Category: हिंदी कविता

  • अंतर्द्वंद्व बड़ा अलबेला

    अंतर्द्वंद्व बड़ा अलबेला

    द्वंद्वभरी जीवन की राहें,भटक रहे तुम मन अलबेले!
    संतोषी मग  पकड़ बावरे,इस जीवन के बड़े झमेले!!


    तृप्त हुआ तू नहीं आज तक,मनमर्जी रथ को दौड़ाया!
    चौराहे पर फिरा भटकता,ज्यों कुंजर वन में बौराया!
    दृग ऊपर माया का पर्दा,देखे सपने सदा नवेले!
    संतोषी मग पकड़ बावरे,इस जीवन के बड़े झमेले!!……(१)


    पैसा पैसा जोड़ बैंक में,मन ही मन में तू इतराया!
    नाते रिश्ते हुए बैगाने,बेटे पोतों ने ठुकराया!
    अंतसमय उलझा क्यों मनवा,जा बैठे क्यों आज अकेले!
    संतोषी मग पकड़ बावरे,इस जीवन के बड़े झमेले!!…….(२)


    व्याकुल पंछी फिरा भटकता,दौड़ धूप में समय गँवाया!
    बँगला गाड़ी नौकर चाकर,बिरथा बातों में भरमाया!
    पल भी याद किया जो हरि को,’भावुक’ मनवा राम सुमिरले!
    संतोषी मग पकड़ बावरे,इस जीवन के बड़े झमेले!!……(३)


    ~~~भवानीसिंह राठौड़ ‘भावुक’

  • रूह की बस्ती में बसा लिया

    रूह की बस्ती में बसा लिया    

    हम तुझे  छोड़  भी नहीं पाये, अलविदा  कहकर
    दिल में तुम ही तुम हो, ख्वाबों-ख़यालों में रहकर
    इब्तिसाम  तेरी  क़यामत, रह गयी  इन आँखों  में
    भूलना   तो   चाहा   बहुत,   बेवफा   है   कहकर
    हम तुझे छोड़ भी नहीं पाये…


    ये शाम  और  ये शहर,  भाता  नहीं  अब  मुझको
    जिन्दा हूँ  यादों के सहारे,  गुज़र जाने हैं  कहकर
    इब्दिला   है   मेरी  के ,  इश्क़  कर   बैठा   तुझसे
    सँवर जायेगी  ज़िन्दगी ,  खुशी – खुशी में कहकर
    हम तुझे छोड़ भी नहीं पाये…


    तक़ाज़ा उसकी चाहतों का, मिन्नतों में करता रहा
    फासले कम न हुए उसके, दिलो दिमाग में रहकर
    रूह की  बस्ती में  बसा लिया, मकाँ ए  गुलाब को
    महकता रहे  जीवन उपवन,  काँटों बीच कहकर
    हम तुझे छोड़ भी नहीं पाये…

    जगत नरेश
    बसना (छ.ग.)

  • मिलते हैं हमसफर

    मिलते हैं हमसफर

    कैसा भी सफर हो
    साथ से कट जाता
    सुविधा से  व्यक्ति
    मंजिल तक पहुँचता ।


    अब सफर स्कूल तक
    सफर खेल मैदान का
    पनघट तक का हो
    या फिर मंदिर मस्जिद
    या उत्सव त्यौहार का
    सब हम सफर रहते
    सुख दुख साझा सहते।


    जीवन के सफर में भी
    एक हम सफर चाहिए
    सुहाना हो जाये सफर
    समय हो जाये सुखकर।


    नियम बनाये गये हैं
    समाज की व्यवस्था में
    धर्म सम्मत विधान में
    देश के लिखे संविधान में
    कुछ शर्तों कुछ नियमों में
    हमसफर  बन साथ निभाने के।


    कभी परिवार के सहयोग से
    कभी प्यार के संयोग से
    मिलते हैं हमसफर  ।


    जिन्दगी निभाने के लिए
    संग जीने संग मरने के लिए
    जन्मों का रिश्ता निभाने
    चल पड़ते हैं जीवन की राहों पर।
    पड़ते हैं पाँव कभी फूलों पर
    तो टकराते कभी काँटों से
    संभालते एक दूजे को
    जीते एक दूजे के लिए
    बसाते अपना स्वर्णिम संसार।

    लुटाते एक दूजे पर प्यार
    त्याग समर्णण विश्वास पर
    बँधी रहती प्रीति की डोर
    छोड़ते नहीं कभी इसका छोर।


    पर जब स्वार्थ अहं टकराते
    दोनों अपनी अपनी पर आते
    टूटता विश्वास, बढता अहंकार
    डगमगाने लगते  कदम
    अलग हो जाते हमसफर।


    बिखरती गृहस्थियाँ
    बिलखते बच्चे
    उजड़ जाते आशियाने
    होता रहता दोषारोपण
    सोचें समझें समझाएं
    सम्बन्धों का महत्व।


    परिवारजनों की अपेक्षाएं
    भावी पीढी का भविष्य
    निभायें निष्ठा से
    अपना पूर्ण उत्तर दायित्व
    अधिकारों का आधार कर्त्तव्य
    संबधों का आधार प्रेम
    बचायें अपनी संस्कृति
    अपने रीत रिवाज।
    सुरक्षित बच्चे व परिवार
    बने फिर सच्चे हम सफर।


    पुष्पा शर्मा “कुसुम”

