लोकन बुढ़िया
स्कूल कैंपस के ठीक सामने
बरगद के नीचे
नीचट मैली सूती साड़ी पहनी
मुर्रा ज्वार जोंधरी के लाड़ू
और मौसमी फल इमली बिही बेर बेचती
वह लोकन बुढ़िया
आज भी याद है मुझे
उस अकेली बुढ़िया को
स्कूल के हम सब बच्चे जानते थे
मगर आश्चर्य तो यह है
उस बुढ़िया की धुंधली आंखें
हम सबको पहचानती थी
हम सबका नाम जानती थी उसकी स्मृति
हमारे पाँच-दस पैसों की खरीदी से
उसे कितना फायदा होता था
हमें नहीं पता
पर वह समय से रोज
अपने ठीए पर बैठी मिलती थी
अपार प्रेम और सहानुभूति से भरी
वह लोकन बुढ़िया
भांप लेती थी हमारे चेहरे के भाव
पढ़ लेती थी हमारी आंखों की भाषा
हमारे पास कभी पैसे ना होने पर
वह भूल जाती थी
अपना व्यावसायिक धर्म
और हमारी दी हुई गालियां
यूं ही दे देती थी खाने के लिए लाड़ू
— नरेंद्र कुमार कुलमित्र
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