नानक पर कविता-अलामा मुहम्मद इकबाल
कौम ने पैग़ामे गौतम की ज़रा परवाह न की
कदर पहचानी न अपने गौहरे यक दाना की
आह ! बदकिसमत रहे आवाज़े हक से बेख़बर
ग़ाफ़िल अपने फल की शीरीनी से होता है शजर
आशकार उसने कीया जो ज़िन्दगी का राज़ था
हिन्द को लेकिन ख़याली फ़लसफ़े पर नाज़ था
शमएं-हक से जो मुनव्वर हो ये वो महफ़िल न थी
बारिशे रहमत हूयी लेकिन ज़मीं काबिल न थी
आह ! शूदर के लीए हिन्दुसतान ग़म ख़ाना है
दरदे इनसानी से इस बसती का दिल बेगाना है
ब्रहमन शरशार है अब तक मये पिन्दार में
शमएं गौतम जल रही है महफ़िले अग़यार में
बुतकदा फिर बाद मुद्दत के रौशन हूआ
नूरे इबराहीम से आज़र का घर रौशन हूआ
फिर उठी आख़िर सदा तौहीद की पंजाब से
हिन्द को इक मरदे कामिल ने जगाया ख़ाब से