बूढ़ी हो गई हैं स्वेटर

बूढ़ी हो गई हैं स्वेटर

समय के साथ
बूढ़ी हो गई हैं स्वेटर…
यकायक आज..
संदूक से निकालकर… आलमारी में सजाते समय
धर्मपत्नी बोल उठी थी..
आधुनिक समय में कद्र कहाँ है …?
दिन रात…
आंखें चुंधिया गई थी..
बूढ़ी आंखें….
लेकिन स्नेह से भरपूर…
मशीनों में स्नेह थोड़े ही होता है…?
नदारद..
कितना मोलभाव किया था..
पसंद की पषम…
आज तो दुकानें भी मिलती हैं सहज..
दुर्लभ है ढूंढना…
आधुनिकीकरण का रंग जो चढ़ गया है…
युवा पीढ़ी…
नहीं करती पसंद छूना…
अपनत्व छिपा था लेकिन…
उस बूढ़ी स्वेटर में…
कितनी पहचान होती हैं…
एक “मां” को…
आंखों से नाप लेती हैं… लंबाई चौड़ाई…
उसका मीटर…
सटीकता से आंकलन कर लेता है…
आजकल एक्सल…डबल एक्सल…
भरे पड़े हैं…
बाजार… डिजाइन… न जाने क्या क्या..
लेकिन…
उस बूढ़ी स्वेटर का…
रंग आज भी है सुर्ख…
उस मावठ में…
उन
सरद हवाओं में…
कांपती हैं जब रूह सारी..उसका मोटा लबादा..
बेपरवाह…
बेहिचक, बेहिसाब
ढांप लेता हैं पूरा बदन…
सर्दी जुकाम..
नहीं फटकता पास…
युवा पीढ़ी की नजरों में…”मां” की स्वेटर…
बूढ़ी हो चली हैं…
कितने अरमानों से…
घर का कामकाज छोड़ कर…
काली स्याह रातों की मेहनत…
पलभर में..
हर कोई… सोचता नहीं है…
उस बूढ़ी स्वेटर के बारे में…
स्नेह के धागों का मोल कहाँ है जनाब ?
धागे…धागे मात्र है…
अनमोल होने की बू….
चढ़ती नहीं है नथुनों में..क्योंकि
हमारे नथुनों को..
सूंघ गई है पश्चिमी सभ्यता संस्कृति…
थपेडे़ ..तूफान के
उस बूढ़ी स्वेटर से मैंने देखा है रूकते अक्सर…
हंसी फूट पड़ती हैं…
आधुनिकता के रंग में रंगे चेहरों पर..
ताज्जुब हैं…
उस “मां” की कलाई…
मुड़ी होगी न जाने कितनी बार..?
झाड़ू पौंछा..
कपड़ें लत्ते…रसोई घर.. चूल्हा चौका…
खिलाना पिलाना…
घर के हरेक सदस्य को…
बीच बीच में ढोर…
अनगिनत… कितने काम हैं एक स्त्री को…
सुबह से शाम…
मशीन तो नहीं है…
इतना मशीनी होने के बीच.. स्वेटर बुनना…
आसां कहाँ हैं..?
फिर भी…
न जाने…
आज…
क्यों हो चली हैं ..वह स्वेटर
बूढ़ी ?
निरी बूढ़ी…।
धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़, असम,मोबाइल 09828108858
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कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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