Author: कविता बहार

  • फागुन आ गया

         फागुन आ गया

    हर्षोल्लास था गुमशुदा
    दौर तलाश का  आ गया।
    गुम हुई खुशियों को लेकर
    फिर से  फागुन आ गया॥
    झुर्रियां  देखी जब चेहरे पर 
    लगा बुढ़ापा आ गया।
    उम्र की सीमा को तोड़कर
    उत्साही फागुन आ गया॥
    अहंकार का घना कोहरा
    एकाकीपन  छा गया।
    अंधेरों को चीरकर लो
    उजला  फागुन आ गया॥
    पहरा गहरा था गम  का
    अवसाद  मन में छा गया।
    टूटे दिलों के तार जोड़ने
    फिर से फागुन आ गया॥
    चारों तरफ टेसू पलाश हैं 
    लो उल्हास फिर  छा गया।
    फुहार प्रेम की संग लेकर ये
    फिर से  फागुन  आ गया।
    मधु सिंघी
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • बासंती फागुन

    ⁠⁠⁠ बासंती फागुन

    ओ बसंत की चपल हवाओं,
    फागुन का सत्कार करो।
    शिथिल पड़े मानव मन में
    फुर्ती का  संचार करो।1
    बीत गयी है आज शरद ऋतु,
    फिर से गर्मी आयेगी.
    ऋतु परिवर्तन की यह आहट,
    सब के मन को भायेगी।2
    कमल-कमलिनी ताल-सरोवर,
    रंग अनूठे दिखलाते।
    गेंदा-गुलाब टेसू सब मिलकर
    इन्द्रधनुष से बन जाते।3
    लदकर मंजरियों से उपवन,
    छटा बिखेरें हैं अनुपम।
    पुष्पों से सम्मोहित भँवरें,
    छेड़ें वीणा सी सरगम।4
    अमराइयों की भीनी सुगंध सँग
    कोकिल भी करती वंदन ।
    उल्लासित मतवाले होकर
    झूम उठे सबके तन मन।5
    बजते ढोलक झांझ-मंजीरे
    रचतें हैं इक नव मंजर।
    फागुन की सुषमा में डूबे
    जलचर ,नभचर और थलचर।6
    पीली सरसों है यौवन पर,
    मंडप सी सज रही धरा ।
    लहराती भरपूर फसल का,
    सब नैनों में स्वप्न भरा।।
    पाल लालसा सुख-समृद्धि की,
    कृषक प्रतीक्षित हैं चँहुं ओर।
    योगदान दें राष्ट्र प्रगति में,
    सभी लगा कर पूरा जोर।8
    प्रवीण त्रिपाठी, 13 मार्च 2019
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  • हसरतों को गले से लगाते रहे

    हसरतों को गले से लगाते रहे

    हसरतों को गले से लगाते रहे,
    थोड़ा थोड़ा सही पास आते रहे..
    आप की बेबसी का पता है हमें,
    चुप रहे पर बहुत ज़ख़्म खाते रहे..
    इस ज़माने का दस्तूर सदियों से है,
    बेवजह लोग ऊँगली उठाते रहे..
    मेरी दीवानगी मेरी पहचान थी,
    आग अपने ही इसमें लगाते रहे..
    इश्क़ करना भी अब तो गुनह हो गया,
    हम गुनहगार बन सर झुकाते रहे..
    तुमको जब से बनाया है अपना सनम,
    बैरी दुनिया से खुद को छुपाते रहे..
    इश्क़ की अश्क़ सदियों से पहचान है,
    तेरी आँखों के आँसू चुराते रहे..
    तुमको यूँ ही नहीं जान कहते हैं हम,
    जान ओ दिल सिर्फ़ तुमपे लुटाते रहे..
    ख़्वाब मेरे अधूरे रहे थे मगर,
    हम तो आशा का दीपक जलाते रहे..
    है ख़ुदा की इनायत, है फ़ज़लो करम,
    अब क़दम दर क़दम वो मिलाते रहे..
    हम भी चाहत में उनके दिवाने हुए,
    वो भी ‘चाहत’ में हमको लुभाते रहे..


    नेहा चाचरा बहल ‘चाहत’
    झाँसी
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  • कैसे जुगनू पकड़ूं?

