकर, गगन पर,
    बिखरी व्यथा बन फुलझड़ी;
    जब न बन पाई तुम्हारे
    गीत की कोमल लड़ी।

    याद ही करता रहा यह लाल टीका,
    बन चला जंजाल यह इतिहास जी का,
    पुष्प पुतली पर प्रणयिनी चुन न पाई,
    साँस और उसाँस के पट बुन न पाई,

    तुम मन्द चलो / माखनलाल चतुर्वेदी

    तुम मन्द चलो,
    ध्वनि के खतरे बिखरे मग में-
    तुम मन्द चलो।

    सूझों का पहिन कलेवर-सा,
    विकलाई का कल जेवर-सा,
    घुल-घुल आँखों के पानी में-
    फिर छलक-छलक बन छन्द चलो।
    पर मन्द चलो।

    प्रहरी पलकें? चुप, सोने दो!
    धड़कन रोती है? रोने दो!
    पुतली के अँधियारे जग में-
    साजन के मग स्वच्छन्द चलो।
    पर मन्द चलो।

    ये फूल, कि ये काँटे आली,
    आये तेरे बाँटे आली!
    आलिंगन में ये सूली हैं-
    इनमें मत कर फर-फन्द चलो।
    तुम मन्द चलो।

    ओठों से ओठों की रूठन,
    बिखरे प्रसाद, छुटे जूठन,
    यह दण्ड-दान यह रक्त-स्नान,
    करती चुपचाप पसंद चलो।
    पर मन्द चलो।

    ऊषा, यह तारों की समाधि,
    यह बिछुड़न की जगमगी व्याधि,
    तुम भी चाहों को दफनाती,
    छवि ढोती, मत्त गयन्द चलो।
    पर मन्द चलो।

    सारा हरियाला, दूबों का,
    ओसों के आँसू ढाल उठा,
    लो साथी पाये-भागो ना,
    बन कर सखि, मत्त मरंद चलो।
    तुम मन्द चलो।

    ये कड़ियाँ हैं, ये घड़ियाँ हैं
    पल हैं, प्रहार की लड़ियाँ हैं
    नीरव निश्वासों पर लिखती-
    अपने सिसकन, निस्पन्द चलो।
    तुम मन्द चलो।

    सूझ का साथी / माखनलाल चतुर्वेदी

    सूझ, का साथी-
    मोम-दीप मेरा!

    कितना बेबस है यह
    जीवन का रस है यह
    छनछन, पलपल, बलबल
    छू रहा सवेरा,
    अपना अस्तित्व भूल
    सूरज को टेरा-
    मोम-दीप मेरा!

    कितना बेबस दीखा
    इसने मिटना सीखा
    रक्त-रक्त, बिन्दु-बिन्दु
    झर रहा प्रकाश सिन्धु
    कोटि-कोटि बना व्याप्त
    छोटा सा घेरा!
    मोम-दीप मेरा!

    जी से लग, जेब बैठ
    तम-बल पर जमा पैठ
    जब चाहूँ जाग उठे
    जब चाहूँ सो जावे,
    पीड़ा में साथ रहे
    लीला में खो जावे!
    मोम-दीप मेरा!

    नभ की तम गोद भरें-
    नखत कोटि; पर न झरें
    पढ़ न सका, उनके बल
    जीवन के अक्षर ये,
    आ न सके उतर-उतर
    भूल न मेरे घर ये!
    इन पर गर्वित न हुआ
    प्रणय गर्व मेरा
    मेरे बस साथ मधुर-
    मोम-दीप मेरा!

    जब चाहूँ मिल जावे
    जब चाहूँ मिट जावे
    तम से जब तुमुल युद्ध-
    ठने, दौड़ जुट जावे
    सूझों के रथ-पथ का
    ज्वलित लघु चितेरा!
    मोम-दीप मेरा!

    यह गरीब, यह लघु-लघु
    प्राणों पर यह उदार
    बिन्दु-बिन्दु
    आग-आग
    प्राण-प्राण
    यज्ञ ज्वार
    पीढ़ियाँ प्रकाश-पथिक
    जग-रथ-गति चेरा!
    मोम-दीप मेरा!

    आ मेरी आंखों की पुतली / माखनलाल चतुर्वेदी

    आ मेरी आंखों की पुतली,
    आ मेरे जी की धड़कन,
    आ मेरे वृन्दावन के धन,
    आ ब्रज-जीवन मन मोहन!

    आ मेरे धन, धन के बंधन,
    आ मेरे तन, जन की आह!
    आ मेरे तन, तन के पोषण,
    आ मेरे मन-मन की चाह!

    केकी को केका, कोकिल को-
    कूज गूँज अलि को सिखला!
    वनमाली, हँस दे हरियाली
    वह मतवाली छवि दिखला!

  • विश्व करुणा दिवस पर विशेष शायरी

    समाज का श्रृंगार- राकेश सक्सेना

    विश्व करुणा दिवस पर विशेष
    राकेश सक्सेना, बून्दी, राजस्थान

    मत रो मां दुःखी ना हो,
    मैं तैरा अपना ही खून हूं।
    तेरे जिगर का टुकड़ा हूं,
    नहीं किसी का “कसूर” हूं।

    रो रो कर “अपराधी” सा,
    मत अपने को मान तू।
    कन्या जन्म दिया तूने,
    ईश्वर की कृपा जान तू।

    बहुत जागरूकता हो गई,
    थोड़ी अभी बाकी है।
    ममतामई मां का प्यार,
    परी अपने पापा की है।

    अहंकारी पुरुष समाज,
    बिन नारी जो अधूरा है।
    फिर क्यों नहीं मानता,
    बिन उसके वो जमूरा है।

    पत्नि तो सब को चाहिए,
    पर बेटी से कतराते हैं।
    बेटा होने पर खुशियां,
    बेटी पर मातम मनाते हैं।

    मां तेरे आंसू की कीमत,
    एक दिन जरूर चुकाऊंगी।
    समाज का श्रृंगार कन्या की,
    मां जब मैं भी बन जाऊंगी।।

    राकेश सक्सेना