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  • जा लिख दे

    जा लिख दे

    “साधु-साधु!”
    लेखनी लिखे कुछ विशेष
    दें आशीष
    मैं भी कुछ ऐसा लिख जाऊँ
    जो रहे संचित युगों-युगों
    चिरस्थायी,शाश्वत
    –’जा लिख दे अपना वतन’
    जो सृष्टि संग व्युत्पन्न
    आश्रयस्थल प्रबुद्धजनों का,शूरवीरों का
    प्रथम ज्ञाता
    रहेगा समष्टि के अंत बाद भी।

    –’जा लिख दे उस माँ का वर्णन’
    जो जाग-जाग और भाग-भाग
    निज सन्तति हित सर्वस्व लुटाये
    जो पूत प्रेम और
    वीर धर्म का पाठ पढ़ाये
    सर्व जगत की निर्मात्री
    कुछ भी नहीं होगा तब भी
    माँ का गुणगान तो होगा।

    –’जा लिख दे उस आदि-अनन्त को’
    जिसने रच डाली दुनिया
    साकार,निराकार
    है विविध रूप जो उसके
    तीनों लोकों का पालक
    यद्यपि सम्भव नही है,
    शब्दों में बांधना
    लिख दे कुछ टुटा-फूटा
    हर कालचक्र का निर्माता
    सब मिट जायेगा….वो सत्य है।

    –’जा लिख दे भाषा के पाठक’
    जो तेरी वाणी बनते
    जग को समरस करते
    कवि को कवि बनाये
    तू भले ना रहे
    पाठक अमर है
    वे पहले थे,अब है
    और…सृष्टिकाल तक रहेंगे।

    ✍––धर्मेन्द्र कुमार सैनी,बांदीकुई
    जिला-दौसा(राजस्थान)
    मो.-9680044509

  • बहुरूपिया

    बहुरूपिया

    बकरी बनकर आया,
    मेमने को लगाकर सीने से,
    प्यार किया,दुलार किया!
    दूसरे ही क्षण–
    भक्षण कर मेमने का,
    तृप्त हो डकारा,
    बहुरूपिये भेड़िये ने फिर,
    अपना मुखौटा उतारा!!
    —-डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
    अम्बिकापुर,सरगुजा(छ. ग.)

  • काली कोयल

    काली कोयल

    कोयल सुन्दर काली -काली,
    हरियाले बागों की मतवाली।
    कुहू-कूहू करती डाली-डाली,
    आमों के बागों मिसरी घोली।


    ‘चिड़ियों की रानी’ कहलाती,
    पंचमसुर में तुम राग सुनाती।
    हर मानव के कानों को भाती,
    मीठी बोली से मिठास भरती।

    मौसम बसंत बहुत सुहाना,
    काली कोयल गाती तराना।
    रूप तुम्हारा प्यारा सयाना,
    जंगलवासी का मन हरना।


    कोकिला, कोयल, वनप्रिया,
    बसंतदूत,सारिका नाम पाया।
    पेड़ों के पत्तों में छिप जाया,
    मीठी बोली तुमने गाना गाया।


    ईश्वर ने दिया उपहार स्वरदान,
    मीठी वाणी से करती सम्मान।
    ‘रिखब’ करता विनती भगवान,
    मुझको मीठा स्वर दो वरदान।


    @रिखब चन्द राँका ‘कल्पेश’जयपुर

  • भावना तू कौन है ?

    भावना तू कौन है ?

    क्रोध लोभ हास मे
    रात में प्रकाश में
    राग और द्वेष में
    प्रीत नेह क्लेश में
    देखता हूँ मौन है
    भावना तू कौन है?

    भय अभय चित्त में
    हार में व जीत में
    भूख और प्यास में
    दूर हो या पास में
    देखता हूँ मौन है
    भावना तू कौन है ?

    अश्रु जब पड़े ढुलक
    कांपने लगे अधर
    तू बड़ी उदास सी
    मन में इक खटास सी
    देखता हूँ मौन है
    भावना तू कौन है ?

    अगर किसी से पट गई
    लाज से सिमट गई
    तू ऋदय सुवास बन
    हाँ! किसी की खास बन
    देखता हूँ मौन है
    भावना तू कौन है?

    पाप और दया में तू
    करुणा व हया में तू
    जुगुप्सा जिजीविषा
    कल्पना मोनालिसा
    देखता हूँ मौन है
    भावना तू कौन है?

    देवी देवता छवि
    संत साधु कवि
    सब  हैं तेरे  अधीन
    पाषाण  तेरे बिन
    देखता हूँ मौन है
    भावना  तू कौन है ?

    लेख हो या निबंध
    स्वच्छंद सानुबंध
    काव्य में कथा में तू
    मन की व्यथा में तू
    देखता हूँ मौन है
    भावना तू कौन है ?

    जल अगन थल गगन
    वायु के प्रवाह में
    चाह में आह में
    हर किसी की राह में
    देखता हूँ मौन  है
    भावना तू कौन है?

    कान में रस घोलती
    मौन हो के बोलती
    पल रही व पालती
    सँवारती व सालती
    देखता हूँ मौन  है
    भावना तू कौन है?

    #सुनील_गुप्ता
    केसला रोड
    सीतापुर सरगुजा
    छत्तीसगढ

  • अपनापन पर कविता

    अपनापन पर कविता

    अपनापन ये शब्द जहां का
    होता सबसे अनमोल
    प्यार नेह से मिल जाता
    संग जब हों मीठे बोल।

    अपनापन यदि जीवन में हो
    हर लम्हा रंगे बहार
    अपने ही गैर बन जाएं तो
    ग़म का दरिया है संसार।

    अपनेपन की अभिलाषी थी
    मैं अपनों की भीड़ में
    समझ न पाया मर्म मेरा कोई
    बह गई मैं इस पीर में।

    अपनों ने ही बदल रखी है
    अपनेपन की परिभाषा
    स्वार्थ बेरुखी संगदिल है
    छोड़ दी अपनेपन की आशा।

    कौन है अपना कौन  पराया
    दिल ये समझ न पाया
    तेरा मेरा अहं प्रबल  है
    मैंने क्या खोया क्या पाया।

    जिनको हमने अपना माना
    वक़्त पर बदल गए हैं
    फरेब प्रपंच मिला है उनसे
    जख्मों से झुलस रहे हैं।

    अपने ही गैर बने फिरते हैं
    उम्मीद क्यों अपनेपन की
    स्नेह तलाश में भटक रहे हैं
    कस्तूरी ज्यों मृग अंतसमन की।

    जीवन पथ पर मैंने अपनों  की
    बेरुखी का आलम देखा है
    प्रगाढ़ रिश्तों के बंधन को
    भग्नावशेष में देखा है।

    यदि अपनापन झोली में होता
    जीवन परिताप समझ पाते
    रंजो ग़म की स्याही में
    शायद न यूं हम बह पाते।

    कुसुम लता पुंडोरा
    आर के पुरम
    नई दिल्ली