कुम्हार को समर्पित कविता -निहाल सिंह
फूस की झोपड़ी तले बैठकर।
चाक को घुमाता है वो दिनभर।
खुदरे हुए हाथों से गुंदके
माटी के वो बनाता है मटके
तड़के कलेवा करने के बाद
लगा रहता है वो फिर दिन- रात
स्वयं धूॅंप में नित प्रति दिन जलकर
चाक को घुमाता है वो दिनभर |
ऑंखों की ज्योति धुॅंधली पड़ गई
चश्मे की नम्बर अधिक बढ़ गई
इब के वैसाख के महीने में
किये है सत्तर साल जीने में
उसने माटी का रंग बदलकर
चाक को घुमाता है वो दिनभर |
माथे के बाल सफेद हो गए
दाढ़ी के बाल समस्त सो गए
चमड़ी पर इंक सी गिरने लगी
भाल पर झुर्रियाँ पसरने लगी
मेह में बुड्ढे तन को भिगोकर
चाक को घुमाता है वो दिनभर |
-निहाल सिंह, दूधवा-नांगलियां, झुन्झुनू , राजस्थान