पानी के रूप
धरती का जब मन टूटा तो
झरना बन कर फूटा पानी
हृदय हिमालय का पिघला जब
नदिया बन कर बहता पानी ।।
पेट की आग बुझावन हेतु
टप टप मेहनत टपका पानी
उर में दर्द समाया जब जब
आँसू बन कर बहता पानी ।।
सूरज की गर्मी से उड़ कर
भाप बना बन रहता पानी
एक जगह यदि बन्ध जाए तो
गगन मेघ रचता है पानी ।।
धूल कणों से घर्षण करके
वर्षा बन कर गिरता पानी
धरती पर कलकल सा बह कर
सबकी प्यास बुझाता पानी ।।
धरती के भीतर से आ कर
चारों ओर फैलता पानी
कहीं झील कहीं बना समंदर
सुंदर धरा बनाता पानी ।।
अपनी उदार वृत्ति से देखो
सबको जीवित रखता पानी
कहीं बखेरी हरियाली तो
अन्न अरु फूल उगाता पानी ।।
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सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद