Tag: Hindi Poem on Magh Basant Panchami

  • बसंत ऋतु / राजकुमार मसखरे

    बसंत ऋतु / राजकुमार मसखरे

    राजा बसंत / राजकुमार मसखरे

    बसंत ऋतु
    बसंत ऋतु


    आ…जा आ…जाओ,हे ! ऋतुराज बसन्त,
    अभिनंदन करते हैं तेरा, अनन्त अनन्त !

    मचलते,इतराते,बड़ी खूबसूरत हो आगाज़,
    आओ जलवा बिखेरो,मेरे मितवा,हमराज़ !

    देखो अब ये सर्दियाँ, ठिठुरन तो जाने लगी,
    यह सुहाना मौसम, सभी को है भाने लगी !

    पेड़- पौधों में नव- नव कोपलें आने को हैं,
    अमियाँ में तो बौर ही बौर ,लद जाने को हैं !

    खेतों में सरसों के फूल, झूमें हैं पीले-पीले,
    अब राग-रंग का उत्सव,जो हैं खिले-खिले !

    इसीलिए सभी ऋतुओं का जी राजा है तू,
    ये अजब-गज़ब फ़िज़ाओं को साजा है तू !

    सङ्ग-सङ्ग,होली-धुलेड़ी,उत्सव ‘रंग पंचमी’
    नवरात्रि, रामनवमी से, सजी है यह जमीं !

    पलास की लाली,सवंत्सर,हनुमान जयंती,
    वो गुरु पूर्णिमा का पर्व ख़ूब है जो मनती !

    संगीत में है राग,,,जी विशेष बसंत बहार ,
    साहित्य में काली दास ने रचा ‘ऋतुसंहार’,

    बसन्त ने मोह लिया ‘निराला’ को निराला,
    कवि ‘देव’ नंदन,पंत,टैगोर ने लिख डाला !

    बसंत ऋतु प्रकृति का,यह अनुपम रूप है,
    महके ये कली-कली,कानन खिली धूप है !

    कोयल,मोर,पपीहे व भौरें छेड़े नये तराने,
    बसंत के ये रंग में सब,आतुर है रंग जाने !

    हे ऋतुओं के राजा,तेरी अलग ही शान है,
    ‘मसखरे’ को अपना ले ,तू तो मेरी जान है !

    हे बसंत ! सङ्ग में बसंती को भी लाना है,
    चैतू,बैसाखू,जेठू को भी अपना बनाना है !

    — राजकुमार ‘मसखरे’
    मु.-भदेरा ( पैलीमेटा /गंडई )
    जि.- के.सी.जी.,( 36-गढ़

  • बसंत  की  बहार में

    बसंत  की  बहार में

    बसंत दूत कोकिला, विनीत मिष्ठ बोलती।
    बखान रीत गीत से, बसंत गात  डोलती।

    बसंत  की  बहार में, उमा महेश साथ  में।
    बजाय कान्ह बाँसुरी,विशेष चाल हाथ में।

    दिनेश  छाँव  ढूँढते , सुरेश  स्वर्ग  वासते।
    सुरंग  पेड़  धारते, प्रसून  काम    सालते।

    कली खिले बने प्रसून, भृंग संग  सोम से।
    खिले विशेष  चंद्रिका  मही रात व्योम से।

    पपीह मोर  चातकी  चकोर शोर काम के।
    बसंत  बाग  फाग में  बहार बौर आम के।

    बटेर   तीतरी  कपोत, कीर  काग  बावरे।
    लता  लपेट खाय, पेड़ मौन कामना  भरे।

    निपात होय पेड़ जोह बाट फूल पात की।
    विदेश पीव  है, बसंत याद आय  पातकी।

    स्वरूप  ये  मही सजे, समुद्र छाल  मारते।
    पलंग शेष  क्षीर सिंधु,विष्णु श्री विराजते।

    मचे  बवाल कामना, पिया पिया पुकारते।
    बढ़े, सनेह  भावना, बसंत  काम  भावते।

    निराश नहीं छात्र हो, नवीन पाठ सीखते।
    बसंत  के  प्रभाव  गीत चंग संग  दीखते।

    मने , बसंत  पंचमी, मनाय  मात  शारदा।
    मिटे समस्त कामना,पले न घोर  आपदा।

    विवेक शील ज्ञान संग  आन मान शान दे।
    अँधेर नाश  मानवी प्रकाश स्वाभिमान दे।

    बसंत  की  उमंग    संग  पूजनीय  शारदे।
    किसान भाग्य खेल मात कर्ज भार तारदे।

    फले चने  कनेर  आम  कैर बौर  खेजड़ी।
    प्रसून खूब  है खिले शतावरी खिले जड़ी।

    पके अनाज,खेत में  कपोत  कीर  तारते।
    नसीब, हाय होलिके, हँसी खुशी पजारते।

    विवाह साज  साजते, विधान ईश  मानते।
    समाज के विकास को,सुरीत प्रीत पालते।

    विशेष शीत मुक्ति से,सिया समेत राम से।
    घरों समेत खेत के, सुकाम मे सभी  लसे।

    विशाल भाल भारती,नमामि मात आरती।
    हिमालयी  प्रपात  नीर  मात गंग  धारती।

    अखंड  देश  संविधान  वीर  रक्ष  सर्वदा।
    प्रणाम है शहीद को, नमामि  नीर  नर्मदा।

    बसंत  की उमंग, फाग संग छंद  भावना।
    सुरंग भंग  चंग  मंद  मोर  बुद्धि  मानना।


    .          बाबू लाल शर्मा °बौहरा”
    .        सिकंदरा, दौसा,राजस्थान

  • बसंत पंचमी पर गीत – सुशी सक्सेना

    मेरे मन का बसंत

    बसंत ऋतु का, यहां हर कोई दिवाना है।
    क्या करें कि ये मौसम ही बड़ा सुहाना है।
    हर जुबां पर होती है, बसंत ऋतु की कहानी।
    सुबह भी खिली खिली, शाम भी लगती दिवानी।

    चिड़ियों ने चहक कर, सबको बता दिया।
    बसंत ऋतु के आगमन का पता सुना दिया।
    पतझड़ बीत गया, बन गया बसंती बादल।
    पीली चुनरिया ओढ़ कर, झूम उठा ये दिल।

    बसंत एक दूत है, देता प्रेम का संदेश।
    मेरे मन में बसंत का जब से हुआ प्रवेश।
    मन का उपवन खिल उठा, छा गई बहार।
    बसंत ऋतु में नया सा लगने लगा संसार।

    नये फूल खिले, नई ख्वाहिशें मचली।
    मन के उपवन में मंडराने लगी तितली।
    प्रीत का अब तो मुझको, हो गया अहसास।
    सुंगधित हवा कहती है, कोई है मन के पास।

    सुशी सक्सेना

  • सार छंद विधान -ऋतु बसंत लाई पछुआई

    सार छंद विधान -ऋतु बसंत लाई पछुआई

    छंद
    छंद

    सार छंद विधान- (१६,१२ मात्राएँ), चरणांत मे गुरु गुरु, ( २२,२११,११२,या ११११)

    ऋतु बसंत लाई पछुआई,
    बीत रही शीतलता।
    पतझड़ आए कुहुके,कोयल,
    विरहा मानस जलता।

    नव कोंपल नवकली खिली है,
    भृंगों का आकर्षण।
    तितली मधु मक्खी रस चूषक,
    करते पुष्प समर्पण।

    बिना देह के कामदेव जग,
    रति को ढूँढ रहा है।
    रति खोजे निर्मलमनपति को,
    मन व्यापार बहा है।

    वृक्ष बौर से लदे चाहते,
    लिपट लता तरुणाई।
    चाह लता की लिपटे तरु के,
    भाए प्रीत मिताई।

    कामातुर खग मृग जग मानव,
    रीत प्रीत दर्शाए।
    कहीं विरह नर कोयल गाए,
    कहीं गीत हरषाए।

    मन कुरंग चातक सारस वन,
    मोर पपीहा बोले।
    विरह बावरी विरहा तन मे,
    मानो विष मन घोले।

    विरहा मन गो गौ रम्भाएँ,
    नेह नीर मन चाहत।
    तीर लगे हैं काम देव तन,
    नयन हुए मन आहत।

    काग कबूतर बया कमेड़ी,
    तोते चोंच लड़ाते।
    प्रेमदिवस कह युगल सनेही,
    विरहा मनुज चिढ़ाते।

    मेघ गरज नभ चपला चमके,
    भू से नेह जताते।
    नीर नेह या हिम वर्षा कर,
    मन का चैन चुराते।

    शेर शेरनी लड़ गुर्रा कर,
    बन जाते अभिसारी।
    भालू चीते बाघ तेंदुए,
    करे प्रणय हित यारी।

    पथ भूले आए पुरवाई,
    पात कली तरु काँपे।
    मेघ श्याम भंग रस बरसा,
    यौवन जगे बुढ़ापे।

    रंग भंग सज कर होली पर,
    अल्हड़ मानस मचले।
    रीत प्रीत मन मस्ती झूमें,
    खड़ी फसल भी पक ले।

    नभ में तारे नयन लड़ा कर,
    बनते प्रीत प्रचारी।
    छन्न पकैया छन्न पकैया,
    घूम रही भू सारी।
    . _____
    बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

  • मकर से ऋतुराज बसंत (दोहा छंद)-बाबू लाल शर्मा

    मकर से ऋतुराज बसंत (दोहा छंद)-बाबू लाल शर्मा


    सूरज जाए मकर में, तिल तिल बढ़ती धूप।
    फसले सधवा नारि का, बढ़ता रूप स्वरूप।।
    .
    पशुधन कीट पतंग भी, नवजीवन मम देश।
    वन्य जीव पौधे सभी, कली खिले परिवेश।।
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    तितली भँवरे मोर पिक, करते हैं मनुहार।
    ऋतु बसंत के आगमन, स्वागत करते द्वार।।
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    मानस बदले वसन ज्यों, द्रुम दल बदले पात।
    ऋतु राजा जल्दी करो, बिगड़ी सुधरे बात।।
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    शीत उतर राहत मिले ,होवें शुभ सब काज।
    उम्मीदें ऋतुराज से, करते हैं सब आज।।
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    ऋतु राजा भी आ रहे, अब तो आओ कंत।
    विरहा के मनराज हो, मेरे मनज बसंत।।
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    रथी उत्तरायण चला, अब तो प्रिय रविराज।
    प्रिये मिलन को बावरी, पाती लिखती आज।।
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    प्रियतम आओ तो प्रिये, ऋतु बसंत के साथ।
    सत फेरों की याद कर, वैसे पकड़ें हाथ।।
    .
    कंचन निपजे देश में, कनक विहग सम्मान।
    चाँदी सी धरती तजी, परदेशी मिथ शान।।
    .
    आजा प्रियतम देश में, खूब मने संक्रांति।
    माटी अपने देश हित, मिटा पिया मन भ्रांति।।
    .
    प्रीतम तिल तिल जोड़ती, लड्डू बनते आज!
    बाँट निहारूँ साँवरे, तकूँ पंथ आवाज।।

    © बाबू लाल शर्मा “बौहरा” , विज्ञ