Blog

  • रामनाथ की कुण्डलिया

    रामनाथ की कुण्डलिया

    (1)  प्रातः  जागो भोर में ,
                        लेके  हरि  का   नाम ।
           मातृभूमि वंदन करो ,
                        फिर पीछे सब काम ।।
           फिर पीछे सब काम ,
                       करो तुम दुनियादारी ।
           अपनाओ    आहार ,
                       शुद्ध ताजे  तरकारी ।।
           कह ननकी कविराज ,
                     मांस ये मदिरा त्यागो ।
           देर  रात  मत जाग ,
                      हमेशा   प्रातः  जागो ।।


    (2)  दीपक चाहे स्वर्ण  का ,
                        या  फिर  मिट्टी  कोय ।
            उसकी कीमत जोत है ,
                        कितना उजाला होय ।।
            कितना  उजाला  होय ,
                        अँधेरा रहता  कितना ।
            गरीब   अमीर     मित्र ,
             .          भले हो चाहे जितना ।।
            कह ननकी  कविराज,
                        बनो  मत कोई दीमक ।
            गर्वित     हो     संबंध ,
                     जलो बन के तुम दीपक ।।
                   ~   रामनाथ साहू ” ननकी “
                            मुरलीडीह (छ. ग.)

  • जाऊँ कैसे घर मैं गुजरिया

    जाऊँ कैसे घर मैं गुजरिया

    नटखट कान्हा ने रंग दी चुनरिया 
    जाऊँ कैसे घर मैं गुजरिया
    नीर भरन मैं चली पनघट को 
    देख ना पाई उस नटखट को
    डाली पे बैठा कदंब के ऊपर
    धम्म से कूदा मेरे पथ पर

    रोकी जो उसने मेरी डगरिया 
    जाऊँ—-

    मेरी नजरें पथरा गई थी 
    मैं तो बस घबरा गई थी 
    अबीर गुलाल से सना था चेहरा 
    आँखों में फागुन का पहरा

    पलकें झपकाई मटकाई कमरिया  
    जाऊँ—

    बिनती करूँ मैं भारी कर जोरी
    पकड़ कन्हैया ने कलाई मरोड़ी
    डारि दियो रंग बरजोरी
    रोक ना पाई मैं भी निगोड़ी

    फेंकी जो छिनकर मेरी गगरिया 
    जाऊँ—

    आँखें नचाकर लगे मुस्कराने
    होरी है कह-कह कर खिझाने
    भोले पन ने भाया मन को 
    देखती रह गई मैं मोहन को
    पल भर को मैं हुई रे बावरिया

    जाऊँ—

    किसको बताऊँ कैसे समझाऊँ 
    हालत अपनी कैसे छुपाऊँ
    फागुन ने बौराया मन को 
    कैसे रोकूँ मैं मोहन को

    मन मोरनी कर गई रे मुरलिया 
    जाऊँ—-

    वसन भीजने की बात नहीं प्यारी 
    तन- मन भीज गई है सारी
    रंगी जो कान्हा ने ऐसी चुनरिया 
    छूटे ना जो सारी उमरिया

    भूल गई रे मैं अपनी डगरिया 
    जाऊँ—‘

    सुधा शर्मा 
    राजिम छत्तीसगढ़
    17-3-2019
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • वृंदावन की होली पर कविता

    वृंदावन की होली पर कविता

    पकड़ कलाई  रंग ड़ार दियो हाय भीगी मोरी चुनरिया ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    ग्वाल सखाओं  की  लेकर  टोली
    कान्हा आगये   खेलन होली
    देख कर मोहे निपट अकेली
    करने लगे कान्हा जोरा जोरी
    मैं शरमाऊँ ड़र ड़र जाऊँ न छोड़े मोरी कलइयां।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    वृंदावन होली खेलन आई
    रंग लो चाहे  जितना कन्हाई
    तेरे नाम की  मैं   हूँ दीवानी
    मैं तो हूँ  मीरा    मस्तानी
    तन मन प्राण रंगे  तेरे रंग में छूटे न सारी उमरिया ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    भाये मोहे तेरे लट  घुंघराले
    मन मोहन वो मुरली वाले
    जीवन नैया अब तेरे हवाले
    चाहे डुबादे चाहे संभाले
    प्रीत के रंग में डूब गई हूँ थाम लो अब तो बहियाँ ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।।
    कान्हा जरा मुरली तो सुनादो
    ले हाथों में हाथ वृन्दावन घुमादो
    यमुना तट पे झूला झुलादो
    कान्हा  मेरी यह आस पुरादो ।
    चरणों में प्रभू अपनी लगालो रंग रंगीला सांवरिया ।।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    पकड़ कलाई रंग ड़ारी गुलाबी भीगे मोरी चुनरिया ।
    श्याम-
    केवरा यदु “मीरा “
    राजिम
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • मिल मस्त हो कर फाग में

    मिल मस्त हो कर फाग में

    सब झूम लो रस राग में।
    मिल मस्त हो कर फाग में।।
    खुशियों भरा यह पर्व है।
    इसपे हमें अति गर्व है।।
    यह मास फागुन चाव का।
    ऋतुराज के मधु भाव का।।
    हर और दृश्य सुहावने।
    सब कूँज वृक्ष लुभावने ।।
    मन से मिटा हर क्लेश को।
    उर में रखो मत द्वेष को।।
    क्षण आज है न विलाप का।
    यह पर्व मेल-मिलाप का।।
    मन से जला मद-होलिका।
    धर प्रेम की कर-तूलिका।।
    हम मग्न हों रस रंग में।

    सब झूम फाग उमंग में।।

    लक्षण छंद
    “सजजाग” ये दश वर्ण दो।
    तब छंद ‘संयुत’ स्वाद लो।।
    “सजजाग” = सगण जगण जगण गुरु
    112 121 121 2 = 10 वर्ण
    चार चरण। दो दो समतुकांत


    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • होलिका दहन पर हिंदी कविता / पंकज प्रियम

    होलिका दहन पर हिंदी कविता / पंकज प्रियम

    होलिका दहन पर हिंदी कविता / पंकज प्रियम

    holika-dahan
    holika-dahan

    बुराई खत्म करने का प्रण करें
    आओ फिर होलिका दहन करें।
    औरत की इज्जत का प्रण करें,
    आओ फिर होलिका दहन करें।

    यहां तो हर रोज जलती है नारी
    दहेज कभी दुष्कर्म की है मारी
    रोज कोई रावण अपहरण करे
    पहले इनका मिलकर दमन करे
    आओ फिर…..

    हर घर प्रह्लाद सा कुंठित जीवन
    मां बाप के सपनों मरता बचपन
    होटलो में मासूम धो रहा बरतन
    पहले तो इन मुद्दों का शमन करें
    आओ फिर …

    सरहद पे रोज चलती है गोली
    पहियों तले कुचलती है बोली
    भूख कर्ज में रोती जनता भोली
    पहले इतने बोझ को वहन करें
    आओ फिर …

    आओ फिर होलिका दहन करे
    आओ फिर होलिका दहन करें।

    पंकज प्रियम