कर डरेन हम ठुक- ठुक ले
पुरखा के रोपे रूख राई
कर डरेन हम ठुक-ठुक ले.. ……
नोहर होगे तेंदू चार बर..
जिवरा कईसे करे मुच-मुच ले…
ताते तात के जेवन जेवईया ,
अब ताते तात हवा खावत हन ..
अपन सुवारथ के चक्कर म,
रूख राई काट के लावत हन.
कटकट- कटकट करत डोंगरी …
कर डरेन हम बूच -बूच ले …
कर डरेन हम ठुक -ठुक ले…
बड़े-बड़े मंजिल कारखाना ,
आनी बानी अब गढ़हत हे!
सुरसा कस जनसंख्या देख ले,
दिनो दिन ये बढ़हत हे ।।
जंगल ले मंगल़़ दुुुरिहागे..
जिनगी कईसे करे मुच- मुच ले …
कर डरेन हम ठुक ठुक ले…
बिरान न होवए अब ये भुइया..
हमला बिचार करना हे ..
खोज- खोज के खाली जगह म..
रूख राई लगा के भरना हे ..
सरग बरोबर ये भुईया ल ..
सिंगार करन अब लुक – लुक ले…
कर डरेन हम ठुक ठुक ले….
दूजराम साहू अनन्य
भरदाकला (खैरागढ़)