मुकुटधर पांडेय की लोकप्रिय कवितायेँ

यहाँ पर मुकुटधर पांडेय की कुछ लोकप्रिय कवितायेँ प्रस्तुत की जा रही हैं जो भी आपको अच्छा लगे कमेट कर जरुर बताएँगे

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मेरा प्रकृति प्रेम / मुकुटधर पांडेय

हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर
होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर
सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं
उनके आगे तुच्छ परम ने मुझे सभी हैं ।

छोटे, छोटे झरने जो बहते सुखदाई
जिनकी अद्भुत शोभा सुखमय होती भाई
पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित
बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं लज्जित।

लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण
शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण
ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा
और वस्तुओं से न कभी होता सुख वैसा।

छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर
बड़े-बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर
भाँति-भाँति की लता वल्लरी हैं जो सारी
ये सब मुझको सदा हृदय से लगती न्यारी।

इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है
सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है
पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर
होता हूँ मैं सुखी बड़ा स्वच्छंद विचरकर।

नाले नदी समुद्र तथा बन बाग घनेरे
जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँदिशि घेरे
तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं
खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं ।

वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है
कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है
बौर अम्ब कदम्ब सरस सौरभ फैलाते
गुनगुन करते भ्रमर वृंद उन पर मंडराते ।

इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता
बारबार अवलोकन कर भी नहीं अघाता
देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर
यही विनय मैं करता तुझसे हे करुणाकर ।

वर्षा-बहार / मुकुटधर पांडेय

वर्षा-बहार सब के, मन को लुभा रही है
नभ में छटा अनूठी, घनघोर छा रही है ।

बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं
पानी बरस रहा है, झरने भी ये बहे हैं ।

चलती हवा है ठंडी, हिलती हैं डालियाँ सब
बागों में गीत सुंदर, गाती हैं मालिनें अब ।

तालों में जीव चलचर, अति हैं प्रसन्न होते
फिरते लखो पपीहे, हैं ग्रीष्म ताप खोते ।

करते हैं नृत्य वन में, देखो ये मोर सारे
मेंढक लुभा रहे हैं, गाकर सुगीत प्यारे ।

खिलते गुलाब कैसा, सौरभ उड़ रहा है
बाग़ों में ख़ूब सुख से आमोद छा रहा है ।

चलते हैं हंस कहीं पर, बाँधे कतार सुंदर
गाते हैं गीत कैसे, लेते किसान मनहर ।

इस भाँति है, अनोखी वर्षा-बहार भू पर
सारे जगत की शोभा, निर्भर है इसके ऊपर ।

गाँधी के प्रति / मुकुटधर पांडेय

तुम शुद्ध बुद्ध की परम्परा में आये
मानव थे ऐसे, देख कि देव लजाये
भारत के ही क्यों, अखिल लोक के भ्राता
तुम आये बन दलितों के भाग्य विधाता!

तुम समता का संदेश सुनाने आये
भूले-भटकों को मार्ग दिखाने आये
पशु-बल की बर्बरता की दुर्दम आंधी
पथ से न तुम्हें निज डिगा सकी हे गाँधी!

जीवन का किसने गीत अनूठा गाया
इस मर्त्यलोक में किसने अमृत बहाया
गूँजती आज भी किसकी प्रोज्वल वाणी
कविता-सी सुन्दर सरल और कल्याणी!

हे स्थितप्रज्ञ, हे व्रती, तपस्वी त्यागी
हे अनासक्त, हे भक्त, विरक्त विरागी
हे सत्य-अहिंसा-साधक, हे सन्यासी
हे राम-नाम आराधक दृढ़ विश्वासी!

हे धीर-वीर-गंभीर, महामानव हे
हे प्रियदर्शन, जीवन दर्शन, अभिनव है
घन अंधकार में बन प्रकाश तुम आये
कवि कौन, तुम्हारे जो समग्र गुण गाये?

