Blog

  • आओ हम सौगंध उठाएँ

    आओ हम सौगंध उठाएँ

    प्रेम, सौहार्द्र, भ्रातृत्व भाव की
    धरा पर अखंड ज्योति जलाएँ
    भेदभाव न हो  जाति धर्म का
    आओ  हम  सौगंध  उठाएँ l
    ईश्वर, अल्लाह, राम, रहीम की
    पूज्य धरा को  स्वर्ग  बनाएँ
    एक पिता हम सबका मालिक
    एकता  का  संदेश  फैलाएँ l
    ऊँच, नीच,मज़हब,संप्रदाय का
    भेदभाव  मुल्क  से  ही  हटाएँ
    अमन, शांति, चैन,  सुकून  का
    आओ  मिल कर बीड़ा उठाएँ l
    हिन्दू,  मुस्लिम,  सिक्ख, ईसाई
    धार्मिक भेद दिलों  से  मिटायें
    एक हैं  हम  सिर्फ  भारतीय हैं
    प्रेम की  लौ  दिलों  में  जलाएँ l
    नफ़रत, ईर्ष्या, द्वेष  भाव को
    जग के आँगन  से दूर  हटाएँ
    राम -रहीम  की पावन भू  को
    मोहब्बत, प्रेम से ज़न्नत  बनाएँ l
    चंद्र, सूर्य, हिम, सागर इक सबका
    फिर  मज़हब की  है क्यों धाराएँ
    गंगा, यमुना,सरस्वती सम पावन
    विचारों  को अपना  श्रेष्ठ  बनाएँ l
    आतंकवाद, भ्रष्टाचार को हम
    मिलजुलकर  समूल  मिटाएँ
    परस्पर स्नेह मशाल जलाकर
    मानवता  का  सूरज  चमकाएँ l
    कुसुम लता पुन्डोरा
    आर के पुरम
    नई दिल्ली
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • हमर गंवई गाँव

    हमर गंवई गाँव

    1 आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव
    गड़े नही अब कांटा खोभा
    तुंहर कुँवर पांव
    आबे आबे सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    2 गली गली के चिखला माटी
    वहु ह अब नंदागे।
    पक्की सड़क पक्का नाली
    हमरो गांव म छागे।
    लइका मन बर स्कूल खुलगे
    जगाथे गाँव के नाव।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गांव ।।

    3 नरवा खड़ म मील बनाहे
    बज -बजाथे खड़ ह।
    गोला गोला  पेड़ कटवाहे
    दिखे नहीं कोयली ह।
    कुँआ बउली कोन पूछे अब
    बोर खनागे गाँव।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    4 पहिली के जंगल ह छटागे
    बघुवा भालू ह भगागे
    गाय गरु के चारा ह सिराथे
    गउ ठान ह सकलागे
    नई मिले अब छपरी छानी
    नईहे खदर के छाँव ।।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    5 मिलजुल के हमर गाँव मनाथे
    जम्मों तीज तिहार।
    भेदभाव ह घुरूवा म पटागे
    आथे सबके  काम।
    खेलत कमावत दिन ह पहाथे
    रतिया मया के छाँव।।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू ते
    हमर गंवई गॉव।।

    माधुरी डड़सेना
    नगर पंचायत भखारा
    छ .ग.

  • बचपन पर कविता

    बचपन पर कविता

    चिलचिलाती हुई धूप में
    नंगे पाँव दौड़ जाना,
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    माँ डांटती अब्बा फटकारते
    कभी-कभी लकड़ी से मारते
    भूल कर उस पिटाई को
    जाकर बाग में आम चुराना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    या फिर छुपकर दोपहर में
    नंगे पाँव दबे-दबे से
    लेकर घर से कच्छा तौलिया
    गाँव से दूर नहर में नहाना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    या पेड़ों पर चढ़-चढ़ कर
    झूलते डालों पर हिल डुलकर
    चमक होती थी आँखों में
    वो साथियों को वन में घुमाना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    पढ़ाई लिखाई से निजात पाकर
    हंसते-खिलते और मुस्कुराकर
    गर्मियों की प्यारी छुट्टियों में
    नाना-नानी के यहाँ जाना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
                     -0-
    नवल पाल प्रभाकर “दिनकर”
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • अचरज मा परगे

    अचरज मा परगे

    कोठी तो बढ़हर के* छलकत ले भरगे।
    बइमानी के पेंड़ धरे पुरखा हा तरगे॥
    अंतस हा रोथे संशो मा रात दिन।
    गरीब के आँसू हा टप-टप ले* ढरगे॥
    सुख के सपुना अउ आस ओखर मन के।
    बिपत के आगी मा सब्बो* हा  जरगे॥
    सुरता के रुखवा हा चढ़े अगास मा।
    वाह रे वा किस्मत! पाना अस झरगे*
    माछी नहीं गुड़ बिना हवे उही हाल।
    देख के गरीबी ला मया मन टरगे॥
    जिनगी अउ मन मा हे कुल्लुप अँधियार।
    रग-बग अंजोर भले बाहिर बगरगे॥
    वाह रे विकास सलाम हावय तोला।
    धान, कोदो, तिवरा, मण्डी मा सरगे॥
    नाली मा काबर भोजन फेंकाथे।
    गरीबी मा कतको, लाँघन तो  मरगे॥ 
    लोगन के कथनी अउ करनी ला देख।
    “निर्मोही” बिचारा, अचरज मा परगे॥
         बालक “निर्मोही”
               बिलासपुर
            30/05/2019
                
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • बच्चे होते मन के अच्छे

    बच्चे होते मन के अच्छे

    बच्चे होते मन के अच्छे

    बच्चे होते मन के अच्छे

    खेल कूद वो दिन भर करते,रखते हैं तन मन उत्साह।
    पेड़ लगा बच्चे खुश होते,चलते हैं मन मर्जी राह।।
    मम्मी पापा को समझाते,बन कर ज्ञानी खूब महान।
    बात बडों का सुनते हैं वे,रखते मोबाइल का ज्ञान।।


    रोज लगा जंगल बुक देखें,पाते ही कुछ दिन अवकाश।
    बेन टेन मल्टी राजू को,मोटू पतलू होते ख़ास।।
    गिल्ली डंडा कंचा खेलें,शोर मचाते मुँह को खोल।
    तोड़ फोड़ में माहिर रहते,क्या जाने कितना है मोल।।


    पर्यावरण बने तब बढ़िया,दे बच्चो को इसका ज्ञान।
    वादा कर के वो रख लेंगे,आस पास का बढ़िया मान।।
    बेमतलब के चलते हैं जो,उनको कर दे बच्चे मंद।
    टीवी पंखा कूलर बिजली,कर सकते चाहे तो बंद।।


    विकल्प ऊर्जा का वो जाने,पढ़ पढ़ कर के सारे खोज।
    स्कूल चले वो पैदल जा के,बचत करे ईंधन को रोज।।
    डिस्पोजल पन्नी को फेंके, जाने ये तो कचरा होय।
    खूब बढ़े ये जो धरती में,आगे चल के हम सब रोय।।


    खूब बहाते बच्चे पानी,बंद करे जा के नल कोय।
    होत समझ जो बर्बादी की,फिर काहे को ऐसे होय।।
    बच्चे होते मन के अच्छे,होत भले ही वो नादान।
    पर्यावरण बता दे उनको,मिल जाए फिर सारा ज्ञान।।


    राजकिशोर धिरही
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद