Category: हिंदी कविता

  • किस मंजिल की ओर ?

    किस मंजिल की ओर ?

    क्यारी सूख रही है निरंतर..
    आग जल रही हैं हर कहीं..घर हो या पास पडौ़स ..
    विश्वास की डोर नहीं है…टूट रही हैं नित ख्वाहिशें
    नहीं  रहा है भाईचारा…प्रेम…स्नेह छूट गया है..
    कहीं दूर…अंतरिक्ष सदृश्य..
    वैमनस्य पलने लगा है नजरों में..
    अंधकार छा रहा है… बादल धुलते नहीं है… अब
    मन की कालिख…
    दिल की काल कोठरी में
    ईर्ष्या घर कर रही हैं नित…दिल के कोने कोने में..
    महीनता से..सूक्ष्मता से…
    हर रग में…रक्त की बूंद बूंद में
    परिवार की क्यारी …प्यारी प्यारी सी क्यारी…
    न्यारी न्यारी सी…
    बुझ चुके हैं प्रसून सारे…
    अनगिनत… प्रसून
    सूखने लगी हैं…अब…महक नहीं रही बाकी
    अनवरत..
    अब तो
    रिश्ते नाते …बोझ बनने लगे हैं…
    रिश्तों का पानी…घड़े में नहीं है मौजूद…
    घड़े हैं कोरे..
    सपाट…
    दीवारें आज सूखी हैं…गीलापन नहीं है…
    शबनम की बूंदें आज रूखी रूखी सी…
    अपनत्व की दीवारों में…पलकें अब भीगती नहीं…
    कोई मरे या जीए
    तुम कहाँ ढूंढते हो…?
    स्नेह की ईंटें और गारा… ?
    अब तो लबादा मात्र रह गया है…
    चिपकता नहीं है मां की गोद की तरह..
    बहना की राखी में…पैसे ..की बदबू…दिखती है बस
    लेप…फीका हो गया है…
    स्वाद, बेस्वाद हो गया है…
    चूल्हे की रोटी… पकने लगी है….अलग अलग
    तंदूर देखे बरसों बीत चुके हैं…
    उस लालटेन में घासलेट नहीं है..
    स्नेह का घासलेट…
    प्यार की दियासलाई.. अरे.. कहाँ चली गई.. न जाने…?
    फूटती नहीं है अब लबों पर हंसी की फुहारें…
    हल्द चेहरे…मायूस दिल…
    अब…सींचते नहीं है… घर परिवार के सदस्य..
    मेंहदी के बूंटे..
    परिवार का पौधा…
    न जाने  क्यों…? झुलस गया है…
    तार तार… बस..
    खरपतवार बची है…
    अब फलता फूलता नहीं है…मुरझा रहा है.. निरंतर
    सर्दी, गर्मी, बारिश, वसंत…की परवाह किये बगैर
    निकल जाते हैं बस यूं ही… दिन…
    भागमभाग… आपाधापी… वैश्वीकरण का दौर जो आ गया है
    अम्बार लगता है… झगडों का…..
    हाथ उठने लगे है…
    औरतजात पर….
    गृहलक्ष्मी.. फफक फफक कर…रो रही है…
    पीड़ा… दर्द…
    हमदम नहीं आते नजर…
    जब झोपड़ी थी…तब बोलते थे सजीव बनकर…
    घर के मांडणे… वो
    स्वास्तिक का चित्र….रंगोली के रंग फीके..
    सरोबार होती हैं रोज आंखें… अब स्याह चेहरों से
    टपकते हैं अनगिनत आंसू…
    आंसू भी घड़ियाली होने लगे हैं… बेमतलब
    आंखें अब…
    कोरी सफेद नहीं रही…आंखों में सुर्ख लाल रंग…
    माथों पर शिकन…घूरने लगे हैं दरवाज़े और खिड़कियां भी…
    पतझड़ सी जिंदगी अब बनने लगी हैं…
    वसंत ढ़ल गया है… क्षितिज
    अब दिखता नहीं है..
    बूढ़ी आंखों पर ढलता हैं… हर रोज पानी…
    अथाह पानी…जैसे समन्दर कोई
    बूढ़ी लाठी…अब कौन उठायेगा…?
    कौन उठायेगा क्यारी की मिट्टी…?
    खनिज लवण नहीं मिलते आजकल…
    रिश्तों को चाहिए
    विटामिन, प्रोटीन…खनिज लवण…
    बिकने लगे है…पश्चिमी सभ्यता संग…श्रंगार रस…
    टपकता दिखाई नहीं देता..
    शहद…पारिवारिक छातों में बचा ही कितना है…?
    जो टपकने लगे लार…
    आदमी… तिनकों से भरा…
    मात्र…पुतला है
    मर चुकी है भावनाएं सारी…मटियामेट हो चुकी है
    स्नेह नहीं बचा तनिक…
    प्रस्फुटन की क्षमता… मिट्टी में…
    शायद बची नहीं है… अब कैसे निकलेगी…
    नई शाखाएं… ? बीज खाद कहाँ बचे है….?
    बचे नहीं है प्राण…निष्प्राण सी…निस्सहाय सी..
    रूंआसी मिट्टी….बेदम हो गई है रिश्तों की मिट्टी
    सूरज की तपिश झेल झेल कर…
    भरभरी हो गई है… भरभरी हो गई रिश्तों की जमीन…
    बंजरपन हावी हैं…रसिकता…
    सदियां बीत चुकी है..
    संवेदनशीलता दमदार हैं…
    वो क्यारी की मिट्टी हर रोज ताने सुनकर…घास फूस पैदा नहीं कर सकती…?
    बांझ…यह बांझपन आया कहाँ से हैं…?
    जिम्मेदार कौन है…?
    पत्थर किसने बनाया इसे…?
    किसने तोड़ा इसका कोमल और मखमली हृदय…?
    आघात…
    इस आदमी की देन नहीं है क्या…?
    हावी भौतिकता… पदार्थ में रमा बसा आदमी…
    पुद्गल… पुद्गल… बस पुद्गल…
    पैसा… पैसा… और बस पैसा…
    हाय पैसा…
    सूनापन… घर की दहलीज़ पर जब हो..
    सरस्वती अब बिराजती कहाँ है..?
    असत्यता की जमीन पर
    क्यारी क्या पनपा सकती हैं…?
    नई कोई पौध…?
    उगती नहीं है अब फसलें… जड़ें….कहाँ है..?
    खुशी से सरोबार लब..
    आज सड़ चुके है…दम नहीं है… हौंसला बचा कहाँ है..?
    मकान की नींव को तो न जाने…
    कब की समय की दीमक ने खोखला कर दिया…
    बंटवारा… बंटवारा… और बंटवारा…
    सिकुड़ती जा रही हैं… ये धरती… ये आसमां..
    मृतप्रायः सी…
    कुसुम नहीं खिलते…जलते हैं अरमान…
    सिरहाने…
    अब साया नहीं है…
    ईश्वर.. धर्म… संस्कृति… समाज…
    आदमी दिशाहीन..
    न जाने बढ़ रहा है…
    किस मंजिल की ओर ?
    धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़, असम,मोबाइल 09828108858
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    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • सिर पर है चुनाव

    सिर पर है चुनाव

    बीच बवंडर गोते खाती, फंस गई जैसे ना
    कुछ ऐसा माहौल बना है, सिर पर है चुनाव
    उबड़ खाबड़ गड्ढे वाले, अब दिखते है गांव
    ये अब तो मुद्दा है भैया, सिर पर है चुनाव
    अपनी मांगे हमको तुम , झट से बतलाव
    लगे हाथ झट पूरी होंगी,सिर पर है चुनाव
    बरसों से है गांव अंधेरा, खम्भे भी लगवाव
    फौरन अपने सरपंच से, सिर पर है चुनाव
    हाथ हिलाने वाले अब तो, पड़ते सबके पाँव
    अजब गजब महिमा है, जय जय हो चुनाव

    अनिल (अभिअन्नु) महासमुंद

  • स्वयंसिद्धा

    स्वयंसिद्धा

    देहरी को लाँघने ,
    साहस सदा तुममें रहा,
    अधिकार के सत्कार में
    कर्तव्य की कारा बना,
    क्यूँ  प्रश्न वाचक तुम बनी,
    अवधारणा को तोड़
    खोल पाँखे खोल
    है तू सदा से ही ,
    जगतनियन्ता ने बनाया
    सृष्टि के आदि से,
    पुराण, वेद, उपनिषद्
    कालातीत से कालांतर
    गढ़ा है ,सुझाया,
    जन्म जन्मातर से हो
    देवी तुम,
    स्वयंसिद्धा।

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    डॉ मीता अग्रवाल रायपुर छत्तीसगढ़
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  • गौरी पर दोहे

    दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, देवीशक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं।शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं। दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती परब्रह्म बताया गया है।

    durgamata

    “गौरी पर दोहे”

    1.शंकर की अर्धान्गिनी, गौरी जी कहलाय
      बैठी शिव के वाम में, जोड़ी परम सुभाय

    1. नव दुर्गा नव रूप की,संसार करे भक्ति
        जग जननी माँ तू उमा,देती सबको शक्ति
    2. कर जोड़ धूप दीप ले,भक्त खड़े है द्वार
        नर नारी पूजन करे,करना माँ उद्धार
    3. माँ महिषासुर मर्दिनी,सिंह पर हो सवार
        अद्भुत महिमा माय की,भक्त करे जयकार
      5.विपत पड़ा जब भूमि पर,ली काली अवतार
          खल दल छल बल नास कर,करे दुष्ट संहार
      ✍ श्रीमती सुकमोती चौहान रुचि
      बिछिया,बसना,महासमुन्द,छ.ग.
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  • बेटा-बेटी में भेद क्यों पर कविता

    बेटा-बेटी में भेद क्यों पर कविता

    सागर होते हैं बेटे, तो गंगा होती है बेटियां
    चांद होते हैं बेटे, तो चांदनी होती हैं बेटियां
    जग में दोनों ही अनमोल फिर भेद कैसा।।
    कमल होते बेटे,तो गुलाब होती हैं बेटियां
    पर्वत होते बेटे, तो चट्टान होती हैं बेटियां
    जग में दोनों ही अनमोल फिर भेद कैसा।।
    पेड़ होते हैं बेटे,तो धरा होती हैं बेटियां
    मेघ होते हैं बेटे, तो धरा होती हैं बेटियां
    जग में दोनों ही अनमोल फिर भेद कैसा।।
    फूल होते हैं बेटे, तो खुशबू होती हैं बेटियां
    बर्फ होते हैं बेटे, तो ओस की बूंद होती है बेटियां
    जग में दोनों ही अनमोल फिर भेद कैसा।।
    जग संचालक बेटे,तो जन्मदात्री होती हैं बेटियां
    कुल के रक्षक बेटे, तो कुल की देवी होती बेटियां।।
    जग में दोनों ही अनमोल फिर भेद कैसा।।

    क्रान्ति, सीतापुर सरगुजा छग
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद