Category: हिंदी कविता

  • ये  शहर हादसों का शहर हो न जाए

    हादसों का शहर

    ये  शहर  हादसों  का  शहर  हो न जाए।
    अमन पसंद लोगों पर कहर हो न जाए।।
    न  छेड़  बातें  यहां  राम  औ  रहीम की,
    हिन्दू  और  मुसलमां  में बैर हो न जाए।।
    अमृत  सा  पानी  बहे  इन दरियाओं  में,
    आबो हवा बचाओ सब जहर हो न जाए।।
    गोलियों की  आवाजें सुन  ही  जाती  हैं,
    पूरी  इन्सानियत  ही  ढेर  हो  न   जाए।।
    सूरज  की  पहली  किरण  का  पैगाम है,
    जल्दी  उठ  के  सुनो दोपहर हो न जाए।।
    सिल्ला’  तूं  अपने  विचार  खुले   रखना,
    संकीर्णता  में  अपने  गैर  हो   न   जाए।।
    -विनोद सिल्ला

  • जीवन यही है

    जीवन यही है

    मार्च के महीने में
    देखता हूँ बिखरे पत्ते धरती की छाती पर
    रगड़ते घिसते
    हवा की सरसराहट के संग
    खर्र खर्र की आवाज बिखरती हैं कानों में
    यत्र तत्र
    टहनियों से अलग होने के बाद
    मृत प्रायः, काली पीली काया बिखरे पत्तों की…
    छोड़ती है अपनी अमिट छाप
    उम्रदराज हो जाते हैं
    आदमी की तरह..सूखे पत्ते
    हरितिमा नहीं रहती जब कायम
    वसंत ऋतु के बाद
    मदमस्ती करते…निरंतरता में बहते…
    अफसोस नहीं, नहीं कोई अवसाद
    पत्तों के तन पर
    जीवन के बाद मरण तो हैं तय
    फिर क्यों बहायें आंसू
    नई कोंपलों को जैसे बुलावा देते से
    हताश नहीं, प्रसन्न हो रहे हैं
    जवानी हमेशा जवान नहीं रहती
    स्नेह की धारा
    इन पत्तों की अब बहती हैं धरती की मिट्टी संग
    ढांप लेते हैं
    धरती का शरीर सारा
    कदमताल करते
    बारिश संग फिर सीखेंगे घुलना मिलना
    वो ले आयेगी
    उन पीले पड़े पत्तों को कब्र तक
    जहाँ पर
    सहजता से टिकना चाहते हैं
    ताकि मिल सके पुनर्जन्म
    मिट्टी को…
    खाद बनकर
    फिर सींचते हैं… उस हलधर का खेत…
    विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण प्रदान करते
    फसलों को…
    नई स्फूर्ति, नई ताजगी ,नया उल्लास, नई उमंग भरते…
    खिलखिलाते…
    कब्र की उस शांत मिट्टी में…
    निद्रा पूरी करते…
    लहलहाती हैं वनस्पतियां, फसलें…
    बहार आती हैं
    फैल जाती हैं हरितिमा चंहुओर
    किसान की मेहनत को और रंग जाते
    ये टूटे फूटे,कटे फटे…
    लहूलुहान से पत्ते…अश्रुधारा नहीं बहती फिर भी
    नये जोश के साथ…. जमीन में से..
    अन्न की पैदावार को बढ़ाते…
    जीव जगत को हर्षाते…
    बेकार नहीं…
    प्रकृति के विधान के साथ…
    कदमताल करते करते…
    कवि के कवित्व में उभरते….
    मौन ही सही…
    लेकिन इनके मौन होने का भी अर्थ है…
    नवजीवन…नवगाथा…नवीन कोई राह
    जिस पर…
    चलकर…
    आदमी ही नहीं…
    तैर जायेगी ये प्रकृति
    पार कर लेगी भवसागर…
    जीवन यही है…
    जन्म यही है… मरण यही है…
    चक्र यही है…
    यही है…
    स्पंदन गिरे पत्तों के हृदय का….।
    धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़, असम,मोबाइल 09828108858
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  • महादेवी वर्मा पर कविता

    महादेवी वर्मा पर कविता

    mahadevi-verma

    हिंदी मंदिर की सरस्वती,
    तुम हिंदी साहित्य की जान।
    छायावादी युग की देवी,
    महादेवी महिमा बड़ी महान।।
    दिया धार शब्दों को,
    हिंदी साहित्य है बतलाता।
    दिव्य दृष्टि दी भारत को,
    साहित्य तुम्हारा जगमगाता।।
    प्रेरणास्रोत कलम की तुम,
    हो दर्पण झिलमिलाता।
    दशा दिशा इस भारत की,
    जो सबकुछ है दिखलाता।।
    करुणामयी करुणा की देवी,
    नारियों की तुम माता।
    निवलों,विकलों,दुखियों की,
    तुम हो आधार दाता।।
    जीव जंतु प्रेमिका तुम,
    हो आधुनिक मीरा रूप।
    करने कायापलट जहां का,
    छांव देखी न देखी धूप।।
    अनुपम,अलौकिक,शब्दावली,
    तुम हिंदी की शान।
    युगों युगों तक हिंदी साहित्य,
    करता रहेगा अभिमान।।
    महादेवी वर्मा नाम,
    हर कलमकार दुहराता।
    प्राण वायु वह छायावादी,
    लगती हिंदी विधाता।।
    बंगला और संस्कृत शब्दों को,
    पहनाया हिंदी जामा।
    संगीत विधा मे पारंगत,
    चित्रकारी का असीम खजाना।।
    प्रतिमूर्ती दुख दर्द की,
    ज्ञाता दे संगीत सुर झंझनाना।
    छू के मन के तारों को,
    छेड़ा जिसने दर्द का तरना।।
    इंदुरानी, उत्तर प्रदेश
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  • दहेज पर कविता

    दहेज पर कविता

                  
    बेटी कितनी जल गई ,
                   लालच अग्नि  दहेज ।
    क्या जाने इस पाप से ,
                     कब होगा परहेज ।।
    कब होगा परहेज ,
                  खूब होता है भाषण ।
    बनते हैं कानून ,
                नहीं कर पाते पालन ।।
    कह ननकी कवि तुच्छ ,
        .      रिवाजों की बलि लेटी ।
    रहती  है  मायूस ,
                   बैठ  मैके  में  बेटी ।।
                ~  रामनाथ साहू ” ननकी “
                     मुरलीडीह ( छ. ग. )
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  • कुण्डलिया

    कुण्डलिया

    अंदर की यह शून्यता ,
                         बढ़ जाये अवसाद ।
    संशय विष से ग्रस्त मन ,
                         ढूढ़े  ज्ञान  प्रसाद ।।
    ढूढ़े   ज्ञान  प्रसाद ,
               व्यथित मन व्याकुल होता ।
    आत्म – बोध से दूर ,
        …     खड़ा    एकाकी    रोता ।।
    कह ननकी कवि तुच्छ ,
                 सतत शुचिता  अभ्यंतर ।
    कृपा  करें  जब  संत ,
                  बोध  होता  उर  अंदर ।।
                        ~  रामनाथ साहू ” ननकी “
                               मुरलीडीह (छ. ग. )
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