यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०देवकरण गंडास अरविन्द के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .
हिय में सेवा भावना, नहीं किसी से बैर। स्वास्थ्य सभी का ठीक हो, त्याग दिए सुख सैर।। नित्य चिकित्सक कर्म रत, करे नहीं आराम। लड़ते अंतिम श्वांस तक,चाहे सबकी खैर।।
कठिन परीक्षा पास कर, बने चिकित्सक देख। धरती के भगवान है, बदले किस्मत रेख।। आओ हम सम्मान दे, उनको मिलकर आज। उठा शुभम कर लेखनी, लिख दो सुन्दर लेख।।
नित्य किताबों में गडे़ , करते हैं नव खोज। ढूँढे रोग निदान वह, त्यागे छप्पन भोज।। पल भर की फुरसत नहीं, तज के घर परिवार। नस-नस में ऊर्जा भरे, ऐसा उनका ओज।।
नीरामणी श्रीवास नियति कसडोल छत्तीसगढ़
काम डॉक्टर साहब आएँ
जीवन में आखिर कब तक हम, बोलो स्वस्थ यहाँ रह पाएँ बीमारी से पीड़ित हों तो, काम डॉक्टर साहब आएँ।
मानव तन इतना कोमल है, देता है सबको लाचारी तरह -तरह के रोगों से अब, घिरे हुए कितने नर- नारी बेचैनी जब बढ़ जाती है, रात कटे तब जगकर सारी बोझ लगे जीवन जब हमको, बने समस्या यह फिर भारी
मौत खड़ी जब लगे सामने, तब दिन में तारे दिख जाएँ बीमारी से पीड़ित हों तो, काम डॉक्टर साहब आएँ।
अपनी भूख- प्यास को भूले, सेवा में दिन- रात लगे हैं धन्य डॉक्टर साहब ऐसे, जन-जन के वे हुए सगे हैं सचमुच देवदूत हैं वे अब, उन्हें देख यमदूत भगे हैं मौत निकट जो समझ रहे, उनमें जीवन के भाव जगे हैं
जिनके पास नहीं हो पैसा, उनका भी वे साथ निभाएँ बीमारी से पीड़ित हों तो, काम डॉक्टर साहब आएँ।
जीव-जंतुओं के इलाज में, लगे हुए उनको क्यों भूलें पशु- पक्षी की सेवा करके, आज यहाँ वे मन को छू लें जो भी हमसे जुड़े हुए हैं, उन्हें देखकर अब हम फूलें आओ उनके साथ आज हम, सद्भावों का झूला झूलें
जिनके आगे लगे डॉक्टर, उनकी महिमा को हम गाएँ बीमारी से पीड़ित हों तो, काम डॉक्टर साहब आएँ।
यहाँ पर देवकरण गंडास अरविन्द की कवितायेँ दी जा रही हैं
श्रमिक का सफर
जब ढलता है दिन सब लौटते घर हर चेहरा कहां खुश होता है मगर, उसका रास्ता निहारती कुछ आंखें पर खाली हो हाथ तो कठिन डगर। ऐसा होता है श्रमिक का सफर…..
उसने सारा दिन झेला धूप पसीना बना लिया है उसने खुद को पत्थर हाथ पांव बन गए हो जैसे लोहे के और काठ के जैसी बन गई कमर। ऐसा होता है श्रमिक का सफर….
वह करता है दिलो जान से मेहनत वो सारा दिन ढोता है भार सर पर, पर सांझ ढले जब घर को चला वो उसके मन में आ जाता है एक डर। ऐसा होता है श्रमिक का सफर….
पत्नी की अंखियां भी पथ को देखे और उसे ताक रही बच्चों की नजर, लिए हाथ फावड़ा , कंधे पर तगारी आज बिन राशन के कैसे जाए घर। ऐसा होता है श्रमिक का सफर…..
वह ढूंढ रहा कोई रहबर मिले अब कैसी कठिन परीक्षा, ले रहा ईश्वर, कहीं से चंद पैसे मिल जाए उसको तो ही चूल्हा जलेगा उसके घर पर। ऐसा होता है श्रमिक का सफर…..
पूछती है
उलझन में डालकर उलझन का हल पूछती है, कमल से मिलकर कमल को कमल पूछती है, उसका यही अंदाज तो बेहद पसंद आया हमें, वो मिलकर आज से, कल को कल पूछती है।
वह शबनम से, उस पानी का असर पूछती है, वो मरुस्थल में , उस मिट्टी से शजर पूछती है, वो खुद है तलाश में , किसी नखलिस्तान की, उसकी नजर में है नजर , पर नजर पूछती है।
वो रहकर गगन में, आसमां की हद पूछती है, वो सूरज से उसकी किरणों की जद पूछती है, वो चली आई है बिना बताए मेरी सीमाओं में, और आकर मुझसे दिल की सरहद पूछती है।
वो लड़की
हर रोज मेरे पटल पर आकर थोड़ा बहुत कुछ कह जाती है कभी बातें करती बहुत सयानी कभी अल्हड़पन भर जाती है मेरे पटल पर आती वो लड़की मुझे बरबस ही खींचे जाती है।
कभी लगता है उसे जानता हूं फिर वो अनजान बन जाती है जितना समझूं मैं उतना उलझूं वो भी सुलझाकर उलझाती है मेरे पटल पर आती वो लड़की मुझे बरबस ही खींचे जाती है।
उसकी बातों में है चतुराई बहुत और सादगी भी वह दिखाती है मानस पटल पर आए प्रश्नों को कुशाग्र बुद्धि से वह मिटाती है मेरे पटल पर आती वो लड़की मुझे बरबस ही खींचे जाती है।
भूख : एक दास्तान
हमने तो केवल नाम सुना है हम ने कभी नहीं देखी भूख, जो चाहा खाया, फिर फैंका हम क्या जानें, है क्या भूख।
पिता के पास पैसे थे बहुत अपने पास ना भटकी भूख, झुग्गी बस्ती, सड़क किनारे तंग गलियों में अटकी भूख।
पढ़ ली परिभाषा पुस्तक में कि इतने पैसों से नीचे भूख, खाल से बाहर झांके हड्डियां रोज सैकड़ों आंखे मिचे भूख।
बच्चों में बचा है अस्थि पंजर इनका मांस भी खा गई भूख, हमको क्या , हम तो जिंदा हैं भूख में भूख को खा गई भूख।
सब जग बोलेगा जय श्री राम
जन्म लिया प्रभु ने धरती पर तो यह धरती बनी सुख धाम, गर्व है, हम उस मिट्टी में खेले जहां अवतरित हुए प्रभु राम।
राम नाम में सृष्टि है समाहित इस नाम में बसे हैं चारों धाम, हर संकट को झट से हर लेते सब मिल बोलो जय श्री राम।
जिनकी मर्यादा एक शिखर है और पितृभक्ति का है गुणगान, हर कष्ट सहा पर मन ना डगा मेरे मन में बसते ऐसे श्री राम।
सुख वैभव का उन्हें मोह नहीं दीन दुख हरण है उनका नाम, नाश किया उन्होंने अधम का धर्म संस्थापक हैं मेरे प्रभु राम।
बस राम नाम के मैं गुण गाऊं उन्हें कोटि कोटि करूं प्रमाण, राम नाम ही तारेगा भवसागर सब जग बोलेगा जय श्री राम।
जरूरी है देश
देश के रखवालों को मार रहे हैं वो इस राष्ट्र में फैला रहें हैं द्वेष, अब तो जागो सत्ता के मालिक अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।
होकर इकट्ठा बने रोग के वाहक क्यों आ रहे इनसे नरमी से पेश, अब बंद करवा दो सभी दुकानें अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।
हर भारतवासी विनती कर रहा अब रोक लो, अभी समय शेष, ये मानव के दुश्मन ना समझेंगे अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।
जब वतन में अमन आ जाएगा तो ओढ़ लेना तुम धर्म का भेष, अभी विपदा खड़ी समक्ष हमारे अभी धर्म तुच्छ, जरूरी है देश।
पुनः विश्व गुरु बनेगा भारत
हम पहले हुआ करते थे विश्वगुरु, हमारी ज्ञान पताका फहराती थी, सकल चराचर है परिवार हमारा , ये बात हवाएं भी गुनगुनाती थी।
लेकिन आधुनिक बनते भारत ने, खो दिया है विश्व गुरु उपाधि को, हम बन गए अनुगामी पश्चिम के, पालने लगे हैं व्यर्थ की व्याधि को।
हम भूल बैठे अपनी संस्कृति को, और पश्चिम के पीछे लटक गए , दया, धर्म, ज्ञान और प्रकृति के, हम उद्देश्य से थे अपने भटक गए।