    कैसे जुगनू पकड़ूं?

    पाँव महावर ,हाथों में मेहँदी
    कलाई में कँगना दिये सँवार ।
    माथे बिंदिया माँग में सिंदूर
    मंगलसूत्र गले दिया सँवार ।
    जननी पर भूल गयी बताना
    घर गृहस्थी कैसे सँभालू
    बाली उमरिया लिखने पढ़ने
    खेलने की ,कैसे बिसरा दूँ ।
    मेहँदी रचे हाथों में कलछी
    कलम कैसे पकडूँगी अब ।
    पाँव सजे बिछिया महावर
    जूते मौजे कैसे पहनूँगी अब ।
    बेड़ी डाली कैसी तुमने मैया
    पंख मेरे ही कुतर डाले ।
    अपराध किया क्या तात भैया
    बचपन के खिलोने तोड़ डाले।
    अदृश्य बेड़ियाँ पड़ी हाथ पाँव
    कैसे अरमान की उड़ान भरूँ ।
    आसमान दूर हो गया सपनों वाला
    तारों की छैयाँ कैसे जुगनू पकड़ूं?

    पाखी
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  • किस मंजिल की ओर ?

    किस मंजिल की ओर ?

    क्यारी सूख रही है निरंतर..
    आग जल रही हैं हर कहीं..घर हो या पास पडौ़स ..
    विश्वास की डोर नहीं है…टूट रही हैं नित ख्वाहिशें
    नहीं  रहा है भाईचारा…प्रेम…स्नेह छूट गया है..
    कहीं दूर…अंतरिक्ष सदृश्य..
    वैमनस्य पलने लगा है नजरों में..
    अंधकार छा रहा है… बादल धुलते नहीं है… अब
    मन की कालिख…
    दिल की काल कोठरी में
    ईर्ष्या घर कर रही हैं नित…दिल के कोने कोने में..
    महीनता से..सूक्ष्मता से…
    हर रग में…रक्त की बूंद बूंद में
    परिवार की क्यारी …प्यारी प्यारी सी क्यारी…
    न्यारी न्यारी सी…
    बुझ चुके हैं प्रसून सारे…
    अनगिनत… प्रसून
    सूखने लगी हैं…अब…महक नहीं रही बाकी
    अनवरत..
    अब तो
    रिश्ते नाते …बोझ बनने लगे हैं…
    रिश्तों का पानी…घड़े में नहीं है मौजूद…
    घड़े हैं कोरे..
    सपाट…
    दीवारें आज सूखी हैं…गीलापन नहीं है…
    शबनम की बूंदें आज रूखी रूखी सी…
    अपनत्व की दीवारों में…पलकें अब भीगती नहीं…
    कोई मरे या जीए
    तुम कहाँ ढूंढते हो…?
    स्नेह की ईंटें और गारा… ?
    अब तो लबादा मात्र रह गया है…
    चिपकता नहीं है मां की गोद की तरह..
    बहना की राखी में…पैसे ..की बदबू…दिखती है बस
    लेप…फीका हो गया है…
    स्वाद, बेस्वाद हो गया है…
    चूल्हे की रोटी… पकने लगी है….अलग अलग
    तंदूर देखे बरसों बीत चुके हैं…
    उस लालटेन में घासलेट नहीं है..
    स्नेह का घासलेट…
    प्यार की दियासलाई.. अरे.. कहाँ चली गई.. न जाने…?
    फूटती नहीं है अब लबों पर हंसी की फुहारें…
    हल्द चेहरे…मायूस दिल…
    अब…सींचते नहीं है… घर परिवार के सदस्य..
    मेंहदी के बूंटे..
    परिवार का पौधा…
    न जाने  क्यों…? झुलस गया है…
    तार तार… बस..
    खरपतवार बची है…
    अब फलता फूलता नहीं है…मुरझा रहा है.. निरंतर
    सर्दी, गर्मी, बारिश, वसंत…की परवाह किये बगैर
    निकल जाते हैं बस यूं ही… दिन…
    भागमभाग… आपाधापी… वैश्वीकरण का दौर जो आ गया है
    अम्बार लगता है… झगडों का…..
    हाथ उठने लगे है…
    औरतजात पर….
