आज की रात बड़ी शोख़ बड़ी नटखट है
आज की रात बड़ी शोख़ बड़ी नटखट है
आज तो तेरे बिना नींद नहीं आएगी
आज तो तेरे ही आने का यहाँ मौसम है
आज तबियत न ख़यालों से बहल पाएगी।
देख! वह छत पै उतर आई है सावन की घटा
खेल खिलाड़ी से रही आँख मिचौनी बिजली
दर पै हाथों में लिए बाँसुरी बैठी है बाहर
और गाती है कहीं कोई कुयलिया कजली।
पीऊ पपीहे की, यह पुरवाई, यह बादल की गरज
ऐसे नस-नस में तेरी चाह जगा जाती है
जैसे पिंजरे में छटपटाते हुए पंछी को
अपनी आज़ाद उड़ानों की याद आती है।
जगमगाते हुए जुगनू—यह दिए आवारा
इस तरह रोते हुए नीम पै जल उठते हैं
जैसे बरसों से बुझी सूनी पड़ी आँखों में
ढीठ बचपन के कभी स्वप्न मचल उठते हैं।
और रिमझिम ये गुनहगार, यह पानी की फुहार
यूँ किए देती है गुमराह, वियोगी मन को
ज्यूँ किसी फूल की गोदी में पड़ी ओस की बूँद
जूठा कर देती है भौंरों के झुके चुंबन को।
पार ज़माना के सिसकती हुई विरहा की लहर
चीरती आती है जो धार की गहराई को
ऐसा लगता है महकती हुई साँसों ने तेरी
छू दिया है किसी सोई हुई शहनाई को।
और दीवानी-सी चंपा की नशीली ख़ुशबू
आ रही है जो छन-छन के घनी डालों से
जान पड़ता है किसी ढीठ झकोरे से लिपट
खेल आई है तेरे उलझे हुए बालों से!
अब तो आजा ओ कंबल—पात चरन, चंद्र बदन
साँस हर मेरी अकेली है, दुकेली कर दे
सूने सपनों के गले डाल दे गोरी बाँहें
सर्द माथे पै ज़रा गर्म हथेली धर दे!
पर ठहर वे जो वहाँ लेटे हैं फ़ुटपाथों पर
सर पै पानी की हरेक बूँद को लेने के लिए
उगते सूरज की नई आरती करने के लिए
और लेखों को नई सुर्ख़ियाँ देने के लिए।
और वह, झोपड़ी छत जिसकी स्वयं है आकाश
पास जिसके कि ख़ुशी आते शर्म खाती है
गीले आँचल ही सुखाते जहाँ ढलती है धूप
छाते छप्पर ही जहाँ ज़िंदगी सो जाती है।
पहले इन सबके लिए एक इमारत गढ़ लूँ
फिर तेरी साँवली अलकों के सपन देखूँगा
पहले हर दीप के सर पर कोई साया कर दूँ
फिर तेरे भाल पे चंदा की किरण देखूँगा।
– गोपालदास नीरज