Category: हिंदी कविता

  • मैं रीढ़ सा जुडा इस धरा से

    मैं रीढ़ सा जुडा इस धरा से

    मैं रीढ़ सा जुडा इस धरा से,। 
    मैं मरुं नित असहनीय पीडा से, 
    मैं गुजरता नित कठिन परिस्थितियों से, 
    मेरी सुंदरता कोमल शाखाओं से,
    उमर से पहले ही रहता मानव, 
    मुझे काटने को तैयार, 
    पल भर में करता अपाहिज और लाचार, 
    पीपल, बरगद, नीम और साल
    काट दिए मेरे अनगिनत साथी विशाल, 
    शैतानी मानव कर रहा, 
    अपना रेगिस्तानी जाल तैयार, 
    चंद सिक्कों की खातिर, 
    भूल गया मेरा अस्तित्व, 
    मानव तु पछताएगा, 
    चारों दिशाओं में बढते तापमान से 
    ध्रुव व हिमायल पिघल जाएगा। 
    तपती गर्मी की तपिश से झुलस जाएगा।
    मैं हवा को साफ करता, 
    बारिश में सहाय हुँ, बाढ़ रोकता ढाल बनके,
    पंछियों का घर आँगन भी मैं, 
    फल, फूल और लाभ विभिन्न प्रकार, 
    फिर भी मानव करे मेरा तिरस्कार, 
    सौगंध है, मानव तुझे धरा की, 
    सुनले आज मेरी गुहार, 
    नहीं तो जीवन होगा बेहाल, 
    काटो न काटने दो का नारा, 
    है जीवन का सबसे बड़ा सहारा।

    अरुणा डोगरा शर्मा

    मोहाली

    ८७२८००२५५५
      [email protected]
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  • सुलगता हुआ शहर देखता हूँ

    सुलगता हुआ शहर देखता हूँ

     

    इधर भी उधर भी जिधर देखता हूँ,
    सुलगता हुआ हर शहर देखता हूँ,

    कहीं लड़ रहे हैं कहीं मर रहे हैं,
    झगड़ता हुआ हर नगर देखता हूँ,

    कहीं आग में जल न जाए यहाँ सब,
    झुलसता हुआ हर बसर देखता हूँ,

    सियासत बहुत है घिनौना यहाँ पर,
    छिड़कता हुआ अब जहर देखता हूँ,

    न जाने लड़ाकर मिलेगा तुम्हें क्या,
    भटकता हुआ दर-बदर देखता हूँ,


         ✍ केतन साहू “खेतिहर”

       बागबाहरा, महासमुंद (छ.ग.)

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  • तुम पर लगे इल्जामातमुझे दे दो

    तुम पर लगे इल्जामातमुझे दे दो

    तुम अपने अश्कों की सौगात
    मुझे दे दो
    अश्कों में डूबी अपनी हयात
    मुझे दे दो

    जिस रोशनाई ने लिखे
    नसीब में आंसू
    खैरात में तुम वो दवात
    मुझे दे दो

    स्याही चूस बन कर चूस लूंगा
    हरफ  सारे
    रसाले में लिखी हर इक बात
    मुझे दे दो

    जमाने से तेरी खातिर 
    टकरा जाऊँगा
    जो तुम पर लगे इल्जामात
    मुझे दे दो

    मैं सीने से लगा कर रख
    लूंगा ‘राकेश,
    गमजदा सब अपने वो जज्बात
    मुझे दे दो। 

    राकेश कुमार मिश्रा
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  • मेरे वो कश्ती डुबाने चले है

    मेरे वो कश्ती डुबाने चले है

    रूठे महबूब को हम मनाने चले है |
    अपनी मजबूरीया उनकों सुनाने चले है |

    जो कहते थे तुम ही तुम हो जिंदगी मेरी  |
    बीच दरिया मेरे वो कश्ती डुबाने चले है |

    ख्यालो ख्याबों मेरी  सूरत उनका था दावा |
    डाल गैरो गले बाहे वो मुझको भुलाने चले है |

    टूटकर चाहा खुद से भी ज्यादा जिसको |
    तोड़कर दिल मेरा दुश्मनों दिल लूटाने चले है  |

    यकीन हो उनको हम आज भी है आपके |
    जख्मी टूटा दिल हम उनको दिखाने चले है |

    खुला रखा दरवाजा दिला का खातिर उनकी |
    रौंदकर पैरो तले दिल वो मुझे तड़पाने चले है |

    श्याम कुँवर भारती
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  • मानवता की छाती छलनी हुई

    मानवता की छाती छलनी हुई

    विमल हास से अधर,
    नैन वंचित करुणा के जल से।
    नहीं निकलती 
    पर पीड़ा की नदी
    हृदय के तल से।।

    सहमा-सहमा घर-आँगन है, 
    सहमी धरती,भीत गगन है ।
    लगते हैं अब तो 
    जन-जन क्यों जाने ?
    हमें विकल से ।

    स्वार्थ शेष है संबंधों में, 
    आडंबर है अनुबंधो में ।
    मानवता की छाती छलनी हुई
    मनुज के छल से ।

    ——R.R.Sahu
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