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  • दूध पर कविता

    मेरे स्कूल का दूध (एक घटना)

    दुःख ही जीवन की कथा रही
    यह सदा कष्ट की व्यथा रही।

    कब तक कोई लड़ सकता है!
    कब तक कष्टें सह सकता है
    हो सहनशक्ति जब पीर परे
    है कौन धीर धर सकता है?

    मन डोल उठा यह देख दृश्य
    उस बच्ची का जीवन भविष्य
    जो आयी थी कुछ बनने को
    नन्हीं प्यारी नासमझ शिष्य।

    सब बच्चें पीते दूध लिए
    जो बांट उन्हें थे दिए गए
    तन मन करुणा से कांप उठा
    मानो हिय पर बज्रपात हुए।

    वह बच्ची तनिक न दूध पिया
    इक बोतल में रख उसे लिया
    मैं देख- देख कर सोच रहा
    यह करती क्या फिर पूछ लिया।

    प्यारी बिटिया पी जाओ इसे
    हो रखती किन आशाओं से
    सुन उत्तर अचल शरीर हुआ
    नन्हीं बच्ची की भावों से।

    थी चौंक पड़ी मन की भोली
    वह दबी दबी स्वर में बोली
    ले जाऊंगी घर पे अपने
    बहना खातिर जो अनबोली।

    मां ने मुझको समझायी थी
    यह बात मुझे बतलायी थी
    बिन दूध पिए बहना तेरी
    वह बहुत बहुत अकुलायी थी।

    जब दूध बंटे विद्यालय में
    ले अना खुद तुम आलय में
    पी दूध क्षुधा मिटजायेगी
    अब दूध कहां देवालय में।

    तू है कैसा सच्चा ईश्वर
    तू दूध नहाता है दिन भर
    क्या दिखता है ना दीन दशा?
    क्यों खोते ये जीवन मर मर?

    रचनाकार -रामबृक्ष बहादुरपुरी अम्बेडकरनगर यू पी

  • ग़ज़ल -विनोद सिल्ला

    ग़ज़ल -विनोद सिल्ला

    kavita-bahar-hindi-kavita-sangrah

    कैसी-कैसी हसरत पाले बैठे हैं।
    गिद्ध नजर जो हम पर डाले बैठे हैं।।

    इधर कमाने वाले खप-खप मरते हैं,
    पैसे वाले देखो ठाले बैठे हैं।।

    खून-पसीना खूब बहाते देखे जो,
    उनसे देखो छीन निवाले बैठे हैं।।

    नफरत करने वाले दोनों और रहे,
    कुछ मस्जिद तो बाकि शिवाले बैठे हैं।।

    खेत कमाते मिट्टी में मिट्टी होकर,
    सेठ बही में कर्ज निकाले बैठे हैं।।

    राशन रहता खत्म हमेशा ही इनका,
    घर में भोजन खाने वाले बैठे हैं।।

    पैसे का ही खेल तमाशा है जग में,
    बिन पैसे सब आंख दिवाले बैठे हैं।।

    सिल्ला मरना इतना भी आसान नहीं,
    जितना जीवन को संभाले बैठे हैं।।

    -विनोद सिल्ला

  • वसंत ऋतु पर छोटी सी कविता (short poem on spring)

    वसंत भारतीय वसंत को दर्शाता है, और ऋतु का मौसम है। वसंत ऋतु के मुख्य त्योहारों में से एक वसंत पंचमी (संस्कृत: वसन्त पञ्चमी) को मनाया जाता है, जो भारतीय समाज में एक सांस्कृतिक और धार्मिक त्योहार है, जिसे वसंत के पहले दिन, हिंदू महीने के पांचवें दिन (पंचमी) को मनाया जाता है। माघ (जनवरी-फरवरी)। बसंत ऋतू के दौरान भारतीय कैलेंडर में नए साल की शुरुआत चैत्र महीने से होती है। इसी पर आधारित है यह वसंत ऋतु पर छोटी सी कविता

    वसंत ऋतु पर छोटी सी कविता

    वसंत ऋतु पर छोटी सी कविता

    बसंत के मौसम पर कविता – उपमेंद्र सक्सेना

    कोयल की मीठी बोली में,ऐसा भाव समाता है
    अब बसंत का मौसम मन में, नयी उमंगें लाता है।

    बौर आम के पेड़ों पर है,जिसकी मधुर गंध बिखरी
    सरसों पर पीले फूलों से,इतनी सुंदरता निखरी
    आज हरी साड़ी पर जिसने,ओढ़ी है पीली चादर
    ऐसी धरती पर पाते हैं,कामदेव-रति अब आदर

    भौंरा तो मकरंद यहाँ पी,मस्ती में भर जाता है
    अब बसंत का मौसम मन में, नयी उमंगें लाता है।

    वृक्ष, लताओं, पौधों पर हैं,तरह-तरह के फूल खिले
    मँडराती तितलियाँ वहाँ पर,नर- नारी भी हिले-मिले
    मधुमक्खी भी फूलों से अब,जी भर रस को पाती हैं
    इसीलिए इस मौसम में वे,मधु भी खूब बनाती हैं

    चिड़ियों का चूँ- चूँ करना भी, सबको इतना भाता है
    अब बसंत का मौसम मन में, नयी उमंगें लाता है।

