राजा बसंत / राजकुमार मसखरे
आ…जा आ…जाओ,हे ! ऋतुराज बसन्त,
अभिनंदन करते हैं तेरा, अनन्त अनन्त !
मचलते,इतराते,बड़ी खूबसूरत हो आगाज़,
आओ जलवा बिखेरो,मेरे मितवा,हमराज़ !
देखो अब ये सर्दियाँ, ठिठुरन तो जाने लगी,
यह सुहाना मौसम, सभी को है भाने लगी !
पेड़- पौधों में नव- नव कोपलें आने को हैं,
अमियाँ में तो बौर ही बौर ,लद जाने को हैं !
खेतों में सरसों के फूल, झूमें हैं पीले-पीले,
अब राग-रंग का उत्सव,जो हैं खिले-खिले !
इसीलिए सभी ऋतुओं का जी राजा है तू,
ये अजब-गज़ब फ़िज़ाओं को साजा है तू !
सङ्ग-सङ्ग,होली-धुलेड़ी,उत्सव ‘रंग पंचमी’
नवरात्रि, रामनवमी से, सजी है यह जमीं !
पलास की लाली,सवंत्सर,हनुमान जयंती,
वो गुरु पूर्णिमा का पर्व ख़ूब है जो मनती !
संगीत में है राग,,,जी विशेष बसंत बहार ,
साहित्य में काली दास ने रचा ‘ऋतुसंहार’,
बसन्त ने मोह लिया ‘निराला’ को निराला,
कवि ‘देव’ नंदन,पंत,टैगोर ने लिख डाला !
बसंत ऋतु प्रकृति का,यह अनुपम रूप है,
महके ये कली-कली,कानन खिली धूप है !
कोयल,मोर,पपीहे व भौरें छेड़े नये तराने,
बसंत के ये रंग में सब,आतुर है रंग जाने !
हे ऋतुओं के राजा,तेरी अलग ही शान है,
‘मसखरे’ को अपना ले ,तू तो मेरी जान है !
हे बसंत ! सङ्ग में बसंती को भी लाना है,
चैतू,बैसाखू,जेठू को भी अपना बनाना है !
— राजकुमार ‘मसखरे’
मु.-भदेरा ( पैलीमेटा /गंडई )
जि.- के.सी.जी.,( 36-गढ़