उड़ जाए यह मन

पुस्तक

(१६ मात्रिक)

यह,मन पागल, पंछी जैसे,
मुक्त गगन में उड़ता ऐसे।
पल मे देश विदेशों विचरण,
कभी रुष्ट,पल मे अभिनंदन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल में अवध,परिक्रम करता,
सरयू जल मन गागर भरता।
पल में चित्र कूट जा पहुँचे,
अनुसुइया के आश्रम पावन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल शबरी के आश्रम जाए,
बेर, गुठलियाँ मिलकर खाए।
किष्किन्धा हनुमत से मिलता,
कपिदल,संगत यह करे जतन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल में सागर तट पर जाकर,
रामेश्वर के दर्शन पा कर।
पल मे लंक,अशोक वाटिका,
मिलन विभीषण,पहुँच सदन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल में रावण दल से लड़ता,
राक्षसवृत्ति शमन मन करता।
अगले पल में रघुवर माया,
सियाराम के भजन समर्पण,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

पल मे हनुमत संगत जाता,
संजीवन बूटी ले आता।
मन यह पल मे रक्ष संहारे,
पुष्पक बैठे अवध आगमन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

राजतिलक से राम राज्य के,
सपने देखे कभी सुराज्य के।
मन पागल या निशा बावरी,
भटके मन घर सोया रह तन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

मै सोचूँ सपनों की बातें,
मन की सुन्दर, काली रातें।
सपने में तन सोया लेकिन,
रामायण पढ़ करे मनन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

मेरा मन इस तन से अच्छा,
प्रेम – प्रतीत रीत में सच्चा।
प्रेमी,बैरी, कुटिल,पूज्यजन,
मानव आनव को करे नमन,
मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।
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बाबू लाल शर्मा, बौहरा , विज्ञ

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