    विद्या की देवी का पूजन,जो बसंत में करते हैं
    उनकी बुद्धि ठीक रहती है,बिगड़े काम सँवरते हैं
    सुस्ती और उदासी अब तो,नहीं कहीं भी दिखती है
    आज लेखनी अनायास ही,गौरव- गाथा लिखती है

    पीले कपड़े पहन यहाँ पर,कोई रास रचाता है
    अब बसंत का मौसम मन में, नयी उमंगें लाता है।

    आज रबी की फसल देखकर, सब किसान हैं झूम रहे
    जीवन में रस जिनके भरता,वे किस्मत को चूम रहे
    घर- घर में उत्सव है होता,आज सुहाना पवन चला
    सूरज भी कुछ गर्मी देता,लगता सब के लिए भला

    मधुरिम सपनों को लेकर जो, आज यहाँ पर आता है
    अब बसंत का मौसम मन में, नयी उमंगें लाता है।

    रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एड०
    कुमुद- निवास’
    बरेली, (उ० प्र०)

  • महाशिवरात्रि पर कविता – उपमेंद्र सक्सेना



    महाशिवरात्रि पर कविता – उपमेंद्र सक्सेना

    बने आप भोले जहर पी लिया सब, लगें आप हमको सब से ही न्यारे
    निवेदन करें हम महादेव प्यारे, न डूबें कभी भी हमारे सितारे।

    बजे हर तरफ आपका खूब डंका, न होती किसी को कहीं आज शंका
    भवानी की चाहत हो क्यों न पूरी, बनी थी तभी तो सोने की लंका
    मिली दक्षिणा में जिसे एक दिन वह, नहीं फिर रही थी उसी के सहारे
    निवेदन करें हम महादेव प्यारे,न डूबें कभी भी हमारे सितारे।

    रखें सोम के दिन यहाँ लोग व्रत जब, भला कोई तेरस वे क्यों भुलाएँ
    करें आपका जाप जो लोग हर दिन, सदा आप उनको सुखों में झुलाएँ
    सदा पूजते सुर- असुर आपको सब, बनें आपकी वे आँखों के तारे
    निवेदन करें हम महादेव प्यारे, न डूबें कभी भी हमारे सितारे।

    सदा से रही आस्था आप पर ही, बहाते रहें प्यार से खूब गंगा
    मिले सज्जनों को न अब कष्ट कोई, रहे मन सभी का यहाँ आज चंगा
    रहे आपकी ही कृपा- दृष्टि हम पर, लगेगी तभी नाव अपनी किनारे
    निवेदन करें हम महादेव प्यारे, न डूबें कभी भी हमारे सितारे।

    गमों से हमें दूर रखना सदा ही, न बीमारियाँ भी हमें अब सताएँ
    जलें आज हमसे रखें बैर जो भी, कभी भूल से भी नहीं पास आएँ
    मिले चैन की नींद हमको यहाँ पर, न धन की कमी हो बनें काम सारे
    निवेदन करें हम महादेव प्यारे, न डूबें कभी भी हमारे सितारे।

    रचनाकार- ✍️उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट

  • कबाड़ पर कविता -उपमेंद्र सक्सेना

    कबाड़ पर कविता -उपमेंद्र सक्सेना

    kavita-bahar-hindi-kavita-sangrah

    सब हुआ कबाड़ था,भाग्य में पछाड़ था
    रास्ता उजाड़ था, सामने पहाड़ था।

    छल- कपट हुआ यहाँ, सो गए सभी सपन
    कर दिया गया दहन, मिल सका नहीं कफ़न
    पास के बबूल ने ,दी जिसे बहुत चुभन
    बेबसी दिखा रही, है यहाँ विचित्र फन
    स्वार्थ के कगार पर, त्याग जब गया मचल
    लोभ- लालसा बढ़ी, लोग भी गए बदल
    क्रोध में रहा न बल, भाव बस गए उबल
    साथ जो रहे कभी, गैर बन करें दखल
    हो रहा बहुत कहर, नीतियाँ बनीं जहर
    प्रेरणा गई ठहर, रुक गई नई लहर
    चुप हुए सभी पहर, सूखने लगी नहर
    रात भी उठी सिहर, हो सकी नहीं सहर

    खाट के नसीब में, अब नहीं निबाड़ था
    जेल के कपाट पर, लिख दिया तिहाड़ था।
    सब हुआ कबाड़….

    लग रही बहुत थकन, न्याय का हुआ दमन
    और बढ़ गई घुटन, जो नहीं हुई दफ़न
    सुख हुए सभी हिरन ,टीस की बढ़ी तपन
    जल उठा यहाँ चमन, किस तरह बने अमन
    भाग्य के विधान में, जब विडंबना बदी
    वक्त के पड़ाव पर, फिर सिसक उठी सदी
    डाल भाव की झुकी, वेदना जहाँ लदी
    हो रहा नहीं उचित, आँख से बही नदी
    आश की किरण ढले, जो हमें बहुत खले
    लाभ जो उठा गए, तिकड़मी बने भले
    वे कुटिल हुए यहाँ, काटते मिले गले
    योग्यता हुई विवश,हाथ आज वह मले

    जो लताड़ से जुड़ा, काम का न लाड़ था
    सत्य का हुआ यहाँ, खूब चीड़-फाड़ था।
    सब हुआ कबाड़…..

    रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट