जीवन के झंझावातों में श्रमिक बन जाते है
नन्ही नन्ही कोमल काया
निज स्वेद बहाते हैं।
जीवन के झंझावातों में,
श्रमिक बन जाते है।
हाथ खिलौने वाले देखो,
ईंटों को झेल रहे।
नसीब नहीं किताबें इनको
मिट्टी से खेल रहे
कठिन मेहनत करते है तब
दो रोटी पाते है।
जीवन के—–
गरीबी अशिक्षा के चलते,
जीवन दूभर होता
तपा ईंट भठ्ठे में जीवन
बचपन कुंदन होता
सपने सारे दृग जल होते
यौवन मुरझाते है।
जीवन के—–
ज्वाल भूख की धधक रही है
घर घर हाँडी खाली
भूख भूख आवाज लगाती,
उदर बना है सवाली
मजबूरी की दास्ताँ कहती
बाल श्रमिक मुस्काते हैं।
सुधा शर्मा
राजिम, छत्तीसगढ़
31-5-2019
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद