Category: हिंदी कविता

  • इधर-उधर की मिट्टी

    इधर-उधर की मिट्टी

    ऐ! हवा
    ये मिट्टी जो तुम
    साथ लाई हो
    ये यहाँ की
    प्रतीत नहीं होती
    तुम चाहती हो मिलाना
    उधर की मिट्टी
    इधर की मिट्टी में
    और इधर की मिट्टी
    उधर की मिट्टी में
    तभी तो लाती हो
    ले जाती हो
    सीमा पार मिट्टी
    लेकिन कुछ ताकतें हैं
    इधर भी
    उधर भी
    जो नहीं चाहती
    इधर-उधर की मिट्टी
    आपस में मिले। 
    -विनोद सिल्‍ला©
    771/14, गीता कॉलोनी
    डांगरा रोड़, टोहाना
    जिला फतेहाबाद, हरियाणा
    पिन कोड 125120
    संपर्क 9728398500
    email:- [email protected]
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • नशे में चित

    नशे में चित

    मेरा शहर है विख्यात
    नहरों की नगरी के नाम से
    आज मैं घूमते-घूमते
    पहुँचा नहर पर
    पानी लड़खड़ाता-सा
    तुतलाता-सा
    होश गवांकर बह रहा था

    बहते-बहते
    पानी संग बह रहे थे
    प्‍लास्‍टिक के खाली
    डिस्‍पोजल गिलास-प्‍लेट
    चिप्स-कुरकरे के खाली पैकेट
    शराब व खारे की
    प्‍लास्‍टिक की खाली बोतलें
    जो फैंके गए हैं
    प्रयोग के बाद

    थोड़ा आगे बढा तो
    सजी थी महफिलें
    थोड़े-थोड़े फांसले से
    नहरों के दोनों ओर

    लेकिन हैरत ये है कि
    शराब लोग पी रहे हैं
    नशे में चित
    प्रशासनिक अमला
    और
    कानून व्यवस्था है

    -विनोद सिल्‍ला

    771/14, गीता कॉलोनी
    डांगरा रोड़, टोहाना
    जिला फतेहाबाद  (हरियाणा)
    पिन कोड 125120
    संपर्क 9728398500
    [email protected]

    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • कागा की प्यास

    कागा की प्यास

    कागा पानी चाह में,उड़ते लेकर आस।
    सूखे हो पोखर सभी,कहाँ बुझे तब प्यास।।
    कहाँ बुझे तब प्यास,देख मटकी पर जावे।
    कंकड़ लावे चोंच,खूब धर धर टपकावे।।
    पानी होवे अल्प,कटे जीवन का धागा।
    उलट कहानी होय,मौत को पावे कागा।।

    कौआ मरते देख के,मानव अंतस नोच।
    घट जाए जल स्रोत जो,खुद के बारे सोच।।
    खुद के बारे सोच,बाँध नदिया सब भर ले।
    पानी से है जान,खपत को हम कम कर ले।।
    कम होते जल धार,बात माने सच हौआ।
    सलिल रहे जो सार,मरे फिर काहे कौआ।।
    राजकिशोर धिरही
    तिलई,जांजगीर
    छत्तीसगढ़
    9827893645
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • धरती हमको रही पुकार

    धरती हम को रही पुकार ।

    समझाती हमको हर बार ।।

    काहे जंगल काट रहे हो ।
    मानवता को बाँट रहे हो ।
    इससे ही हम सबका जीवन,
    करें सदा हम इससे प्यार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    बढ़ा प्रदूषण नगर नगर में ।
    जाम लगा है डगर डगर में ।।
    दुर्लभ हुआ आज चलना है ,
    लगा गन्दगी का अम्बार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    शुद्ध वायु कहीं न मिलती है ।
    एक कली भी न खिलती है ।।
    बेच रहे इसको सौदागर ,
    करते धरती का व्यापार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    पशुओं को बेघर कर डाला ।
    काट पेड़ को हँसता लाला ।।
    मौसम नित्य बदलता जाता ,
    नित दिन गर्मी अपरम्पार ।।

    धरती  हमको रही पुकार ।।

    आओ मिलकर पेड़ लगायें ।
    निज धरती को स्वर्ग बनायें ।।
    हरा – भरा अपना जीवन हो ,
    बन जाये सुरभित संसार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    परयावरण बचायें हम सब ।
    स्वच्छ रखें घर आँगन सब ।।
    करे सुगंधित तन मन सबका ,
    पंकज कहता बारम्बार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    डाँ. आदेश कुमार पंकज
    विभागाध्यक्ष गणित शास्त्र
    रेणुसागर सोनभद्र
    उत्तर प्रदेश
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • विनाश की ओर कदम

    विनाश की ओर कदम

    नदी ताल में  कम  हो  रहा  जल
    और हम पानी यूँ ही बहा  रहे हैं।
    ग्लेशियर पिघल रहे  और  समुन्द्र
    तल   यूँ ही  बढ़ते  ही जा रहे  हैं।।
    काट कर सारे वन  कंक्रीट के कई
    जंगल  बसा    दिये    विकास   ने।
    अनायस ही विनाश की ओर कदम
    दुनिया  के  चले  ही  जा  रहे   हैं ।।
    पॉलीथिन के  ढेर  पर  बैठ  कर हम
    पॉलीथिन हटाओ का नारा दे रहे हैं।
    प्रक्रति का  शोषण कर   के  सुनामी
    भूकंप  का  अभिशाप   ले   रहे  हैं ।।
    पर्यवरण प्रदूषित हो रहा है  दिन रात
    हमारी आधुनिक संस्कृति के कारण।
    भूस्खलन,भीषणगर्मी,बाढ़,ओलावृष्टि
    की नाव बदले में  आज हम खे रहे हैं।।
    ओज़ोन लेयर में छेद,कार्बन उत्सर्जन
    अंधाधुंध दोहन का ही दुष्परिणाम है।
    वृक्षों की कटाई  बन  गया  आजकल
    विकास  प्रगति   का   दूसरा  नाम  है।।
    हरियाली को  समाप्त करने  की  बहुत
    बडी  कीमत चुका रही   है  ये  दुनिया।
    इसी कारण ऋतुचक्र,वर्षाचक्र का नित
    असुंतलन आज  हो  गया  आम  है ।।
    सोचें  क्या दे  कर  जायेंगे  हम   अपनी
      अगली     पीढ़ी    को   विरासत   में ।
    शुद्ध जल और वायु  को ही   कैद  कर
    दिया है जीवन  शैली की  हिरासत में।।
    जानता  नहीं   आदमी   कि   कुल्हाड़ी
    पेड पर  नहीं  पाँव   पर  चल   रही  है।
    प्रकृति  नहीं  सम्पूर्ण  मानवता  ही नष्ट
    हो जायेगी इस दानव सी हिफाज़त में।।
    रचयिता
    एस के कपूर श्री हंस
    बरेली
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद