माँ गंगा पर कविता
कलयुग के अत्याचारों को देख, माँ गंगा पुकारे….
वर्षों के पावन तप से , मैं इस धरती पर आयी।
पर आज मनुज ने देखो, मेरी कैसी गति बनायी।
निर्मल थी मैं मैली हो गयी, तुम सबके कुकृत्यों से।
कूड़े- कचरे और गंदे जल के, मोटे- मोटे नालो से।
याद करो त्रेतायुग के, उन महा-प्रतापी राजाओं को।
सगर, अंशुमान, और वीर दिलीप के आहुतियों को।
याद करो भगीरथ के ओ, कठिन तपस्या के रातों को।
त्राहि- त्रहि मचती धरती में, जन-मन के चीत्कारों को।
सहम गयी हूँ मैं देखो, अब सबका मैला ढोते ढोते।
समय अभी है उठो नींद से,वरना रह जाओगे सोते।
राह मोड़ दो गंदे नालों का,कूड़ा-कचरा सब साफ करो।
मैं जीवन दायनी गंगे हूँ ,कभी न तुम अपमान करो।
हरी-भरी धरती होगी, खुशियों से भर जाएगा जग सारा।
तब तुम दीप जला पूजा करना,और मनाना गंगा दशहरा।
रविबाला ठाकुर”सुधा”
स./लोहारा, कबीरधाम