तुलसीदास / मुकुटधर पांडेय

कहाँ उद्दाम काम अविराम, वासनाविद्ध रूप का राग
कहाँ उपरति का उर में उदय, निमिष में ऐसा तीव्र विराग
राम को अर्पित तन-मन-प्राण, राम का नाम जीवनाधार
कहाँ प्रिय पुर-परिजन-परिवेश? बन गया अखिल लोक परिवार
किया तुमने विचरण स्वच्छन्द, वन्य निर्झर सा हो गतिमान
किया मुखरित वन-गिरि, पुरग्राम, राम का गा-गाकर गुन गान
तुम्हारा काव्यामृत कर पान, हृदय की बुझी चिरन्तन प्यास
जी उठी मानवता म्रियमाण, हुआ मानव का चरम विकास।
दिव्य, उद्गार, सुदिव्य विचार, दिव्यतर रचना छन्द प्रबन्ध
शब्द झरते हैं जैसे फूल, टपकता पद-पद पर मकरन्द
बहाकर भाषा में सुपवित्र, भक्ति गंगा की निर्मल धार
कर दिया तुमने यह उन्मुक्त, लोक के लिए मुक्ति का द्वार।
बिना तप के न सत्व की सिद्धि, बिना तप के न आत्म-संघर्ष
काव्य में तुमने किया सयत्न, प्रतिष्ठित एक उच्च आदर्श
त्याग जीवन का इष्ट न भोग, धर्म का वांछनीय विस्तार
विजय का लक्ष्य नहीं साम्राज्य, लक्ष्य दानवता का संहार।
तुम्हारे यशोगान में लग्न, सतत नत मस्तक देश-विदेश
गूँजता मानस महिमासागर, मौक्तिकों का अप्रतिम निधान
उन्हें जो चुगता है कर यत्न, कृती वह राजहंस मतिमान।
विश्व वाङ्मय का है शृंगार, हिन्द हिन्दी का है अभिमान
राष्ट्र को है अनुपम अवदान, तुम्हारा ‘मानस’ ग्रन्थ महान
कलित कविता सहज विलास, राम का चारु चरित्र प्रकाश
तुम्हारी वाणी में विश्वास, धन्य हो, तुम हे तुलसीदास!

ग्राम्य जीवन / मुकुटधर पांडेय

छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं
रत्न जटित प्रासादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं
बट-पीपल की शीतल छाया फैली कैसी है चहुँ ओर
द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर ।

शान्ति पूर्ण लघु ग्राम बड़ा ही सुखमय होता है भाई
देखो नगरों से भी बढ़कर इनकी शोभा अधिकाई
कपट द्वेष छलहीन यहाँ के रहने वाले चतुर किसान
दिवस बिताते हैं प्रफुलित चित, करते अतिथि द्विजों का मान ।

आस-पास में है फुलवारी कहीं-कहीं पर बाग अनूप
केले नारंगी के तरुगण दिखालते हैं सुन्दर रूप
नूतन मीठे फल बागों से नित खाने को मिलते हैं ।
देने को फुलेस–सा सौरभ पुष्प यहाँ नित खिलते हैं।

पास जलाशय के खेतों में ईख खड़ी लहराती है
हरी भरी यह फसल धान की कृषकों के मन भाती है
खेतों में आते ये देखो हिरणों के बच्चे चुप-चाप
यहाँ नहीं हैं छली शिकारी धरते सुख से पदचाप

कभी-कभी कृषकों के बालक उन्हें पकड़ने जाते हैं
दौड़-दौड़ के थक जाते वे कहाँ पकड़ में आते हैं ।
बहता एक सुनिर्मल झरना कल-कल शब्द सुनाता है
मानों कृषकों को उन्नति के लिए मार्ग बतलाता है

गोधन चरते कैसे सुन्दर गल घंटी बजती सुख मूल
चरवाहे फिरते हैं सुख से देखो ये तटनी के फूल
ग्राम्य जनों को लभ्य सदा है सब प्रकार सुख शांति अपार
झंझट हीन बिताते जीवन करते दान धर्म सुखसार.

किसान / मुकुटधर पांडेय

धन्य तुम ग्रामीण किसान
सरलता-प्रिय औदार्य-निधान
छोड़ जन संकुल नगर-निवास
किया क्यों विजन ग्राम में गेह
नहीं प्रासादों की कुछ चाह
कुटीरों से क्यों इतना नेह
विलासों की मंजुल मुसकान
मोहती क्यों न तुम्हारे प्राण!
तीर सम चलती चपल समीर
अग्रहायण की आधी रात
खोलकर यह अपना खलिहान
खड़े हो क्यों तुम कम्पित गात
उच्च स्वर से गा गाकर गान
किसे तुम करते हो आह्वान
सहन कर कष्ट अनेक प्रकार
किया करते हो काल-क्षेप
धूल से भरे कभी हैं केश
कभी अंगों में पंक प्रलेप
प्राप्त करने को क्या वरदान
तपस्या का यह कठिन विधान
स्वीय श्रम-सुधा-सलिल से सींच
खेत में उपजाते जो नाज
युगल कर से उसको हे बंधु
लुटा देते हो तुम निर्व्याज
विश्व का करते हो कल्याण
त्याग का रख आदर्श महान
लिए फल-फूलों का उपहार
खड़ा यह जो छोटा सा बाग
न केवल वह दु्रमवेलि समूह
तुम्हारा मूर्तिमन्त अनुराग
हृदय का यह आदान-प्रदान
कहाँ सीखा तुमने मतिमान

देखते कभी-शस्य-शृंगार
कभी सुनते खग-कुल-कलगीर
कुसुम कोई कुम्हलाया देख
बहा देते नयनों से नीर
प्रकृति की अहो कृती सन्तान
तुम्हारा है न कहीं उपमान!

राज महलों का वह ऐश्वर्य
राजमुकुटों का रत्न प्रकाश
इन्हीं खेतों की अल्प विभूति
इन्हीं के हल का मृदु हास
स्वयं सह तिरस्करण अपमान
अन्य को करते गौरवदान

विश्व वैभव के स्रोत महान
तुम्हारा है न कहीं उपमान!

खोमचा वाला / मुकुटधर पांडेय

खड़ी आज खोई-खोई सी
कैसे ठेला गाड़ी?
मौन प्रतीक्षा में है तू किसकी
आँखे किए अगाड़ी?
असमयमें हैकहाँ घूमने
गया खोमचा वाला
अब तक ढोने तुझे न आया
लिए बालटी प्याला
दही बड़े आलू की टिकिया
फूल की थाल सजाता
चने चटपटे चाट चकाचक
की आवाज लगाता
बन्द कोठरी लगा हुआ है
दरवाजे पर ताला
सौदा सुल्फा कर लौटा क्या
नहीं खोमचावाला?
देख रही तू राह किसी की
देती शकल गवाही
काश! लौट, मिल पाता तुझसे
वह चिर-पथ का राही!

ग्रीष्म / मुकुटधर पांडेय

बीते दिवस बसन्त के, लगा ज्येष्ठ का मास
विश्व व्यथित करने लगा, रवि किरणों का त्रास

अवनी आतप से लगी, जलने सब ही हाल
जीव, जन्तु चर-अचर सब, हुए अमिल बेहाल

रवि मयूख के ताप से, झुलस गये बन बाग
सूखे सरिता सर तथा, नाले कूप तड़ाग

लगी आग पुर ग्राम में, चिन्ता बढ़ी अपार
नर नारी व्याकुल बसे, भय सदैव उर धार

धनी लोग मार्तण्ड का, देख प्रचण्ड प्रकाश
शान्ति प्राप्ति के हेतु अब, चले हिमालय पास

नृप, रईस, धन पति सभी, दोपहरी के बेर
सोते निज निज भवन में, खस की टट्टी घेर

पर गरीब, निर्धन सकल, सहते रवि का ताप
कोस रहे हैं कर्म को, करते पश्चाताप

तरबूजों, ककड़ी तथा, बर्फ और बादाम
पके आम-फल आदि के, अब बढ़ते हैं दाम

फिर जब आवेगा अही, सुखमय वर्षा-काल
हो जावेगा जगत का, पुनः अन्य ही हाल

बाल परिचायक / मुकुटधर पांडेय

लॉज के है परिचायक बाल
काश होते लक्ष्मी केलाल
बीत पाया न अभी कैशोर
टूट पाए न दूध के दाँत
उनींदी आँखों में है तात्
काट दी तुमने सारी रात।

हाथ में ले उशीर का व्यजन,
छतों पर सोते हैं श्रीमान्
मुक्त नभ के नीचे भी क्यों न
छटपटाते हैं उनके प्राण
कुन्द घर के अन्दर बेहाल,
भूमि पर पड़े चीथड़ा डाल।

मिला है तुमको कितना रूप
काश, तुम पाते उसे सम्हार
असित अलकों का जाल निहार
अलि-अवलि हो जाती बलिहार

मुख-कमल हुआ तुम्हारा म्लान
ग्रीष्म में उस पर पड़ा तुषार
लॉज की रखते हो तुम लाज
लाज भी लजा रही है आज।

कुररी के प्रति / मुकुटधर पांडेय

बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बात
पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात
निद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वच्छंद
अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते हैं सानन्द
इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिन्तित गात
पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात ?

देख किसी माया प्रान्तर का चित्रित चारु दुकूल ?
क्या तेरा मन मोहजाल में गया कहीं था भूल ?
क्या उसका सौन्दर्य-सुरा से उठा हृदय तव ऊब ?
या आशा की मरीचिका से छला गया तू खूब ?
या होकर दिग्भ्रान्त लिया था तूने पथ प्रतिकूल ?
किसी प्रलोभन में पड़ अथवा गया कहीं था भूल ?

अन्तरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत बिलाप ?
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या है किसका परिताप ?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियोग की आग ?
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाप ?
बता कौन सी व्यथा तुझे है, है किसका परिताप ?

यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद ?
या तुझको निज-जन्मभूमि की सता रही है याद ?
विमल व्योम में टँगे मनोहर मणियों के ये दीप
इन्द्रजाल तू उन्हें समझ कर जाता है न समीप
यह कैसा भय-मय विभ्रम है कैसा यह उन्माद ?
नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेह की याद ?

कितनी दूर कहाँ किस दिशि में तेरा नित्य निवास
विहग विदेशी आने का क्यों किया यहाँ आयास
वहाँ कौन नक्षत्र–वृन्द करता आलोक प्रदान ?
गाती है तटिनी उस भू की बता कौन सा गान ?
कैसा स्निग्ध समीरण चलता कैसी वहाँ सुवास
किया यहाँ आने का तूने कैसे यह आयास ?

(शरद,बसन्त) श्रीशारदा साहित्य सदन ,रायगढ़ ,संपादक डाँ. बलदेव 1984″ विश्वबोध कविता संग्रह” से साभार

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