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  • नारी पर सुन्दर कविता

    नारी पर सुन्दर कविता

    आँखों   से  आंसू   बहते  हैं
    पानी   पानी  है  नारी।
    दुनियां की नज़रों में बस इक
    करूण कहानी है नारी।।
    युगों  -युगों  से  जाने  कितने
    कितने अत्याचार सहे।
    अबला से  सबला तक आयी
    हार न  मानी  है  नारी।।
    ब्रह्मा   विष्णु   गोद   खिलाए
    नाच नचाया नटवर को।
    अनुसुइया   है   कौसल्या   है
    राधा   रानी   है   नारी।।
    एक  नही दो  नही  महज़ इस
    के  किरदार  अनेकों  हैं।
    कभी   लक्षमी   कभी  शारदे
    कभी  भवानी  है   नारी।
    महफ़िल  में  रौनक  है इससे
    गुलशन  में  बहार  है ये।।
    सारी   दुनियां   महा   समंदर
    और   रवानी   है  नारी।।
    ——-✍
    जयपाल प्रखर करुण
    रवानी–धारा, गति, प्रवाह
  • पीड़ाएँ

    पीड़ाएँ

    पीड़ाएँ

    पीड़ाएँ

    पिंजरा  चला  छोड़  कर , पंछी अनंत दूर ।
    यादें  ही  अब  शेष  हैं , परिजन  हैं  बेनूर ।।


    आँसू से रिश्ता घना ,  आँखों  ने ली जोड़ ।
    निर्मोही क्यों हो गये , ले गये सुख निचोड़ ।।
    गहनें सिसक रहे सजन , रूठे  सब श्रृंगार ।
    माथे की  ये  बिंदिया , पोंछ गये दिलदार ।।


    मन की बातें चुप हुई , तन की सुधि बिसराय ।
    अब  तो केवल  स्वप्न में ,साजन  आवे जाय ।।
    भूली  बिसरी  याद  को , रखी  तिजोरी  ढ़ाँक ।
    अब तो फक़त निहारते , सपने अनगिन फाँक ।।


    चलके तुम कर्तव्य पथ  , वतन शहीद कहाय ।
    मुश्किल जीवन सतह पर , कैसे ठहरा जाय ।।
    विधवा  शहीद  की बनी , गर्व करे  यह  देश ।
    धवल वस्त्र जो मिला , शुचिता  का गणवेश ।।
                   ~   रामनाथ साहू ” ननकी “
                        मुरलीडीह  (  छ. ग. )

  • सेना पर कविता

    सेना पर कविता

    नन्हे मुन्ने सैनिक

    सेना भारत वर्ष की, उत्तम और महान।
    इसके साहस की सदा, जग करता गुणगान।
    जग करता गुणगान, लड़े पूरे दमखम से।
    लेती रिपु की जान, खींच कर लाती बिल से।
    *और बढ़ाती *शान* , जीत बिन साँस न लेना।
    सर्व गुणों की खान, बनी बलशाली सेना।
    ताकत अपनी दें दिखा, दुश्मन को दें मात।
    ऐसी ठोकर दें उसे, नहीं करे फिर घात।
    नहीं करे फिर घात, छुड़ा दें उसके छक्के।
    आका उसके बाद, रहें बस हक्के-बक्के।
    पड़े पृष्ठ पर लात, करे फिर नजिन हिमाकत।
    दिखला दें औकात, प्रदर्शित कर के ताकत।।
    घुटने पर  है  आ  गया, बेढब   पाकिस्तान।
    चहुँमुख घातक चोट से, तोड़ दिया अभिमान।।
    तोड़ दिया अभिमान, दिखा कर ताकत अपनी।
    मेटें नाम-निशान, अकड़ चाहे हो जितनी।
    अभिनंदन है “शान” , लगे आतंकी मरने।
    सेना के अभियान, तोड़ते पाकी घुटने।।
    
    प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली, 02 मार्च 2019
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • मेरी कविता मां काली है

    मेरी कविता मां काली है

    मेरी कविता में करुण नही,
    क्रंदन कर अश्क बहायेगी ।
    श्रृंगार नहीं है कविता में ,
    जो गीत प्रेम के गायेगी ।
    सैनिक के साथ चला करती,
    यह भारत की रखवाली है ।
    शत्रु का शोणित पान करे ,
    मेरी कविता मां काली है ।
    प्रलय कर दे शत्रु दल में,
    वैरी को त्रास भयंकर है।
    जनहित को जो विषपान करे ,
    मेरी कविता शिव शंकर है।
    धर से मुंडों  को काट काट ,
    यह हाहाकार मचाती है ।
    शम्भू बन तीजा नयन खोल ,
    यह तांडव करती जाती है ।
    वंशज दिनकर की  है कविता,
    गंगा जमुना यह सिंधु है ।
    सब धर्मों का सम्मान करे पर,
    अन्तरमन से हिन्दू है ।
    भारत पर संकट आये तो ,
    अब्दुल हमीद हो जाती है ।
    बन भगत सिंह मिट्टी में यह ,
    बंदूकें बोती जाती है ।
    सैनिक संग बैठ मिराजों में,
    जब पी ओ के में जाती है ।
    पैंतालिस के बदले में कविता,
    तीन सौ नर मुंड गिराती है।
    मेरी कविता का शब्द शब्द,
    ह्रदय में ठक कर जाता है ।
    कविता रघुवर का धनुष बाण,
    रत्नाकर भी थर्राता है ।
    जो नहीं मिटायें घोर तिमिर ,
    वह रबि नहीं हो सकता ।
    लेखन तो मेरा ज्वाला है ,
    रति छवि नहीं हो सकता है।
    बलिदानों में श्रृंगार लिखे,
    वह कवि नहीं हो सकता है ।
    इसीलिये कविता मेरी यह,
    आग लगाने वाली है ।
    शत्रु का शोणित पान करे ,
    मेरी कविता मां काली है ।

                   रचयिता
           किशनू झा “तूफान”
             8370036068
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  • वक्त ने सितम क्या ढाया है

    वक्त ने सितम क्या ढाया है

    यह कैसी बेवसी है ,कैसा वक्त,
    अपनी हद में रह कर भी सजा पाई
    चाहा ही क्या था फ़कत दो गज जमीन ,
    वो भी न मिली और महाभारत हो गयी।
    चाहा ही क्या था बस अपना हक जीने को
    राजनीति में द्रोपदी गुनाहगार हो गयी।
    त्याग,सेवा ,फर्ज दायित्व ही तो निभाये
    देखो तो फिर भी सीता बदनाम हो गयी।
    छल बल से नारी हरण ,राजहरण हुआ
    छली सब घर रहे ,सचाई दरदर भटक गयी।
    राधा ने किया समर्पण सर्वस्व अपना
    पटरानी पर वहाँ रुक्मणि बन गयी।
    अंजना की बाइस बरस की आस अधूरी
    दो पल पिया संग ,देश से निकल गयी।
    द्वापर ,त्रेता हो या कलयुग ,वक्त न बदला ।
    हर युग में सच की अर्थी निकाली गयी।
    माँ भारती ने झेला ,कोलंबस क्या आया
    दंशाहरण का ,वर्षों जंजीरों मे जकडी गयी ।
    दैहिक गुलामी से छूटी भी न थी हाए,
    मानसिक गुलामी में बंधी रह गयी।
    हर वक्त सच को पर ही उंगली उठी,
    देखो आज पुलवामा फिर रोया है ।
    किया बचाव स्वयं का जब भूमि ने ,
    जयचंद हर घर में घुस के आया है।

    मनोरमा जैन पाखी
    स्वरचित ,मौलिक
    28/02/2019
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