Blog

  • हिन्दी बिन्दी भूल गये सब

    हिन्दी बिन्दी भूल गये

    बड़े बड़े हैं छंद लिखैया,
              सूनी किन्तु छंद चटसार|
    हिन्दी बिन्दी भूल गये सब,
              हिन्दी हिन्दी चीख पुकार||
    है हैं का ही अन्तर भूले,
          बिना गली खिचड़ी की दाल|
    तू तू में में मची हुई है,
            नोंचत बैठ बाल की खाल||
    शीश पकड़ कर बैठ गये हैं,
            सुर लय यति गति चिह्न विराम|
    एक पंक्ति सुरसा-सी लम्बी,
           एक पंक्ति की तंग लगाम||
    छाँट भाव की सभी टहनियाँ ,
          ठूँठ शब्द से माँगत छाँव|
    कोयल की ज्यों छोड़ सभा को,
          पाते काक सभा की काँव||
    ग़ज़ल आज क्यों सिर पर बैठी,
           कर लो थोड़ा सोच विचार |
    छंद सनातन शास्त्र बताते,
           क्यों नहिं होती फिर गुंजार||
    तुलसी मीरा केशव भूषण,
            दिनकर कबिरा सूर महान||
    अभी समय है छंद ज्योति का,
            हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान||
    (वीर छंद विधान~31 मात्रा, 16,15 पर यति|
    चरणान्त में वाचिक भार 21,कुल चार चरण, क्रमागत दो दो समतुकान्त)
    दिलीप कुमार पाठक “सरस”
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • कागा की प्यास

    कागा की प्यास

    कागा पानी चाह में,उड़ते लेकर आस।
    सूखे हो पोखर सभी,कहाँ बुझे तब प्यास।।
    कहाँ बुझे तब प्यास,देख मटकी पर जावे।
    कंकड़ लावे चोंच,खूब धर धर टपकावे।।
    पानी होवे अल्प,कटे जीवन का धागा।
    उलट कहानी होय,मौत को पावे कागा।।

    कौआ मरते देख के,मानव अंतस नोच।
    घट जाए जल स्रोत जो,खुद के बारे सोच।।
    खुद के बारे सोच,बाँध नदिया सब भर ले।
    पानी से है जान,खपत को हम कम कर ले।।
    कम होते जल धार,बात माने सच हौआ।
    सलिल रहे जो सार,मरे फिर काहे कौआ।।
    राजकिशोर धिरही
    तिलई,जांजगीर
    छत्तीसगढ़
    9827893645
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • धरती हमको रही पुकार

    धरती हम को रही पुकार ।

    समझाती हमको हर बार ।।

    काहे जंगल काट रहे हो ।
    मानवता को बाँट रहे हो ।
    इससे ही हम सबका जीवन,
    करें सदा हम इससे प्यार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    बढ़ा प्रदूषण नगर नगर में ।
    जाम लगा है डगर डगर में ।।
    दुर्लभ हुआ आज चलना है ,
    लगा गन्दगी का अम्बार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    शुद्ध वायु कहीं न मिलती है ।
    एक कली भी न खिलती है ।।
    बेच रहे इसको सौदागर ,
    करते धरती का व्यापार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    पशुओं को बेघर कर डाला ।
    काट पेड़ को हँसता लाला ।।
    मौसम नित्य बदलता जाता ,
    नित दिन गर्मी अपरम्पार ।।

    धरती  हमको रही पुकार ।।

    आओ मिलकर पेड़ लगायें ।
    निज धरती को स्वर्ग बनायें ।।
    हरा – भरा अपना जीवन हो ,
    बन जाये सुरभित संसार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    परयावरण बचायें हम सब ।
    स्वच्छ रखें घर आँगन सब ।।
    करे सुगंधित तन मन सबका ,
    पंकज कहता बारम्बार ।।

    धरती हमको रही पुकार ।।

    डाँ. आदेश कुमार पंकज
    विभागाध्यक्ष गणित शास्त्र
    रेणुसागर सोनभद्र
    उत्तर प्रदेश
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • धुआँ घिरा विकराल

    धुआँ घिरा विकराल

    बढ़ा प्रदूषण जोर।
    इसका कहीं न छोर।।
    संकट ये अति घोर।
    मचा चतुर्दिक शोर।।
    यह भीषण वन-आग।
    हम सब पर यह दाग।।
    जाओ मानव जाग।
    छोड़ो भागमभाग।।
    मनुज दनुज सम होय।
    मर्यादा वह खोय।।
    स्वारथ का बन भृत्य।
    करे असुर सम कृत्य।।
    जंगल किए विनष्ट।
    सहता है जग कष्ट।।
    प्राणी सकल कराह।
    भरते दारुण आह।।
    धुआँ घिरा विकराल।
    ज्यों उगले विष व्याल।।
    जकड़ जगत निज दाढ़।
    विपदा करे प्रगाढ़।।
    दूषित नीर समीर।
    जंतु समस्त अधीर।।
    संकट में अब प्राण।
    उनको कहीं न त्राण।।
    प्रकृति-संतुलन ध्वस्त।
    सकल विश्व अब त्रस्त।।
    अन्धाधुन्ध विकास।
    आया जरा न रास।।
    विपद न यह लघु-काय।
    शापित जग-समुदाय।।
    मिलजुल करे उपाय।
    तब यह टले बलाय।।
    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • विनाश की ओर कदम

    विनाश की ओर कदम

    नदी ताल में  कम  हो  रहा  जल
    और हम पानी यूँ ही बहा  रहे हैं।
    ग्लेशियर पिघल रहे  और  समुन्द्र
    तल   यूँ ही  बढ़ते  ही जा रहे  हैं।।
    काट कर सारे वन  कंक्रीट के कई
    जंगल  बसा    दिये    विकास   ने।
    अनायस ही विनाश की ओर कदम
    दुनिया  के  चले  ही  जा  रहे   हैं ।।
    पॉलीथिन के  ढेर  पर  बैठ  कर हम
    पॉलीथिन हटाओ का नारा दे रहे हैं।
    प्रक्रति का  शोषण कर   के  सुनामी
    भूकंप  का  अभिशाप   ले   रहे  हैं ।।
    पर्यवरण प्रदूषित हो रहा है  दिन रात
    हमारी आधुनिक संस्कृति के कारण।
    भूस्खलन,भीषणगर्मी,बाढ़,ओलावृष्टि
    की नाव बदले में  आज हम खे रहे हैं।।
    ओज़ोन लेयर में छेद,कार्बन उत्सर्जन
    अंधाधुंध दोहन का ही दुष्परिणाम है।
    वृक्षों की कटाई  बन  गया  आजकल
    विकास  प्रगति   का   दूसरा  नाम  है।।
    हरियाली को  समाप्त करने  की  बहुत
    बडी  कीमत चुका रही   है  ये  दुनिया।
    इसी कारण ऋतुचक्र,वर्षाचक्र का नित
    असुंतलन आज  हो  गया  आम  है ।।
    सोचें  क्या दे  कर  जायेंगे  हम   अपनी
      अगली     पीढ़ी    को   विरासत   में ।
    शुद्ध जल और वायु  को ही   कैद  कर
    दिया है जीवन  शैली की  हिरासत में।।
    जानता  नहीं   आदमी   कि   कुल्हाड़ी
    पेड पर  नहीं  पाँव   पर  चल   रही  है।
    प्रकृति  नहीं  सम्पूर्ण  मानवता  ही नष्ट
    हो जायेगी इस दानव सी हिफाज़त में।।
    रचयिता
    एस के कपूर श्री हंस
    बरेली
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद