बूंदाबांदी पर कविता
रात की हल्की
बूंदाबांदी ने
फिजां को
दिया निखार
पेङों पे
पत्तों पे
दीवारों पे
मकानों पे
जमीं धूल
धुल गई
सब कुछ हो गया
नया-नया
ऐसी बूंदाबांदी
मानव मन पे भी
हो जाती
जात-पांत
धर्म-मजहब की
जमी धूल
भी जाती धुल
आज की
फिजां की तरह
जर्रा-जर्रा
जाता निखर
-विनोद सिल्ला
बहुत बढ़िया सर
Thanks Sardanand Rajli sir