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  • शुभ दीवाली आई है- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    शुभ दीवाली आई है- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    दीप जगमगा रहे
    रोशनी है बिखरा रहे

    कि तुम भी रोशन हो चलो
    कि ज्ञान दीप तुम बनो
    रोशन करो तुम आसमान
    रोशन करो तुम ये ज़मीं

    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    कि दीप मुस्करा रहे
    स्याह रात रोशन कर रहे
    कि तुम भी कर्म पथ बढ़ो
    अज्ञान से हर पल लड़ो
    कि दीप दीप जिंदगी
    रोशन करो रोशन करो

    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    कि राह तुम निर्मित करो
    कि अविचल तुम बढे चलो
    कि पग पग हो रोशनी
    बेखौफ़ तुम डटे रहो

    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    कि मंद मंद रोशनी
    बिखेरते आगे बढ़ो
    कि आसमान को चूम लो
    ये प्राण हर पल तुम करो
    कि शुभ दीवाली आई है

    खुशियाँ हज़ार लाई है
    समाज में पीड़ित हैं जो
    भूख में भी जीवित हैं जो
    उनको भी साथ ले बढ़ो
    जीवन को उनके रोशन करो
    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है

  • धरती माँ- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    धरती माँ- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    धरती माँ तुम पावन थीं
    धरती माँ तुम निश्चल थीं
    रूप रंग था सुंदर पावन
    नदियाँ झरने बहते थे कल- कल
    मोहक पावन यौवन था तेरा
    मंदाकिनी पावन थी सखी तुम्हारी
    बहती थी निर्मल मलहारी

    इन्द्रपुरी सा बसता था जीवन
    राकेश ज्योत्सना बरसाता था
    रूप तेरा लगता था पावन
    रत्नाकर था तिलक तुम्हारा
    मेघ बने स्नान तुम्हारा

    पंछी पशु सभी मस्त थे
    पाकर तेरा निर्मल आँचल
    राम कृष्ण बने साक्ष्य तुम्हारे
    पैर पड़े थे जिनके तुझ पर न्यारे
    चहुँ और जीवन – जीवन था
    मानव – मानव सा जीता था

    कोमल स्पर्श से तुमने पाला
    मानिंद स्वर्ग थी छवि तुम्हारी
    आज धरा क्यों डोल रही है
    अस्तित्व को अपने तोल रही है
    पावन गंगा रही ना पावन
    धरती रूप न रहा सुहावन
    अम्बर ओले बरसाता है
    सागर भी सुनामी लाता है

    नदियों में अब रहा ना जीवन
    पुष्कर अस्तित्व को रोते हर – क्षण
    मानव है मानवता खोता
    संस्कार दूर अन्धकार में सोता
    संस्कृति अब राह भटकती
    देवालयों में अब कुकर्म होता
    चाल धरा की बदल रही है
    अस्तित्व को अपने लड़ रही है

    आओ हम मिल प्रण करें अब
    मातु धरा को पुण्य बनाएँ
    इस पर नवजीवन बिखराएँ
    प्रदूषण से करें रक्षा इसकी
    इस पर पावन दीप जलायें

    हरियाली बने इसका गहना
    पावन हो जाए कोना – कोना
    ना रहे बाद ना कोई सुनामी
    धरती माँ की हो अमर कहानी
    धरती माँ की हो अमर कहानी

  • वाणी और भाषा का प्रयोग – प्रिया शर्मा

    वाणी और भाषा का प्रयोग

    वाणी ऐसी बोलिये मन का आपा खोय ,

    औरन को शीतल करे आपहु शीतल होय।

    भाषा ऐसी राखिये जो प्रेम भाव से सोएं ,

    औरन को सुख दे के प्रीत घनेरी होय ।।

    भाषा को तोडें नहीं, न मोडें ओर से छोर,

    भाषा सरल बनाइये, चर्चा हो चहुँ ओर।

    सबका मन चुराई ले, वाणी है ही ऐसी चोर,

    वाणी नाही संभाली तो हो जाए द्वन्द घनघोर।।

    भाषा का प्रयोग करले सोच समझकर यार,

    सभ्य वाणी के प्रयोग से मिल जाये सबका प्यार।

    अभद्र भाषा बोल के, मच जाए जग में शोर ,

    वाणी के सुखद प्रयोग से नाचे मन का मोर ।।

    भाषा बहुत या दुनिया में कछु नैनन की कछु मन की,

    वाणी के दो ही भाव हैं कभी उपवन सी कभी बाणन सी।

    नैनन की भाषा तो होवे , पुलकित मन के भाव सी,

    बाणन सी वाणी करे, उर में गहरे घाव जी ।।

    भाषा को वाणी संग तोल मोलकर बोल,

    सब भूलें वर्षों की प्रीत को, जो बोले कटुता के बोल।

    भाषा और वाणी को मीठे रस में घोल ,

    पहुँचे सबके हृदय तक, बोलो वचन अनमोल।।

    मातृभाषा का हम गान करें,

    वाणी का कुछ ध्यान धरें ।

    उचित शब्दों का प्रयोग कर,

    जग में हिंदी का सम्मान करें ।।
    – प्रिया शर्मा

  • आओ मिल प्रण करें हम- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    आओ मिल प्रण करें हम- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    आओ मिल प्रण करें हम
    नवजीवन मस्तक धरें हम

    करें पुष्पित संस्कृति
    करें मुखरित संस्कार
    आओ मिल प्रण करें हम

    कर्म से हम धनी हों
    भाग्य निर्माण करें हम
    आँधियों से न दरें हम
    नव आदर्श निर्मित करें हम

    आओ मिल प्रण करें हम
    कलह से हों परे हम
    कर्मशील धर्मशील बनाएँ हम
    स्वतन्त्र मौलिक विचार धरें हम

    सदाचारी सत्संग वरें हम
    आओ मिल प्रण करें हम
    सर्वोत्तम कृति बनें हम

    पुण्यशील आत्मा कहैं सब
    सत्कीर्ति सत्यनिष्ठा मार्ग हो
    कार्यसाधक स्वाभिमानी बनें हम
    आओ मिल प्रण करें हम

    सूरजमुखी सा दमकैं हर पल
    सूर्य सा चमकें हर क्षण
    सुव्यवहार सुशील सुशिक्षित
    अनमोल जीवन बनें हम

    आओ मिल प्रण करें हम
    आओ मिल प्रण करें हम
    आओ मिल प्रण करें हम

  • अनैतिकता के पाताल के गर्त में- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    अनैतिकता के पाताल के गर्त में- कविता

    अनैतिकता के पाताल के गर्त में
    विचरते हम मानव प्राण
    जीवित तो इस एहसास में
    कि एक तन को ढोते
    जो निष्प्राण विचरण कर रहा
    इस धरा पर

    मूल्यों की सूझती नहीं
    राह हमको
    जीव – जंतुओं की
    श्रेणी में
    ला खड़ा किया जिसने

    अतिमहत्वाकांक्षा के मकड जाल में उलझे
    नैतिकता व मानव मूल्यों के
    महत्ता को समझने के
    एहसास का दंभ भरते

    दो गज ज़मीन भी
    न छूट जाए कहीं
    इस प्रण के साथ
    अतिसम्प्दायुक्त
    जीवन जीने का
    छल साथ लिए

    दौड़ते – भागते
    उस अंतहीन दिशा की ओर

    जो लक्ष्य के भटकाव का
    परिणाम लिए हमारे समक्ष
    दृष्टिगोचर हो जाती है

    संस्कृति, संस्कारों परम्पराओं
    से कोसों दूर
    विचरने का दुःख हमें सालता है

    फिर भी मुझे द्रुतगति से
    अग्रसर होना है
    उस सुख की ओर
    उस विलासतापूर्ण जीवन की ओर

    जो वर्तमान में
    असीम सुख का आभास देता है
    वर्तमान में जीता यह प्राणी
    भविष्य के गर्त में होने वाले
    सत्य से अनभिज्ञ सा

    मूल्यों की खोज से परे
    आने वाली पीढ़ी के लिए
    अरंडी के बीज बोता

    यह मानव
    इस आशा व उम्मीद से
    कि शायद
    इस बीज से
    वह आम या अनार का स्वाद
    प्राप्त कर सकेगा

    स्थितियां भयावह
    निर्मित कर दी गई हैं
    आधुनिकता के चहेतों को
    क्रोस ब्रीडिंग पर

    कुछ ज्यादा ही विश्वास
    आने वाली सभ्यता को
    नासूर की
    तरह चुभने वाली
    कुसंस्कृति
    कुसंस्कारोंसे सिंचित आधुनिक पीढ़ी
    सौंपने की तैयारी
    हो गई है

    कचरों के ढेर पर
    फिकता कुँवारी माओं का प्यार
    दूसरों की गोद का
    अपने स्वार्थ के लिए
    हो रहा इस्तेमाल

    बिक रहे चरित्र
    गली दुकानों पर
    चीरहरण पर आँखें
    मूँद लेना
    किसी गिरते को
    संभालने का माद्दा
    न होना

    राष्ट्रप्रेम के प्रति मन में
    लचीलापन
    ये सब काफी है
    मानव के अनैतिकता
    के पाताल के गर्त में
    विचरने के लिए

    कोई सुबह ऐसी बना दो
    कोई रात मोतियों सी जगमगा दो
    कोई अवतार इस धरा पर ला दो
    तारे आसमान के इस धरा पर खिला दो
    कोई तो राष्ट्रप्रेम की ज्योति जला दो
    कोई तो भाईचारा फैला दो

    कोई तो मानव मूल्यों के गीत गा दो
    कोई तो मानव को मानव बना दो
    कोई तो हमको राह दिखा दो
    कोई तो हमको राह दिखा दो
    कोई तो हमको राह दिखा दो