Author: कविता बहार

  • वाणी और भाषा का प्रयोग – प्रिया शर्मा

    वाणी और भाषा का प्रयोग

    वाणी ऐसी बोलिये मन का आपा खोय ,

    औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।

    भाषा ऐसी राखिये जो प्रेम भाव से सोएं ,

    औरन को सुख दे के प्रीत घनेरी होय ।।

    भाषा को तोडें नहीं, न मोडें ओर से छोर,

    भाषा सरल बनाइये, चर्चा हो चहुँ ओर।

    सबका मन चुराई ले, वाणी है ही ऐसी चोर,

    वाणी नाही संभाली तो हो जाए द्वन्द घनघोर।।

    भाषा का प्रयोग करले सोच समझकर यार,

    सभ्य वाणी के प्रयोग से मिल जाये सबका प्यार।

    अभद्र भाषा बोल के, मच जाए जग में शोर ,

    वाणी के सुखद प्रयोग से नाचे मन का मोर ।।

    भाषा बहुत या दुनिया में कछु नैनन की कछु मन की,

    वाणी के दो ही भाव हैं कभी उपवन सी कभी बाणन सी।

    नैनन की भाषा तो होवे , पुलकित मन के भाव सी,

    बाणन सी वाणी करे, उर में गहरे घाव जी ।।

    भाषा को वाणी संग तोल मोलकर बोल,

    सब भूलें वर्षों की प्रीत को, जो बोले कटुता के बोल।

    भाषा और वाणी को मीठे रस में घोल ,

    पहुँचे सबके हृदय तक, बोलो वचन अनमोल।।

    मातृभाषा का हम गान करें,

    वाणी का कुछ ध्यान धरें ।

    उचित शब्दों का प्रयोग कर,

    जग में हिंदी का सम्मान करें ।।
    – प्रिया शर्मा

  • आओ मिल प्रण करें हम- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    आओ मिल प्रण करें हम- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    आओ मिल प्रण करें हम
    नवजीवन मस्तक धरें हम

    करें पुष्पित संस्कृति
    करें मुखरित संस्कार
    आओ मिल प्रण करें हम

    कर्म से हम धनी हों
    भाग्य निर्माण करें हम
    आँधियों से न दरें हम
    नव आदर्श निर्मित करें हम

    आओ मिल प्रण करें हम
    कलह से हों परे हम
    कर्मशील धर्मशील बनाएँ हम
    स्वतन्त्र मौलिक विचार धरें हम

    सदाचारी सत्संग वरें हम
    आओ मिल प्रण करें हम
    सर्वोत्तम कृति बनें हम

    पुण्यशील आत्मा कहैं सब
    सत्कीर्ति सत्यनिष्ठा मार्ग हो
    कार्यसाधक स्वाभिमानी बनें हम
    आओ मिल प्रण करें हम

    सूरजमुखी सा दमकैं हर पल
    सूर्य सा चमकें हर क्षण
    सुव्यवहार सुशील सुशिक्षित
    अनमोल जीवन बनें हम

    आओ मिल प्रण करें हम
    आओ मिल प्रण करें हम
    आओ मिल प्रण करें हम

  • अनैतिकता के पाताल के गर्त में- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    अनैतिकता के पाताल के गर्त में- कविता

    अनैतिकता के पाताल के गर्त में
    विचरते हम मानव प्राण
    जीवित तो इस एहसास में
    कि एक तन को ढोते
    जो निष्प्राण विचरण कर रहा
    इस धरा पर

    मूल्यों की सूझती नहीं
    राह हमको
    जीव – जंतुओं की
    श्रेणी में
    ला खड़ा किया जिसने

    अतिमहत्वाकांक्षा के मकड जाल में उलझे
    नैतिकता व मानव मूल्यों के
    महत्ता को समझने के
    एहसास का दंभ भरते

    दो गज ज़मीन भी
    न छूट जाए कहीं
    इस प्रण के साथ
    अतिसम्प्दायुक्त
    जीवन जीने का
    छल साथ लिए

    दौड़ते – भागते
    उस अंतहीन दिशा की ओर

    जो लक्ष्य के भटकाव का
    परिणाम लिए हमारे समक्ष
    दृष्टिगोचर हो जाती है

    संस्कृति, संस्कारों परम्पराओं
    से कोसों दूर
    विचरने का दुःख हमें सालता है

    फिर भी मुझे द्रुतगति से
    अग्रसर होना है
    उस सुख की ओर
    उस विलासतापूर्ण जीवन की ओर

    जो वर्तमान में
    असीम सुख का आभास देता है
    वर्तमान में जीता यह प्राणी
    भविष्य के गर्त में होने वाले
    सत्य से अनभिज्ञ सा

    मूल्यों की खोज से परे
    आने वाली पीढ़ी के लिए
    अरंडी के बीज बोता

    यह मानव
    इस आशा व उम्मीद से
    कि शायद
    इस बीज से
    वह आम या अनार का स्वाद
    प्राप्त कर सकेगा

    स्थितियां भयावह
    निर्मित कर दी गई हैं
    आधुनिकता के चहेतों को
    क्रोस ब्रीडिंग पर

    कुछ ज्यादा ही विश्वास
    आने वाली सभ्यता को
    नासूर की
    तरह चुभने वाली
    कुसंस्कृति
    कुसंस्कारोंसे सिंचित आधुनिक पीढ़ी
    सौंपने की तैयारी
    हो गई है

    कचरों के ढेर पर
    फिकता कुँवारी माओं का प्यार
    दूसरों की गोद का
    अपने स्वार्थ के लिए
    हो रहा इस्तेमाल

    बिक रहे चरित्र
    गली दुकानों पर
    चीरहरण पर आँखें
    मूँद लेना
    किसी गिरते को
    संभालने का माद्दा
    न होना

    राष्ट्रप्रेम के प्रति मन में
    लचीलापन
    ये सब काफी है
    मानव के अनैतिकता
    के पाताल के गर्त में
    विचरने के लिए

    कोई सुबह ऐसी बना दो
    कोई रात मोतियों सी जगमगा दो
    कोई अवतार इस धरा पर ला दो
    तारे आसमान के इस धरा पर खिला दो
    कोई तो राष्ट्रप्रेम की ज्योति जला दो
    कोई तो भाईचारा फैला दो

    कोई तो मानव मूल्यों के गीत गा दो
    कोई तो मानव को मानव बना दो
    कोई तो हमको राह दिखा दो
    कोई तो हमको राह दिखा दो
    कोई तो हमको राह दिखा दो

  • चल रहा हूँ उस पथ पर – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    चल रहा हूँ उस पथ पर – कविता

    चल रहा हूँ उस पथ पर
    कि मंजिल आसान हो जायेगी
    बढ़ा दिए हैं कदम इस उम्मीद से
    कि राह खुद ब खुद बन जायेगी

    मै डरता नहीं हूँ इस बात से
    कि रास्ते कठिनाइयों भरे होंगे
    मुझे मालूम है , पालकर
    सीने में जोश और लेकर
    उस उम्मीद का साथ

    जो
    मुझे प्रेरित करेगी
    छूने आसमान और
    उस लक्ष्य की ओर मुखरित होगा

    मेरे आदर्श और साथ ही
    मुझे स्वयं को बांधना होगा
    उन सीमाओं में जो
    मुझे गलत राह की ओर
    प्रस्थित न कर दे

    बचना होगा मुझे
    उन कुंठाओं से
    जो बाधा न बन सके
    व्यवधान न हो सके
    मुझे बाँध न सके

    मुझे उन्मुक्त बढ़ना होगा
    चीरना होगा
    सीमाओं को
    आँधियों को
    बंधनों को
    तूफानों को
    व्यवधानों को
    अन्धकार को
    कठिनाइयों को

    छूना होना
    मुझे
    मंजिल को
    अग्रसर रहना होगा

    तब तक
    जब तक
    मै चूम न लूं
    मंजिल के उस दर को

    जो मुझे
    सफल कर सके
    जीवन दे सके

    पूर्ण कर सके मेरा सपना
    कुछ इस तरह
    कि जीतकर मंजिल को
    पा लिया
    मैंने सब कुछ
    मेरी मंजिल है

    प्रकृति की अनुपम छटा
    चारों ओर विचरती
    अनुपम कृतियाँ
    हर पल पलता बढ़ता बचपन
    घरों में खिलती मुस्कराहटें

    संस्कृति व संस्कारों से सजा संसार
    चारों ओर की बहार
    चंचल बचपन
    बूढों के मन में पलता
    बच्चों के लिए प्यार

    पालने में खिलता जीवन
    फूलों की वादियों में
    भंवरों का चहचहाना
    विद्यालयों में संवरता जीवन

    ये सब मुझे भाते हैं
    ये सब मेरी मंजिल के हिस्से हैं

    आओ हम सब मिल
    इस मंजिल की ओर
    कदम बढ़ायें
    स्वयं को जगायें
    स्वयं को जगायें

  • पल पल गिरता – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    पल पल गिरता – कविता

    पल- पल गिरता
    पल- पल उठता
    कुछ -कुछ उजड़ा
    मंजिल मंजिल
    सबकी चाहत
    राग ये होता
    हर- पल पल- पल

    कहाँ ठिकाना
    होगा किस करवट
    उलझा उलझा
    कुछ तो सुलझे
    इसी चाह में
    सुबह से शाम
    हफ़्तों महीने
    यूं ही चलता सफर
    अंत नहीं है
    इस सफर का

    मन को समझाता
    चाहतों पर रोक लगाता
    फिर भी इसको
    आस न दिखती
    भारी पल -पल
    भारी क्षण -क्षण
    सांसें नम हैं
    गम ही गम हैं

    फिर भी आस
    दिखाता जीवन
    रुकता बढ़ता
    बढ़ता रुकता
    चलता जाता
    पल -पल
    क्षण- क्षण

    काश हो ऐसा
    खिलें सभी- तन
    खिलें सभी- मन
    चमकी- चमकी
    खिली सुबह हो
    मिल जाए
    सब को ये जीवन
    खिले चाँदनी
    राह पुष्प भरी हो जाए

    सूना- सूना
    कुछ भी न हो
    चंचल- चंचल
    मंद नदी -सा
    बहता- बहता
    सबका जीवन
    सबसे सब कुछ
    कहता जीवन
    कभी रुपहली
    रात न आये
    खिले चाँद सा

    जीवन जीवन
    कभी न रुकता
    आगे बढ़ता
    पुष्पित करता
    हर -तन हर -मन
    सभी रंग के
    धर्म सजे हों
    सभी रंग के
    कर्म सजे हों
    पल- पल
    पल्लवित होता जीवन
    कभी न रुकता
    कभी न गिरता

    बढ़ता जाए
    सबका जीवन
    अंत सभी का
    मनचाहा हो
    मोक्ष राह में
    बाधा न हो
    मन में
    कोई निराशा न हो
    अंत समय
    कोई आशा न हो

    मोक्ष मार्ग पर
    बढ़ता जीवन
    सबको सबका
    भाता जीवन
    देवतुल्य हो जाए जीवन

    जीवन तुम
    जीवन हो जाओ
    आदर्श धरा पर
    तुम छा जाओ
    जीवन तुम जीवन की आशा
    पूर्ण करो सबकी अभिलाषा