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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०नरेन्द्र कुमार कुलमित्रके हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • लौट आओ बसंत

    लौट आओ बसंत


    न खिले फूल न मंडराई तितलियाँ
    न बौराए आम न मंडराए भौंरे
    न दिखे सरसों पर पीले फूल
    आख़िर बसंत आया कब..?

    पूछने पर कहते हैं–
    आकर चला गया बसंत !
    मेरे मन में रह जाते हैं कुछ सवाल
    कब आया और कब चला गया बसंत ?
    कितने दिन तक रहा बसंत ?
    दिखने में कैसा था वह बसंत ?

    कोई उल्लास में दिखे नहीं
    कोई उमंग में झूमे नहीं
    न प्रेम पगी रातें हुई
    न कोई बहकी बहकी बातें हुई

    मस्ती और मादकता सब भूल गए
    न जाने कितने होश वाले और समझदार हो गए

    अरे छोड़ो भी इतनी समझदारी ठीक नहीं
    कहीं सूख न जाए हमारी संवेदनाओं की धरती

    प्रेम से मिले हम खिले हम महके हम
    मुरझाए से जीवन में फिर से बसंत उतारे हम ।

    नरेंद्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • तोड़े हुए रंग-बिरंगे फूल :नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    तोड़े हुए रंग-बिरंगे फूल

    तोड़े हुए रंग-बिरंगे फूल :नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    टीप-टीप बरसता पानी
    छतरी ओढ़े
    सुबह-सुबह चहलकदमी करते
    घर से दूर सड़कों तक जा निकला
    देखा–
    सड़क के किनारे
    लगे हैं फूलदार पौधे कई
    पौधों पर निकली हैं कलियाँ कई
    मग़र कहीं भी
    दूर-दूर तक पौधों पर
    खिले हुए फूल एक भी नहीं
    सहसा नजरें गई
    नहाए न धोए
    फूल चुन रहे पौधों से
    महिला-पुरुष कई-कई
    वही जो कहलाते आस्तिक जन
    रखे हुए हैं झिल्ली में
    तोड़े हुए रंग-विरंगे फूल
    देखा मैंने–
    कलियाँ थी सहमी-सहमी
    पौधे भी थे सहमे-सहमे
    याद हो आया तत्क्षण मुझे
    अज्ञेय की कविता
    “सम्राज्ञी का नैवेद्य दान”
    फूलों को डाली से न विलगाना
    महाबुद्ध के समक्ष
    सम्राज्ञी का रीते हाथ आना
    सोचा फिर–
    मैले,अपवित्र हाथों से अर्पित
    तोड़े हुए निस्तेज फूलों से
    भला कैसे प्रसन्न होते होंगे
    अक्षर-अखण्ड देव ! प्रभु !!

    – नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

  • अरे लकीर के फकीरों

    अरे लकीर के फकीरों

    अपने-अपने मुहावरों पर
    वे और तुम
    जिते आ रहे हो सदियों से
    मुहावरा कभी बदला ही नहीं
    न उनका न तुम्हारा

    शासक हैं वे
    बागडोर है उनके हाथों में
    वे अपने मुहावरों पर
    रहते हैं सदा कायम

    तुम्हारे लिए
    वे जो भी कहते हैं
    कभी नहीं बदलते
    चाहे जो हश्र हो तुम्हारा
    वे अपने मुहावरों के पक्के हैं

    एक बार कह देने के बाद
    ‘पत्थर की लकीर’ होती है
    उनकी बातें
    यही तो उनका मुहावरा है

    उम्मीद कतई मत रखो
    कि तुम्हारे हितों में
    वे बदलेंगे
    अपने जिद्दी मुहावरे और स्याह उसूल

    तुम्हारी माँग
    या तुम्हारी याचना
    उसके अहम भरे उसूलों को
    कभी नहीं बदल सकते

    शासित हो तुम
    तुम्हारे मन-मस्तिष्क में
    गहरे रच-बस गए हैं
    उनकी बागडोर का हsउsआ