    गृहलक्ष्मी.. फफक फफक कर…रो रही है…
    पीड़ा… दर्द…
    हमदम नहीं आते नजर…
    जब झोपड़ी थी…तब बोलते थे सजीव बनकर…
    घर के मांडणे… वो
    स्वास्तिक का चित्र….रंगोली के रंग फीके..
    सरोबार होती हैं रोज आंखें… अब स्याह चेहरों से
    टपकते हैं अनगिनत आंसू…
    आंसू भी घड़ियाली होने लगे हैं… बेमतलब
    आंखें अब…
    कोरी सफेद नहीं रही…आंखों में सुर्ख लाल रंग…
    माथों पर शिकन…घूरने लगे हैं दरवाज़े और खिड़कियां भी…
    पतझड़ सी जिंदगी अब बनने लगी हैं…
    वसंत ढ़ल गया है… क्षितिज
    अब दिखता नहीं है..
    बूढ़ी आंखों पर ढलता हैं… हर रोज पानी…
    अथाह पानी…जैसे समन्दर कोई
    बूढ़ी लाठी…अब कौन उठायेगा…?
    कौन उठायेगा क्यारी की मिट्टी…?
    खनिज लवण नहीं मिलते आजकल…
    रिश्तों को चाहिए
    विटामिन, प्रोटीन…खनिज लवण…
    बिकने लगे है…पश्चिमी सभ्यता संग…श्रंगार रस…
    टपकता दिखाई नहीं देता..
    शहद…पारिवारिक छातों में बचा ही कितना है…?
    जो टपकने लगे लार…
    आदमी… तिनकों से भरा…
    मात्र…पुतला है
    मर चुकी है भावनाएं सारी…मटियामेट हो चुकी है
    स्नेह नहीं बचा तनिक…
    प्रस्फुटन की क्षमता… मिट्टी में…
    शायद बची नहीं है… अब कैसे निकलेगी…
    नई शाखाएं… ? बीज खाद कहाँ बचे है….?
    बचे नहीं है प्राण…निष्प्राण सी…निस्सहाय सी..
    रूंआसी मिट्टी….बेदम हो गई है रिश्तों की मिट्टी
    सूरज की तपिश झेल झेल कर…
    भरभरी हो गई है… भरभरी हो गई रिश्तों की जमीन…
    बंजरपन हावी हैं…रसिकता…
    सदियां बीत चुकी है..
    संवेदनशीलता दमदार हैं…
    वो क्यारी की मिट्टी हर रोज ताने सुनकर…घास फूस पैदा नहीं कर सकती…?
    बांझ…यह बांझपन आया कहाँ से हैं…?
    जिम्मेदार कौन है…?
    पत्थर किसने बनाया इसे…?
    किसने तोड़ा इसका कोमल और मखमली हृदय…?
    आघात…
    इस आदमी की देन नहीं है क्या…?
    हावी भौतिकता… पदार्थ में रमा बसा आदमी…
    पुद्गल… पुद्गल… बस पुद्गल…
    पैसा… पैसा… और बस पैसा…
    हाय पैसा…
    सूनापन… घर की दहलीज़ पर जब हो..
    सरस्वती अब बिराजती कहाँ है..?
    असत्यता की जमीन पर
    क्यारी क्या पनपा सकती हैं…?
    नई कोई पौध…?
    उगती नहीं है अब फसलें… जड़ें….कहाँ है..?
    खुशी से सरोबार लब..
    आज सड़ चुके है…दम नहीं है… हौंसला बचा कहाँ है..?
    मकान की नींव को तो न जाने…
    कब की समय की दीमक ने खोखला कर दिया…
    बंटवारा… बंटवारा… और बंटवारा…
    सिकुड़ती जा रही हैं… ये धरती… ये आसमां..
    मृतप्रायः सी…
    कुसुम नहीं खिलते…जलते हैं अरमान…
    सिरहाने…
    अब साया नहीं है…
    ईश्वर.. धर्म… संस्कृति… समाज…
    आदमी दिशाहीन..
    न जाने बढ़ रहा है…
    किस मंजिल की ओर ?
    धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़, असम,मोबाइल 09828108858
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    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद