वक्त ने सितम क्या ढाया है
यह कैसी बेवसी है ,कैसा वक्त,
अपनी हद में रह कर भी सजा पाई
चाहा ही क्या था फ़कत दो गज जमीन ,
वो भी न मिली और महाभारत हो गयी।
चाहा ही क्या था बस अपना हक जीने को
राजनीति में द्रोपदी गुनाहगार हो गयी।
त्याग,सेवा ,फर्ज दायित्व ही तो निभाये
देखो तो फिर भी सीता बदनाम हो गयी।
छल बल से नारी हरण ,राजहरण हुआ
छली सब घर रहे ,सचाई दरदर भटक गयी।
राधा ने किया समर्पण सर्वस्व अपना
पटरानी पर वहाँ रुक्मणि बन गयी।
अंजना की बाइस बरस की आस अधूरी
दो पल पिया संग ,देश से निकल गयी।
द्वापर ,त्रेता हो या कलयुग ,वक्त न बदला ।
हर युग में सच की अर्थी निकाली गयी।
माँ भारती ने झेला ,कोलंबस क्या आया
दंशाहरण का ,वर्षों जंजीरों मे जकडी गयी ।
दैहिक गुलामी से छूटी भी न थी हाए,
मानसिक गुलामी में बंधी रह गयी।
हर वक्त सच को पर ही उंगली उठी,
देखो आज पुलवामा फिर रोया है ।
किया बचाव स्वयं का जब भूमि ने ,
जयचंद हर घर में घुस के आया है।
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मनोरमा जैन पाखी
स्वरचित ,मौलिक
28/02/2019
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद