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  • गणपति वंदना , प्रिया शर्मा

    गणेश
    गणपति

    गणपति वंदना

    हे गौरीसुत ओ गणपति,

    सबको अब दे दो सुमति।

    हे शंकरसुवन हे गणराज,

    घर-घर कराओ मंगल काज।।

    हे लम्बोदर ओ महाकाय,

    दूर करो गर संकट आये।

    हे विनायक हे गजानन,

    प्रेम बरसे हर घर आँगन।।

    हे गौरी नंदन चार भुजाधारी,

    रहे आसन्न सदा मूषक की सवारी।

    हे बुद्धि विधाता हे शिवनंदन,

    प्रथम पूज्य बने, कर मात-पितु वंदन।।

    हे गणेश ओ विघ्न विनाशक,

    विघ्न हरो, हों हर्षित लोचन।

    हे मंगलमूर्ति हे बुद्धि राज,

    पाप हरो सबके महाराज।।

    गज का रूप धरे सलोना,

    पुलकित करे हर मन का कोना।

    लम्बोदर है अति लुभावना,

    पूर्ण करें हर मनोकामना।।

    -प्रिया शर्मा

  • बारिश में माँ- प्रिया शर्मा

    बारिश में माँ- प्रिया शर्मा

    बारिश में माँ

    बारिश में माँ- प्रिया शर्मा

    बारिश जब-जब तुम आती हो,
    माँ को बहुत लुभाती हो,
    सूरज चाचा साथ में जब हों,
    इन्द्रधनुष के रंग बिखराती हो।

    बारिश का आना और उसमें नहाना,
    मम्मी का डाँटना और शोर मचाना,
    घर के अन्दर घसीट कर ले जाना,
    सिर पौंछते हुये कहना–
    बन्द करो अब मुझे सताना।

    बारिश का सुबह-सवेरे आना,
    स्कूल की छुट्टी का बहाना मिल जाना,
    बारिश में खेलना और मस्ती मारना,
    थक कर माँ के आँचल में सिमट जाना।

    घर के लोगों का अन्दर-बाहर होना,
    मम्मी का चिल्लाना–
    गन्दे पैर अन्दर मत लाना,
    पापा का ऑफिस से आना
    और कहना–
    गरमागरम पकौड़े हों और
    मीठी चाय बना लाना।

    घर के कामों से
    एक दिन फ़ुर्सत पाकर,
    माँ ने सोचा आज घूमकर आते हैं,
    कैसा पानी फिरा उम्मीदों पर माँ की,
    जब बारिश के साथ बादल
    घुमड़-घुमड़ छा जाते हैं!

    -प्रिया शर्मा

  • मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ – कविता – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

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    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    मैं एक अदद इंसान हूँ

    दुआओं का समन्दर रोशन करता है जो

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    सिसकती साँसों के साथ जी रहे हैं जो

    उनके लिए इंसानियत का वरदान हूँ

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    रोशन न हो सका जिसकी कोशिशों का आसमां

    उनके लिए उम्मीद और आशा का आसमान हूँ

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    भाई को भाई से जुदा करते हैं जो

    उनके रिश्तों में मिठास भरने का एक पैगाम हूँ

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    चिंता की लकीरों को मिटाने का जज़्बा लिए जी रहा हूँ

    चेहरों पर आशाओं की एक मुस्कान हूँ

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    क्यूं कर दफ़न हो जाए मेरे सपने

    कोशिशों का एक समंदर हूँ ,तूफां में पतवार हूँ

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    क्यूं कर डूब जाए मेरी कश्ती बीच मझधार

    दौरे – तूफां में भी , मैं मंजिल हूँ किनारा हूँ

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    मैं एक अदद इंसान हूँ

    दुआओं का समन्दर रोशन करता है जो

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

    मैं न हिन्दू हूँ , न मुसलमान हूँ

    सिसकती साँसों के साथ जी रहे हैं जो

    उनके लिए इंसानियत का वरदान हूँ

    मैं वो एक अदद इंसान हूँ

  • बहुत भटक लिया हूँ मैं – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    बहुत भटक लिया हूँ मैं

    बहुत भटक लिया हूँ मैं

    बहुत बहक लिया हूँ मैं

    बहुत कर ली है मस्ती

    बहुत चहक लिया हूँ मैं

    बहुत कर ली शरारतें मैंने

    बहुत बिगड़ लिया हूँ मैं

    अब मुझे विश्राम चाहिए

    कुछ देर आराम चाहिए

    इस उलझनों से

    इन बेपरवाह नादानियों से

    एक दिशा देनी होगी

    अपने जीवन को

    कहीं तो देना होगा

    ठहराव इस जिन्दगी को

    कब तक यूं ही भटकता रहूँगा

    कब तक यूं ही बहकता रहूँगा

    सोचता हूँ

    चंद कदम बढ़ चलूँ

    आध्यात्म की राह पर

    मोक्ष की आस में नहीं

    एक सार्थक

    एक अर्थपूर्ण

    जीवन की ओर

    जहां मैं और केवल वो

    जो है सर्वशक्तिमान

    शायद मुझे

    अपनी पनाह में ले ले

    तो चलता हूँ उस दिशा की ओर

    और आप …………………….

  • मेरी कलम से पूछो – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    मेरी कलम से पूछो

    मेरी कलम से पूछो

    कितने दर्द समाये हुए है

    मेरी कलम से पूछो

    आंसुओं में नहाये हुए है

    जब भी दर्द का समंदर देखती है

    रो पड़ती है

    सिसकती साँसों से होता है जब इसका परिचय

    सिसक उठती है

    ऋषिगंगा की बाढ़ की लहरों में तड़पती जिंदगियां देख

    रुदन से भर उठती है

    मेरी कलम से पूछो

    कितनी अकाल मृत्युओं का दर्द समाये हुए है

    वो कली से फूल में बदल भी न पाई थी

    रौंद दी गयी

    मेरी कलम से पूछो

    उसकी चीखों के समंदर में डूबी हुई है

    मेरी कलम से पूछो

    कितने दर्द समाये हुए है

    मेरी कलम से पूछो

    आंसुओं में नहाये हुए है

    जब भी दर्द का समंदर देखती है

    रो पड़ती है

    सिसकती साँसों से होता है जब इसका परिचय

    सिसक उठती है