वनवास कटा,
प्रभु आये घर को,
स्वर्ग से सुंदर धरा सजी।
दुल्हन बन चहके वसुधा,
हरियाली सर्वत्र बिछी।
पुलकित हो गयी धरती माँ भी,
धन-धान्य से उसकी गोद भरी।
नव धान्य,नव फसलें आयी,
माता लक्ष्मी भी हरसाई।
हर घर मंगल गीत बजे हैं,
द्वार-द्वार रंगोली सजी।
घर-घर बाजे ढोल और ताशे,
बाँट रहे सब खील-बताशे।
अमावस की कालरात्रि में,
घर-घर दीप जलाए।
दीपशिखा सी चमके रजनी,
जग जगमग हो जाए।
कार्तिक की ये रात अमावस,
पूनम से भी दीप्त लगे।
चलो,तुम्हें मिलवाऊँ उनसे,
जिनकी दीवाली रिक्त लगे।
नन्हे-नन्हे हाथों ने,
कुछ दीये बनाये मिट्टी के।
उम्मीदों के रंगों से फिर,
दीये सजाए मिट्टी के।
आधुनिकता की चकाचौंध में,
भूल गया इंसान।
मिट्टी के ही दीये जलाना,
परम्परागत शान।
मिट्टी के यदि दीये जलायें,
दो घर रौशन हो जाते है।
एक घर जिसमे दीये बने हों,
दूजा हम जो घर लाते हैं।
दीवाली इक प्रकाश पर्व है,
हर घर रौशन हो जिसमें।
इक आँगन भी सुना हो तो,
बोलो क्या है बड़ाई इसमें।
आज चलो,संकल्प करें हम,
हर घर रौशन करना है।
कुछ मिट्टी के दीये जलाकर,
हर आँगन में धरना है।
इसी तरह आओ सब मिलकर,
ज्ञान का दीप जलायें।
अज्ञानता का तिमिर घटे,
कुछ सीखें,और सिखायें।~~~
विजिया गुप्ता “समिधा”
दुर्ग-छत्तीसगढ़