मन पर कविता

मन पर कविता

kavita


(१६,१६)

मानव तन में मन होता है,
जागृत मन चेतन होता है,
अर्द्धचेतना मन सपनों मे,
शेष बचे अवचेतन जाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन के भिन्न भिन्न भागों में,
इड़, ईगो अरु सुपर इगो में।
मन मस्तिष्क प्रकार्य होता,
मन ही भटके मन की माने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन करता मन की ही बातें,
जागत सोवत सपने रातें।
मनचाहे दुतकार किसी का,
मन,ही रीत प्रीत सनमाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन चाहे मेले जन मन को,
मेले में एकाकी पन को।
कभी चाहता सभी कामना,
पाना चाहे खोना जाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन चाहे मैं गगन उड़ूँगा,
सब तारो से बात करूँगा।
स्वर्ग नर्क सब देखभाल कर,
नये नये इतिहास रचाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

सागर में मछली बन तरना,
मुक्त गगन पंछी सा उड़ना।
पर्वत पर्वत चढ़ता जाऊँ,
जीना मरना मन अनुमाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन ही सोचे जाति पंथ से,
देश धरा व धर्म ग्रंथ से।
बैर बाँधकर लड़ना मरना,
कभी एकता के अफसाने,
मन की गति मन ही पहचाने।

मन की भाषा या परिभाषा,
मन की माने,मन अभिलाषा।
सच्चे मन से जगत कल्पना,
अपराधी मन क्योंकर माने,
मन की गति मन ही पहचाने।


बाबू लाल शर्मा “बौहरा” *विज्ञ*

Leave a Comment