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  • घर मंदिर पर कविता

    घर मंदिर पर कविता

    त्याग और सहयोग जहाँ हो
    घर वो ही कहलाता है।
    इक दूजे में प्यार बहुत हो
    घर मंदिर बन जाता है।।1।।

    आँगन में किलकारी गूँजे
    घर बच्चों से भरा रहे।
    नारी का सम्मान जहाँ हो
    प्रेम और सहयोग रहे।।2।।


    बड़े दिखाए स्वयं बड़प्पन
    छोटे आज्ञाकारी हो।
    आपस में सहयोग भाव हो
    जहाँ नही लाचारी हो।।3।।


    संस्कारो का मान जहाँ हो
    मिलजुलकर सहयोग करें।
    ईर्ष्या द्वेष नही हो मन में
    घर में खुशियाँ सदा भरे।।4।।


    अतिथि होता जहाँ देवतुल्य
    हर जन आश्रय पाता है।
    शांति और सहयोग भाव हो
    घर तीरथ बन जाता है।।5।।


    अपने और पराए का भी
    भेद न कोई करता है।
    सुख दुख में सहयोगी बनकर
    भाव बंधु का रखता है।।6।।


    सदाचार का पालन करते
    अपना धर्म निभाते है।
    सहयोग भाव हर मन मे हो
    घर मंदिर कहलाते हैं।।7।।

    © डॉ एन के सेठी

  • संस्कृति पर कविता

    संस्कृति पर कविता

    अपनी संस्कृति अपनाओ,
    अपना अभिवादन अपनाओ!
    जब भी मिले दूसरो से ,
    हाथ जोड़ मुस्कुराओ !!
    हाथ जोड़ मुस्कुराओ,
    कोरोना दूर भगाओ!
    हाथ धोये साबुन से
    थोड़ा न घबराओ !!
    कहे दूजराम पुकार के ,
    सावधानी अपनाओ!
    खांसते मास्क लगाओ
    कोरोना दूर भगाओ !!

    दूजराम साहू
    निवास -भरदाकला
    तहसील -खैरागढ़
    जिला- राजनांदगाँव (छ.ग. )

  • दादाजी पर कविता (एक अद्भुत मित्र)

    दादाजी पर कविता

    आज सुनाता हूँ मैं मेरे जीवन का वो प्रसंग
    जो है मेरे जीवन का एक अद्भुत अमिट अंग॥
    हुई कृपा उस ईश्वर की जो मुझे यहाँ पर भेजा है
    सौंप दिया उस शख्श को मुझे जिसका मृदुल कलेजा है॥
    ईश्वर दे सभी को ऐसा जैसा मेरे भाग्य में सौंप दिया
    ना डरता था मैं उनसे ऐसे बस सहज ह्रदय में खौफ दिया॥
    उनकी मेहरबानी का मैं कर्ज चुका न पाऊँगा
    हर जन्म में उन जैसा मित्र कहाँ से लाऊँगा॥

    नहीं मिलता सभी को ऐसा जैसा मैंने पाया मित्र सा
    मुझमें सब उडेलना चाहा जो था उ-तम चरित्र सा
    ना सानी था; ना सानी है और ना रहेगा फिर कभी ,
    कायल हूँ मैं उस स्वभाव का जो था अद्भुत विचित्र सा
    पर जब देखता हूँ उनकी छवि मैं अपने सहज स्वप्न में
    तब लगता है मुझे; चल रहा कोई स्वर्ग में चलचित्र सा॥

    कभी हँसता हूँ कभी रोता हूँ सहज ह्रदय से उनकी याद में
    कामना होती है उनके लिए ईश्वर से; मेरी हर फरियाद में
    है मनुष्य नश्वर अमरता का पाठ पढता है केवल ,
    मैं जानता था ,ना होगा कोई उनके जैसा उनके बाद में॥
    स्वभाव था अच्छा व पेशा भी श्रेष्ठ था
    जो दे गये मुझको ,वो संदेशा भी श्रेष्ठ था।
    ना पेशे से ,ना पैसे से वजूद होता है इंसान का
    पर जो दे संदेशा मानवता का वह कृतज्ञ होता है भगवान का।
    जिसने महका दिया मेरा मन ; जैसे कोई सुगंधित इत्र था
    जिसने सौंप दिया सब कुछ मुझे वो मेरा अद्भुत मित्र था।
    ऐसे पावन मित्र का मैं बलिहारी रहूँगा
    जन्म _ जन्म तक मैं उनका आभारी रहूँगा।

    जिसने दिया सबसे ज्यादा स्नेह; मुझे पूरे परिवार में
    सम्भव नहीं ये कर्ज चुका दूँ मैं उनका एक बार में
    सब कहतें हैं प्राणी नश्वर होता है संसार में,
    मैं बुलाता हूँ उनको कभी , वो आ जाते हैं एक बार में॥

    जो कुछ किया मैंने उनके लिए वो कर्तव्य था ,सौगात नहीं
    उनका कर्ज चुका दूँ मैं,इतनी मेरी औकात नहीं।
    इतना कहा था उन्होंने मुझसे; मानवता का रस चखना सदा
    दुआ करता हूँ परमात्मा से उनको खुश रखना सदा।

    जब कोई लडता था मुझे वो भाल बनकर आते थे
    ना आये कोई फटकार मुझ पर वो ढाल बनकर आते थे
    रोक देते थे हाथ वो जो उठता था मुझ पर कभी ,
    ना दे सके कोई जवाब जिसका ; ऐसा सवाल बनकर आते थे॥
    जितना पढाया उन्होंने मुझे कोई और ना पढा सके
    जैसी उभारी छवि मुझ पर ऐसी शूली ना कोई गढा सके।

    मेरे लिए तो जैसे कोई फरिस्ता जग में आया था
    मैं था परछाई और वो मेरा साया था
    ना बुला सके कोई माँ भी अपने पुत्र को इस तरह ,
    जैसे उन्होंने मुझे स्वयं के पास बुलाया था॥
    नहीं सोचता मैं कि वो नहीं हैं इस जग में
    लगता है वो बस रहे मेरी हर रग _रग में।
    मैं एक कबूतर हूँ और वो परिंदा हैं
    कौन कहता है नहीं; अरे वो अभी भी जग में जिंदा हैं।

    सुबह-शाम भगवान में मैं बस उनसे बातें करता हूँ
    इस सुन्दर संसार में मैं कुछ इस तरह विचरता हूँ
    जो कुछ डाल गये वो घास मुझे अपने श्रेष्ढ चरित्र की,
    उसी घास को मैं मूक गाय बनकर चरता हूँ।॥

    ना पूँछना उनके बारे में मुझसे कोई सवालात तुम
    मेरे सपने में आ जाते हो यूँ ही अकस्मात तुम
    दुआ करता हूँ मैं उस ईश्वर से मन ही मन ,
    हरदम रखना उनके सिर पर अपना कोमल हाथ तुम ॥

    जो मेरी बात पर हमेशा हाँ जी – हाँ जी कहता था
    उस श्रेष्ठ मित्र को मैं ‘दादाजी’ कहता था।

    वो तो सहज स्वभाव के और कोमल ह्रदय वाले थे
    मैं था घोर अंधेरा और वो उजाले थे
    मुझसे पहले भी उन्होंने न जाने कितने तारे पाले थे
    हूँ कृतज्ञ मैं उनका जो मुझमें वो गुण डाले थे
    ना चुका पाऊँगा कर्ज मैं उनका जो है मेरे कंधों पर ,
    मैं उनके हाथ का छाला था ; वो मेरे हाथ के छाले थे॥

  • कैसे जाल बिछाया है कोरोना

    कैसे जाल बिछाया है कोरोना

    कैसे जाल बिछाया है ?
    तूने रे कोरोना!
    हाहाकार मचा दिया है,
    हो रही है रोना !!
    कोरोना बोला सुन रे मानव,
    छोड़ दिया तूने अपनी संस्कृति,
    संस्कार भी भुला दिया !
    हाय हलो कर हाथ मिलाकर,
    रोगो को फैला दिया !!
    खान पान सादगी भुला ,
    माँसाहार अपना लिया !
    सत्य अहिंसा दयाभाव,
    दिलो से दफना दिया !!
    इसी कारण सून रे मानव ,
    कर्म का फल तू भोगना !
    हाहाकार मचा दिया है,
    हो रही है रोना !!

