मन का मंथन
मंथन मानस का करो , जानो सत्य असत्य ।
कहाँ गुमी हैं मंजिलें , बूझ दिशा क्या गत्य ।।
बूझ दिशा क्या गत्य , लक्ष्य से कब है छूटा ।
भटका अपने मूल , स्वार्थ में किसको लूटा ।।
कह ननकी कवि तुच्छ , आत्म का कर अभिनंदन ।
निकले सब अपद्रव्य , सफल हो मानस मंथन ।।
मंथन मन का कीजिए , जागे तभी विवेक ।
है पवित्र शुचि भावना , करवाता अभिषेक ।।
करवाता अभिषेक , भरे रत्नों का सागर ।
जगमग अन्तः वेश , भले ही लगता गागर ।।
कह ननकी कवि तुच्छ , छूटता माया बन्धन ।
बनते निज का मित्र , हुआ जब मन का मंथन ।।
मंथन पर जाता नहीं , रहता बेपरवाह ।
कारण का तू कर पता , जीवन जंगल दाह ।।
जीवन जंगल दाह , जली सब तेरी खुशियाँ ।
मुरझाया यह बाग , नहीं खिल पाई कलियाँ ।।
कह ननकी कवि तुच्छ , नयन में कर गुरु अंजन ।
कोहिनूर का मूल्य , प्रगट जब होगा मंथन ।।
—- रामनाथ साहू ” ननकी “
मुरलीडीह