    तुम भी
    अपने जीर्ण-शीर्ण उसूलों के
    कम पक्के तो नहीं हो
    अपने स्याह उसूलों पर
    चिपके रहते हो एकदम अडिग

    तुम तो
    अपनों के लिए भी
    नहीं बदलते हो
    अपने थोथे उसूल

    बदलना तुम्हारी फ़ितरत ही नहीं
    तुम मरते दम तक
    बस ‘लकीर के फ़कीर’ बने रहते हो

    एक बात जान लो
    उनके पत्थर की लकीर बातों को
    उनके दंभी उसूलों को
    उनके जिद्दी मुहावरों को
    बदलने के लिए
    पहले तुम्हें बदलनी ही होगी
    अपनी’लकीर के फ़कीर ‘वाली
    सदियों पुरानी वह आदत
    और
    अपना घीसा-पिटा वह मुहावरा।

    नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • हिन्दी कविता: वक्ता पर कविता– नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    वक्ता पर कविता- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    हे मेरे प्यारे वक्ता
    वाक कला में प्रवीण
    बड़बोला महाराज
    बातूनी सरदार
    कृपा करके हमें भी बताओ
    कि तुम इतना धारा प्रवाह
    कैसे बोल लेते हो..?
    बिना देखे,बिना रुके
    घंटों बोलने की कला
    आख़िर तुमने कैसे सीखी है..?
    दर्शकों को
    गुदगुदाने वाली कविताएँ
    जोश भरने वाली शायरियां
    और नैतिक उपदेश वाले
    संस्कृत के इतने सारे श्लोक
    तुमने भला कैसे याद किए हैं..?
    मुझे नहीं लगता
    कि केवल बोलने लिए
    इतना परिश्रम, इतना अभ्यास
    सिवाय तुम्हारे
    भला कोई और कर सकता है..?

    तुम्हारा भाषण सुनकर
    मंत्रमुग्ध हो जाती हैं जनता
    तुम अपने जादुई शब्दों से
    लोगों में बाँध देते हो समा
    तुम्हारी सभाओं में
    लगातार गूँजती है
    तालियों की गड़गड़ाहट
    जब तुम ‘भारत माता की जय’
    की बुलंद नारे के साथ
    अपने भाषण को देते हो विराम
    तुम्हारे स्वागत में उठ खड़े होते हैं
    मंचासीन सारे लोग
    हाथ जोड़कर
    करते हैं अभिवादन
    सचमुच तुम
    इतना अच्छा बोलते हो
    कि तुम्हारे लाखों मुरीद बन जाते हैं
    अनगिनत दीवाने हो जाते हैं
    नवयुवा पीढी
    तुम्हारे पदचिन्हों पर
    चलने को बड़े बेताब लगते हैं

    पर मैंने सुना है
    कि गरजने वाले बादल
    कभी बरसते नहीं
    भौकने वाले कुत्ते
    कभी काटते नहीं
    तो क्या मान लूं
    बोलने वाला बड़बोला वक्ता
    कभी कुछ करते ही नहीं..?
    वैसे भी
    जब करने वाले के पास
    बोलने का वक्त नहीं होता
    फिर बोलने वाले के पास
    कुछ करने का वक्त भला कैसे होगा..?

    हे बोलने की संस्कृति
    के जन्मदाता
    तुम अपनी
    वक्तृता क्षमता के कारण
    दुनियां में सदा अमर रहोगे
    बोलने में ही तुम्हारा पहचान है
    तुम बस यूं ही बोलते ही रहो
    जब-जब केवल
    बोलने वालों की बात होगी
    तुम सदैव याद किए जावोगे।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • हिन्दी कविता: रायपुर सेंट्रल जेल में-नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

    रायपुर सेंट्रल जेल में-नरेन्द्र कुमार कुलमित्र


    रायपुर में पढ़ता था मैं
    पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय
    था दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी
    जन्मभूमि सा प्यारा था आज़ाद छात्रावास

    गाँव वालों की नज़रों में
    था बड़ा पढन्ता
    मेरे बारे में कहते थे वे–
    “रइपुर में पढ़ता है पटाइल का नाती।”

    मेरे गाँव के पास का एक गाँव
    जहाँ रहती थी मेरी फुफेरी दीदी
    फुफेरा जीजा था जो हत्यारा
    खेती के झगड़े में कर दिया था
    किसी का ख़ून
    उम्र क़ैद की सज़ा भोग रहा था
    रायपुर सेंट्रल जेल में

    दीदी के गुजारिश पर
    एक बार गया था उससे मिलने
    साथ ले गया था
    उसकी फरमाइश की सामानें
    मेघना बीड़ी का आधा पुड़ा
    पांच डिब्बा गुड़ाखू तोता छाप
    और साथ में माचिस,मिक्चर भी

    बड़ा अजीब लग रहा था मुझे
    सोच रहा था कोई दोस्त न मिले रस्ते में
    गर किसी को बताना पड़े
    कि मैं जा रहा हूँ कहाँ..?
    तो वे क्या सोचेंगे मेरे बारे में
    यही कि मैं हूँ अपराधी का संबंधी
    शून्य से नीचे था मेरा आत्मविश्वास
    मुँह पर रूमाल बाँधकर
    दोस्तों से नजरे चुराता
    निकला था विश्विद्यालय कैंपस से
    सेंट्रल जेल रायपुर के लिए

    जेल परिसर में
    कैदियों से मिलने वालों की लगी थी भींड़
    एक आरक्षक नोट कर रहा था
    आगन्तुकों का नाम,पता और क़ैदी से उसका रिश्ता
    मुझे नाम पता के साथ
    बताना पड़ा था साला होने का संबंध
    कैदी से अपना संबंध ऊफ !
    भर गया था मैं गहरे अपराध बोध से
    मन ही मन उस अपराधी जीजा को दिया था गाली
    साssलाss जीजा

    मैं इन्तिजार करता रहा
    दो घंटे बाद भी नहीं पुकारा गया मेरा नाम
    चुपचाप देख रहा था पूरा माज़रा
    मुझसे बाद आए कितने
    और मिलकर चले भी गए
    पहले मिलने के लिए
    पुलिस को देना पड़ता था सौ-पचास के नोट
    अपराध को रोकने वाले
    ख़ुद खेल रहे थे अपराध का खेल

    गुस्से में सहसा मैं फूट पड़ा था
    चिल्लाया था ज़ोरदार
    ये सब क्या हो रहा है..?
    मुझे मिलने क्यों नहीं दे रहे हो..?
    बाद में आए वो कैसे मिल लिए..?
    पुलिसवाले ने गुर्राया था मुझ पर
    ” ऐ चिल्लाओ मत नहीं तो डाल दूँगा तुम्हें भी जेल में।”

    देखते ही देखते
    मेरी तरह के पीड़ित दो-चार लोग
    शामिल हो गए थे मेरे साथ
    जेल प्रशासन के ख़िलाफ़
    हम लोग मिलकर करने लगे थे शोरगुल

    मेरे शाब्दिक हमले से
    सकपका गया था पुलिसवाला
    फिर तो जल्दी ही पुकारा गया था मेरा नाम
    एक लंबे इन्तिजार के बाद आई थी मेरी बारी
    मैं देख पा रहा था
    उसका जालीदार चेहरा
    लगभग अस्पष्ट-सा जाली के उस पार
    जो था अपराधी,हत्यारा और जीजा
    जो भोग रहा था उम्र कैद की सज़ा
    रायपुर सेंट्रल जेल में

    आज दिनभर की यही कमाई थी मेरी
    आखिरकार अनचाहे ही सहीं
    खुद को एक अच्छा भाई साबित कर दिया था।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479