पर आज लौट रहा है मेरा भारत, पुनः अपने मूल प्राचीन पथ पर, ये वैश्विक शांति का अगुवा बना, हो रहा विश्व गुरु पथ पर अग्रसर।
आज विश्व की सब सभ्यताओं ने, हमारी संस्कृति को गुरु माना है, पश्चिम के देश चले पूरब की ओर, हमारी ओर देख रहा जमाना है।
भारतीय ज्ञान, विज्ञान और योग को, आज हर राष्ट्र ने अपनाया है,
गूंजेगा वसुधैव कुटुंबकम् नारा, आज विश्व ने भारत को बुलाया है।
दो रोटी
जर्जर सा बदन है, झुलसी काया, उस गरीब के घर ना पहुंची माया, उसके स्वेद के संग में रक्त बहा है तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
हर सुबह निकलता नव आशा से, नहीं वह कभी विपदा से घबराया, वो खड़ा रहा तुफां में कश्ती थामे तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
वो नहीं रखता एहसान किसी का, जो पाया, उसका दो गुना चुकाया, उस दर को सींचा है अपने लहू से तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
उसकी इस जीवटता को देख कर वो परवरदिगार भी होगा शरमाया, पहले घर रोशन किए है जहान के तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
क्या राम फिर से आएंगे
तड़प उठी है नारी बन रही है पत्थर, दबा दिया है उसने अपने अरमानों को, छुपा लिया है उसने अपने मनोभावों को, वो जिंदा तो है मगर जीती नहीं जिंदा की तरह, जमाने की निष्ठुरता ने उसे बना दिया है अहिल्या, और आज वो इंतजार में है कि क्या राम फिर से आएंगे।
त्रेता युग में उद्धार किया था राम ने श्रापित अहिल्या का, उस पत्थर में उसने डाला था नया प्राण नव जीवन का, मगर क्या इस कलयुग में भी होती शापित नारी को बचाएंगे, तार तार हो रही इस नारी को क्या वो भव सागर तार पाएंगे, हर गली चौराहे बैठे हैं रावण करने को हरण सीता का यहां, सुनकर नारी की करुण पुकार क्या सांत्वना उसे वो दे पाएंगे, सोच रही है पत्थर की अहिल्या कि क्या राम फिर से आएंगे।
आओ मिलकर दीप जलाएं
अगर दीप जलाना है हमको तो पहले प्रेम की बाती लाएं घी डालें उसमें राष्ट्र भक्ति का और राष्ट्र का गुण गान गाएं। आओ मिल कर दीप जलाएं
जाति पांती वर्ग भेद भुलाकर हम हर मानव को गले लगाएं राष्ट्र में स्थापित हो समरसता हम हर पर्व साथ साथ मनाएं। आओ मिल कर दीप जलाएं।
भुलाकर नफ़रत को अब हम दया, प्रेम और सौहार्द बढ़ाएं अमन, प्रेम और मानवता का हम इस जगत को पाठ पढ़ाएं। आओ मिल कर दीप जलाएं।
दीन दुखी पिछड़े तबकों को हाथ पकड़ हम साथ में लाएं ना भूखा सोए एक मुसाफिर हम भूखे को खाना खिलाएं। आओ मिल कर दीप जलाएं।
जब देश में कोई विपदा आए हम सब हाथ से हाथ मिलाएं सर्वस्व न्यौछावर करें राष्ट्र पर और राष्ट्र हित में जान लुटाएं। आओ मिल कर दीप जलाएं।
नापाक ताकतें तोड़ेंगी हमको हम नहीं उनकी बातों में आएं हम हैं हिंद देश के हिन्दुस्तानी हिन्दुस्तान के रंग में रंग जाएं। आओ मिल कर दीप जलाएं।
जीवन सफर
सुन लो जीवन के मुसाफिर, यूं ना इसको बर्बाद करो,
रंग भरो तुम अपने इसमें, औरों से नहीं फरियाद करो,
लोग बड़े बेरहम यहां पर, तेरे जले पर नमक लगाएंगे
अपने ज़ख्म आप संभालो, खुद को ख़ुद आबाद करो।
दुनियां की यहां रीत निराली, ये तुमको आगे बढ़ाएंगे,
जो तुम आगे बढ़ जाओगे, ये पांव खींचने लग जाएंगे,
औरों का आगे बढ़ना, कभी बर्दाश्त नहीं ये कर सकते
तुम्हें नीचे गिराने के चक्कर में, खुद नीचे गिरते जाएंगे।
जीवन सफर अबूझ रहस्य, आगे क्या होगा ध्यान नहीं,
आज को जी ले जी भर के, कोई शेष रहे अरमान नहीं,
कल का सोच क्यों आज परेशान, कल किसने देखा है
जीवन जिंदा लोगों का है, मर गए तो घर में स्थान नहीं।