  • आज मैं बोलूंगा

    आज मैं बोलूंगा

    आज मैं बोलूंगा…
    खुलकर रखूंगा अपने विचार…
    अभिव्यक्ति की आजादी जो हैं…
    सीधे सपााट, सटीक शब्द रखूंगा…
    आम जनता के मन मस्तिष्क में ..समाने वाले..
    मस्तिष्क की गहराईयोंं तक…
    उतर जायेंगे…
    मौन शब्द…
    करेंगे …प्रहार पर प्रहार… छलनी करेेंगे…
    अन्तर्आत्मा…
    नहीं कहूूंंगा अनर्गल…
    कहना भी नहीं चाहिए क्योंकि…
    अभिव्यक्ति की आजादी का मतलब…
    किसी पर कुछ भी… जबरन लादना तो नहीं है…
    नहीं भूलूंगा अपनी सीमाएं….
    करूंगा सरहद की बातें लेकिन…
    कंटीले तार…
    सरहद पर देखें हैं मैैंने….
    देखी…है सरहद की विरानियत…
    उन कंटीली झाडिय़ों मेें….उलझ कर…
    शब्दों की..
    न हो…निर्मम हत्या…
    लहूलुहान नहीं करना चाहता….
    अभिव्यक्ति की आजादी से रिश्तों को…
    थामना चाहता हूंं…
    बांधना चाहता हूँ… इंसानियत को….
    जकड़ लूंगा….
    पहना दूंंगा बंंधुत्व की भावना…
    भाईचारे को…चरने नहीं दूंगा….
    हैवानियत की घास….
    शबनम की बूंंदों की चादर बनाऊंंगा….
    अभिव्यक्ति की आजादी से…
    सरहदी बर्फ …
    सारी…
    पिघलाऊंगा….
    मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा,  चर्च…
    सभी…इस देेश का गहना हैं…
    माथे…लगाऊंगा
    हिन्दू, मुस्लिम, सिख,ईसाई….
    नहीं…
    इंसान हूँँ….
    इंसान ही कहलाऊंगा….
    अभिव्यक्ति की आजादी से… कर दूंगा…जिंंदा
    फूंक दूंंगा प्राण….
    शब्द …शब्द है आखिर….
    रेगिस्तान की भरी रेत पर भी….
    पसरने नहीं…दूंगा…
    सन्नाटा….
    मैं सफेद …कबूतरों (शांति केे प्रतीक) का पक्षधर हूँ…
    अभिव्यक्ति की आजादी…को..
    लगने नहीं दूंगा कालिख…
    मुझे
    नफरत हैंं…इस कालिख से…
    स्याह रंग…कालिख का…
    बुरा
    बहुत है…और अभिव्यक्ति की  आजादी को…
    मैंने
    संजोया है बरसों से… पल में कोई कर दे इसे तहस नहस….
    पसंद नहीं है…
    क्योंकि…
    यह आजादी नहीं है…
    यह तो होगी….
    परतंत्रता…
    केवल और केवल परतंत्रता।


    धार्विक नमन, “शौर्य’,डिब्रूगढ़, असम

  • बंद का समीकरण -रमेश कुमार सोनी

    बंद का समीकरण-रमेश कुमार सोनी

    बंद है दुकानें, कारोबार
    भारत बंद का हल्ला है
    लौट रहे हैं मज़दूर, कामगार
    अपने डेरों की ओर खाली टिफिन,झोला लिए हुए,
    बंद हैं रास्ते, अस्पताल
    शहर का सूनापन चुभ रहा है मुझे
    भूख का भेड़िया
    बियाबान खामोशी फैलाकर
    लौट गया है अपने राजाप्रासाद में ।।
    अकेले भाग रहे हैं जरूरतमंद लोग
    उग्र भीड़ के प्रकट होने से डरे हुए
    शहर हर बार ऎसे दृष्य देखता है
    झंडे, नारे ,तख्तियाँ और पुतले लिए सड़कों पर लोग ,
    टायर जलाते लोगों से डर फैला है,
    हर बार झंडे और मुद्दे चेहरों के साथ बदल जाते हैं
    इनकी नीयत सिर्फ सत्ता के इर्दगिर्द ही नाचती है ।।
    बंद हो चुका है चहल – पहल
    भीड़ के दहशत की सत्ता से
    डरा समाज घुसा है
    अपने दड़बे में शुतुरमुर्ग सा
    सीना ठोंक नहीं कह सकता है कि-
    मुझे इंकार है इस बंद से ,
    गाँव सदा से ही इसके विरोध में खुशी से इंकार के साथ जिंदा हैं ,
    इधर बंद को धता बताते हुए
    एक सूखा पत्ता सुरबद्ध रेंग गया हवा के साथ बिल्कुल निडर होकर
    परिंदे चहक रहे हैं बेधड़क ।।
    लौट गया है भूखा कुत्ता बंद टपरी से मायूस होकर ,
    कचरे भी घरों में सड़ रहे हैं
    घूरे की आबादी आज कम है
    कचरा बीनने वाले बच्चे पता नहीं आज क्या कर रहे होंगे ,
    बंद कराने से सब बंद नहीं होता साहब
    भूख,प्यास, सांसें , आवाज़ें कहाँ बंद होती हैं ?
    बंद यदि सफल हो जाए तो
    शहर श्मसान हो जाता हैऔर
    असफलता सत्ता की बांछें खिला देती है
    बंद का अर्थशास्त्र, गणित और समाजशास्त्र
    शाम ढले गलबैंहा डाले चाय पीते मिलते हैं ।।
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    रमेश कुमार सोनी , बसना , छत्तीसगढ़