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  • आज की रात बड़ी शोख़ बड़ी नटखट है / गोपालदास नीरज

    आज की रात बड़ी शोख़ बड़ी नटखट है

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    आज की रात बड़ी शोख़ बड़ी नटखट है

    आज तो तेरे बिना नींद नहीं आएगी

    आज तो तेरे ही आने का यहाँ मौसम है

    आज तबियत न ख़यालों से बहल पाएगी।

    देख! वह छत पै उतर आई है सावन की घटा

    खेल खिलाड़ी से रही आँख मिचौनी बिजली

    दर पै हाथों में लिए बाँसुरी बैठी है बाहर

    और गाती है कहीं कोई कुयलिया कजली।

    पीऊ पपीहे की, यह पुरवाई, यह बादल की गरज

    ऐसे नस-नस में तेरी चाह जगा जाती है

    जैसे पिंजरे में छटपटाते हुए पंछी को

    अपनी आज़ाद उड़ानों की याद आती है।

    जगमगाते हुए जुगनू—यह दिए आवारा

    इस तरह रोते हुए नीम पै जल उठते हैं

    जैसे बरसों से बुझी सूनी पड़ी आँखों में

    ढीठ बचपन के कभी स्वप्न मचल उठते हैं।

    और रिमझिम ये गुनहगार, यह पानी की फुहार

    यूँ किए देती है गुमराह, वियोगी मन को

    ज्यूँ किसी फूल की गोदी में पड़ी ओस की बूँद

    जूठा कर देती है भौंरों के झुके चुंबन को।

    पार ज़माना के सिसकती हुई विरहा की लहर

    चीरती आती है जो धार की गहराई को

    ऐसा लगता है महकती हुई साँसों ने तेरी

    छू दिया है किसी सोई हुई शहनाई को।

    और दीवानी-सी चंपा की नशीली ख़ुशबू

    आ रही है जो छन-छन के घनी डालों से

    जान पड़ता है किसी ढीठ झकोरे से लिपट

    खेल आई है तेरे उलझे हुए बालों से!

    अब तो आजा ओ कंबल—पात चरन, चंद्र बदन

    साँस हर मेरी अकेली है, दुकेली कर दे

    सूने सपनों के गले डाल दे गोरी बाँहें

    सर्द माथे पै ज़रा गर्म हथेली धर दे!

    पर ठहर वे जो वहाँ लेटे हैं फ़ुटपाथों पर

    सर पै पानी की हरेक बूँद को लेने के लिए

    उगते सूरज की नई आरती करने के लिए

    और लेखों को नई सुर्ख़ियाँ देने के लिए।

    और वह, झोपड़ी छत जिसकी स्वयं है आकाश

    पास जिसके कि ख़ुशी आते शर्म खाती है

    गीले आँचल ही सुखाते जहाँ ढलती है धूप

    छाते छप्पर ही जहाँ ज़िंदगी सो जाती है।

    पहले इन सबके लिए एक इमारत गढ़ लूँ

    फिर तेरी साँवली अलकों के सपन देखूँगा

    पहले हर दीप के सर पर कोई साया कर दूँ

    फिर तेरे भाल पे चंदा की किरण देखूँगा।

    – गोपालदास नीरज

  • जो कहा नही गया / अज्ञेय

    जो कहा नही गया / अज्ञेय

    है,अभी कुछ जो कहा नहीं गया ।

    उठी एक किरण, धायी, क्षितिज को नाप गई,
    सुख की स्मिति कसक भरी,निर्धन की नैन-कोरों में काँप गई,
    बच्चे ने किलक भरी, माँ की वह नस-नस में व्याप गई।
    अधूरी हो पर सहज थी अनुभूति :
    मेरी लाज मुझे साज बन ढाँप गई-
    फिर मुझ बेसबरे से रहा नहीं गया।
    पर कुछ और रहा जो कहा नहीं गया।

    निर्विकार मरु तक को सींचा है
    तो क्या? नदी-नाले ताल-कुएँ से पानी उलीचा है
    तो क्या ? उड़ा हूँ, दौड़ा हूँ, तेरा हूँ, पारंगत हूँ,
    इसी अहंकार के मारे
    अन्धकार में सागर के किनारे ठिठक गया : नत हूँ
    उस विशाल में मुझसे बहा नहीं गया ।
    इसलिए जो और रहा, वह कहा नहीं गया ।

    शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं
    पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
    शायद केवल इतना ही : जो दर्द है
    वह बड़ा है, मुझसे ही सहा नहीं गया।
    तभी तो, जो अभी और रहा, वह कहा नहीं गया ।

    (रचनाकाल / स्थल : दिल्ली, अक्टूबर, २७ , ५३)

  • मैंने आहुति बन कर देखा / अज्ञेय

    मैंने आहुति बन कर देखा / अज्ञेय

    मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने,
    मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ?
    काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है,
    मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?

    मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ?
    मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ?
    मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ?
    या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?

    पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ?
    नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ?
    मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने-
    फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !

    अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है-
    क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ?
    वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है-
    वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है

    मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया-
    मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है !
    मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ
    कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ

    मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने
    इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने !
    भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने-
    तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

    बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937

  • उधार / अज्ञेय

    उधार / अज्ञेय

    सवेरे उठा तो धूप खिल कर छा गई थी
    और एक चिड़िया अभी-अभी गा गई थी।

    मैनें धूप से कहा: मुझे थोड़ी गरमाई दोगी उधार
    चिड़िया से कहा: थोड़ी मिठास उधार दोगी?
    मैनें घास की पत्ती से पूछा: तनिक हरियाली दोगी—
    तिनके की नोक-भर?
    शंखपुष्पी से पूछा: उजास दोगी—
    किरण की ओक-भर?
    मैने हवा से मांगा: थोड़ा खुलापन—बस एक प्रश्वास,
    लहर से: एक रोम की सिहरन-भर उल्लास।
    मैने आकाश से मांगी
    आँख की झपकी-भर असीमता—उधार।

    सब से उधार मांगा, सब ने दिया ।
    यों मैं जिया और जीता हूँ
    क्योंकि यही सब तो है जीवन—
    गरमाई, मिठास, हरियाली, उजाला,
    गन्धवाही मुक्त खुलापन,
    लोच, उल्लास, लहरिल प्रवाह,
    और बोध भव्य निर्व्यास निस्सीम का:
    ये सब उधार पाये हुए द्रव्य।

    रात के अकेले अन्धकार में
    सामने से जागा जिस में
    एक अनदेखे अरूप ने पुकार कर
    मुझ से पूछा था: “क्यों जी,
    तुम्हारे इस जीवन के
    इतने विविध अनुभव हैं
    इतने तुम धनी हो,
    तो मुझे थोड़ा प्यार दोगे—उधार—जिसे मैं
    सौ-गुने सूद के साथ लौटाऊँगा—
    और वह भी सौ-सौ बार गिन के—
    जब-जब मैं आऊँगा?”
    मैने कहा: प्यार? उधार?
    स्वर अचकचाया था, क्योंकि मेरे
    अनुभव से परे था ऐसा व्यवहार ।
    उस अनदेखे अरूप ने कहा: “हाँ,
    क्योंकि ये ही सब चीज़ें तो प्यार हैं—
    यह अकेलापन, यह अकुलाहट,
    यह असमंजस, अचकचाहट,
    आर्त अनुभव,
    यह खोज, यह द्वैत, यह असहाय
    विरह व्यथा,
    यह अन्धकार में जाग कर सहसा पहचानना
    कि जो मेरा है वही ममेतर है
    यह सब तुम्हारे पास है
    तो थोड़ा मुझे दे दो—उधार—इस एक बार—
    मुझे जो चरम आवश्यकता है।

    उस ने यह कहा,
    पर रात के घुप अंधेरे में
    मैं सहमा हुआ चुप रहा; अभी तक मौन हूँ:
    अनदेखे अरूप को
    उधार देते मैं डरता हूँ:
    क्या जाने
    यह याचक कौन है?

  • नंदा देवी / अज्ञेय

    नंदा देवी / अज्ञेय

    नंदा,
    बीस-तीस-पचास वर्षों में
    तुम्हारी वनराजियों की लुगदी बनाकर
    हम उस पर
    अखबार छाप चुके होंगे
    तुम्हारे सन्नाटे को चीर रहे होंगे
    हमारे धुँधुआते शक्तिमान ट्रक,
    तुम्हारे झरने-सोते सूख चुके होंगे
    और तुम्हारी नदियाँ
    ला सकेंगी केवल शस्य-भक्षी बाढ़ें
    या आँतों को उमेठने वाली बीमारियाँ
    तुम्हारा आकाश हो चुका होगा
    हमारे अतिस्वन विमानों के
    धूम-सूत्रों का गुंझर।
    नंदा,
    जल्दी ही-
    बीस-तीस-पचास बरसों में
    हम तुम्हारे नीचे एक मरु बिछा चुके होंगे
    और तुम्हारे उस नदी धौत सीढ़ी वाले मंदिर में
    जला करेगा
    एक मरुदीप।