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  • शिव भक्ति गीत -बाबूलाल शर्मा

    प्रस्तुत कविता शिव भक्ति गीत आधारित है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ, गंगाधार आदि नामों से भी जाना जाता है।

    शिव भक्ति गीत -बाबूलाल शर्मा


    हे नीलकंठ शिव महाकाल,
    भूतनाथ हे अविनाशी!
    हिमराजा के जामाता शिव,
    गौरा के मन हिय वासी!

    देवों के सरदार सदाशिव,
    राम सिया के हो प्यारे!
    करो जगत कल्याण महा प्रभु,
    संकट हरलो जग सारे!
    सागर मंथन से विष पीकर,
    बने देव हित विश्वासी!
    हे नीलकंठ शिव महाकाल,
    भूतनाथ हे अविनासी!

    भस्म रमाए शीश चंद्र छवि,
    गंगा धारा जट धारी!
    नाग लिपटते कंठ सोहते,
    संग विनायक महतारी!
    हे रामेश्वर जग परमेश्वर,
    कैलासी पर्वत वासी!
    हे नीलकंठ शिव महाकाल,
    भूतनाथ हे अविनाशी!

    आँक धतूरे भंग खुराकी,
    कृपा सिंधु अवढरदानी!
    वत्सल शरणागत जग पालक,
    त्रय लोचन अविचल ध्यानी!
    आशुतोष हे अभ्यंकर हे,
    विश्वनाथ हे शिवकाशी!
    हे नीलकंठ शिव महाकाल,
    भूतनाथ हे अविनाशी!


    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान

  • पत्थर दिल पर कविता

    पत्थर दिल पर कविता

    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!
    शिक्षा के उत्तम स्वर फूटे,
    जो रागों को निँगले!

    सत्य बिके नित चौराहे पर,
    गिरवी आस रखी है
    दूध दही घी डिब्बा बंदी,
    मदिरा खुली रखी है!
    विश्वासों की हत्या होती,
    पत्थर दिल कब पिघले!
    लता लता को खाना चाहे
    कली कली को निँगले!

    गला घुटा है यहाँ न्याय का,
    ईमानों का सौदा!
    कर्ज करें घी पीने वाले
    चाहे बिके घरौंदा!
    होड़ा होड़ी मची निँगोड़ी,
    किस्से भूले पिछले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    अण्डे मदिरा मांस बिक रहे,
    महँगे दामों ठप्पे से!
    हरे साग मक्खन गुड़ मट्ठा,
    गायब चप्पे चप्पे से!
    पढ़े लिखे ही मौन मूक हो,
    मोबाइल से निकले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    बेटी हित में भाषण झाड़े,
    भ्रूण लिंग जँचवाते!
    कहें दहेजी रीति विरोधी,
    बहु को वही जलाते!
    आदर्शो की जला होलिका
    कर्म करें नित निचले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!

    संस्कारों को फेंक रहे सब,
    नित कचरा ढेरों में!
    मात पिता वृद्धाश्रम भेजें
    प्रीत ढूँढ गैरों में!
    वृद्ध करे केशों को काले,
    भीड़ भाड़ में पिट ले!
    लता लता को खाना चाहे,
    कली कली को निँगले!
    . ??‍♀??‍♀??‍♀
    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान
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  • हारे जीत पर दोहे

    हारे जीत पर दोहे


    पीर जलाए आज विरह फिर,बनती रीत!
    लम्बी विकट रात बिन नींदे, पुरवा शीत!

    लगता जैसे बीत गया युग, प्यार किये!
    जीर्ण वसन हो बटन टूटते, कौन सिँए!
    मिलन नहीं भूले से अब तो, बिछुड़े मीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    याद रहीं बस याद तुम्हारी, भोली बात!
    बाकी तो सब जीवन अपने, खाए घात!
    कविता छंद भुलाकर लिखता, सनकी गीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    नेह प्रेम में रूठ झगड़ना, मचना शोर!
    हर दिन ईद दिवाली जैसे, जगना भोर!
    हर निर्णय में हिस्सा किस्सा, हारे जीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर,बनती रीत!

    याद सताती तन सुलगाती, बढ़ती पीर!
    जितना भी मन को समझाऊँ, घटता धीर!
    हुआ चिड़चिड़ा जीवन सजनी,नैन विनीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    प्रीत रीत की ऋतुएँ रीती, होती साँझ!
    सुर सरगम मय तान सुरीली, बंशी बाँझ!
    सोच अगम पथ प्रीत पावनी, मन भयभीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!

    सात जन्म का बंधन कह कर, बहके मान!
    आज अधूरी प्रीत रीत जन, मन पहचान!
    यह जीवन तो लगे प्रिया अब, जाना बीत!
    पीर जलाए आज विरह फिर, बनती रीत!
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    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान
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  • प्रीत की बाजी पर कविता

    प्रीत की बाजी पर कविता

    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।
    गया भूल भी मधुशाला,
    वह गुलाबी मद सरूरी।

    सो रही है भोर अब यह,
    जागरण हर यामिनी को।
    प्रीत की ठग रीत बदली,
    ठग रही है स्वामिनी को।
    दोष देना दोष है अब,
    प्रीत की बाजी कसूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    प्रीत भूले रीत को जब,
    मन भटक जाता हमारा।
    भूल जाता गात कँपता,
    याद कर निश्चय तुम्हारा।
    सत्य को पहचानता मन,
    जगत की बाते फितूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    उड़ रहा खग नाव सा मन,
    लौट कर आए वहीं पर।
    सोच लूँ मन मे भले सब,
    बात बस मन में रही हर।
    प्रेम घट अवरोध जाते,
    हो तनों मन में हजूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।

    प्रेम सपन,तन पाश लगे,
    यह मन मे रही पिपासा।
    शेष जगत में बची नहीं,
    अपने मन में जिज्ञासा।
    आओ तो जी भर देखूँ,
    कर दो मन्शा यह पूरी।
    कल्पना यह कल्पना है,
    आपके बिन सब अधूरी।
    . °°°°°°°
    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा दौसा राजस्थान
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  • राज दरबारी पर कविता

    राज दरबारी

    वो हैं बड़े लेखक
    नवाजा जाता है उन्हें
    खिताबों से
    दी जाती है
    सरकार द्वारा सुविधाएं
    नाना प्रकार की
    बदले में
    मिलाते हैं वे कदम-ताल
    सरकार से
    कर रहे हैं निर्वहन
    राज-दरबारियों की
    परम्परा का
    उनकी लेखनी ने
    मोड़ लिया मुंह
    आमजन की वेदना से
    हो गए बेमुख संवेदना से
    चंद राजकीय
    रियायतों के लिए

    -विनोद सिल्ला©