गीता द्विवेदी की शानदार कविता
अलाव
कभी-कभी जिंदगी
अलाव जैसी धधकती है
उसमें हाथ सेंकते हैं
अपने भी पराए भी
बुझने से बचाने की
सबकी कोशिश रहती है,
डालते रहते हैं,
लकड़़ियाँ पारी-पारी,
कितना अजीब है ना!
न आग न धुआँ
पर जिंदगी तो जलती है,
सभी को पता है।
क्योंकि कभी न कभी,
सभी को इसका अनुभव हुआ है।
कोई राख हो जाता है,
कोई कुन्दन,
और तब…..
हाथ सेंकने वाले,
दूर हो जाते हैं,
बहुत दूर….. बहुत दूर
कभी नियति, कभी नीयत,
बना देती है
जिन्दगी को अलाव,
नीयत में स्वच्छता हो,
नियति से जुझने की ताकत,
तब ये दुनिया डरावनी नहीं,
सुहानी लगती है,
और सब अपने,
पराया कोई नहीं रह जाता,
तब अलाव भी नहीं धधकता,
क्योंकि लकड़ियाँ,
कम हो जाती हैं,
ईर्ष्या, द्वेष की लकडिय़ाँ।
हरे सोने के गहने
धरती माँ पहनती हैं ,
गहने…हरे सोने के ,
सभी गहने सुन्दरता बढ़ाते हैं ।
छोटे , बड़े सभी आकार के ,
सुगंध प्रदायक ,
वायु शुद्ध करनेवाले ।
दूब , तुलसी ,नीम ,पीपल ।
नागफनी और बबूल भी ।
विचित्र बात है न!
हम धरती माँ की ,
इन्हीं हरे गहनों के बीच
जन्म लेते और जीवन बिताते हैं ।
फिर भी इन्हें समझने में ,
कितनी देर लगाते हैं ।
धरती माँ के निर्दोष हरे गहने ,
निर्दयतापूर्वक तोड़ते , नोचते ,
काटते , छाँटते , टुकड़े – टुकड़े कर देते हैं ।
इतने से भी जी नहीं भरता तो ,
जला कर संतुष्ट होना चाहते हैं ।
पर नहीं , अभी तो इन्हें समूल नष्ट करना है ।
और सभ्य होने का भ्रम पालना है ।
दिखने दो धरती माँ को ,
कुरूप ….. पीड़ित ,
हम तो प्रसन्न रहेंगें ।
नष्ट कर गहने ,
हरे सोने के गहने ।
गीता द्विवेदी