    दूजराम साहू
    निवास भरदाकला
    तहसील खैरागढ़
    जिला राजनांदगाँव( छ. ग.)

  • डॉग लवर पर पत्रकारिता

    डॉग लवर पर पत्रकारिता

    ओमप्रकाश भारतीय उर्फ पलटू जी शहर के सबसे बड़े उद्योगपति होने के साथ ही फेमस डॉग लवर अर्थात् प्रसिद्ध कुत्ता प्रेमी भी थे। पलटू जी ने लगभग सभी नस्ल के कुत्ते पाल रखे थे। उन्हें कुत्तों से इतना प्रेम था कि कुत्तों के मल-मूत्र भी वे स्वयं साफ किया करते थे। उनके श्वान प्रेम पर अखबार एवं पत्रिकाओं में सैकड़ों लेख प्रकाशित हो चुके थे।

    करीब एक दर्जन नौकर पलटू जी के यहां काम करते थे। लेकिन मोहन मुख्य नौकर था। तबीयत ठीक ना होने की वजह से आज मोहन ने अपनी जगह अपनी पत्नी मालती को काम पर भेजा था। मालती अपने साथ अपने ढाई वर्षीय बेटे को साथ लेकर पलटू जी के यहां काम करने आ गयी। भोजन कक्ष के फर्श पर अपने बेटे को बिठाकर मालती अपना काम करने लगी। दो घंटे बीत गये। उधर मालती अपने काम में मशगूल थी और इधर उसका बेटा खेलते-खेलते पलटू जी के शयनकक्ष में जा पहुंचा और उनके बिस्तर पर खेलने लगा। उस समय पलटू जी अपनी बालकनी में बैठकर कुकुर प्रेम पर कविता लिख रहे थे। अपनी कविता पूरी करने के पश्चात जब वो अपने शयनकक्ष में पहुंचे तो उन्होंने देखा कि मालती का बेटा उनके बिस्तर पर मल त्याग कर रहा था। तब तक मालती भी अपने बेटे को ढूंढते हुए पलटू जी के शयनकक्ष तक पहुंच चुकी थी। बिस्तर पर मल त्याग करता हुआ देखकर पलटू जी आग बबूला हो गये और भारत में औरतों को दी जाने वाली सारी गालियां कुछ ही पलों में मालती को दे डाली। तब तक मालती डर के मारे अपने बेटे को अपनी पीठ पर लादकर अपने हाथों से मल को उठा चुकी थी। अपने शब्दकोश की सारी गालियां दे डालने के पश्चात पलटू जी ने मालती को तुरंत घर से निकल जाने का आदेश दे डाला और साथ ही मोहन को काम से निकाले जाने का फरमान जारी कर दिया।

    अगले दिन सुबह मोहन काम की तलाश में निकल पड़ा। इधर पलटू जी अपनी बालकनी में बैठकर अखबार में छपी कुकुर प्रेम पर लिखी गई अपनी कविता को देखकर मुस्कुरा रहे थे।

    :- आलोक कौशिक

    संक्षिप्त परिचय:-

    नाम- आलोक कौशिक
    शिक्षा- स्नातकोत्तर (अंग्रेजी साहित्य)
    पेशा- पत्रकारिता एवं स्वतंत्र लेखन
    साहित्यिक कृतियां- प्रमुख राष्ट्रीय समाचारपत्रों एवं साहित्यिक पत्रिकाओं में दर्जनों रचनाएं प्रकाशित
    पता:- मनीषा मैन्शन, जिला- बेगूसराय, राज्य- बिहार, 851101,
    अणुडाक- [email protected]