अनिता मंदिलवार सपना की कविता
समझदार बनो
कहते हैं बड़े बुजुर्ग
समझदार बनो
जब बेटियाँ चहकती हैं
घर के बाहर
खिलखिलाती हैं
उड़ना चाहती हैं
पंख कतर दिये जाते हैं
कहा जाता है
तहजीब सीखो
समझदार बनो !
जब वह बराबरी
करती दिखती भाई की
उसे एहसास
दिलाया जाता है कि
तुम लड़की हो
तुम्हें उड़ने का हक नहीं है
बस बंद रहना है
विचारों के कटघरे में
तुलना न करो तुम
अपने हद में रहो
समझदार बनो !
माना समाज ने
बहुत तरक्की की है
पर कहाँ, कब, कैसे
किसके लिए
वही पुरातन विचार लिए
दोराहे पर खड़े हैं हम
कदम आगे बढ़ते ही
यही कहा जाता है
औकात में रहो
समझदार बनो !
समाज से कहना यही है
अब तो भेद-भाव की
जंजीरें तोड़ो
सपना हर किसी को
देखने का हक है
समानता की बातें करते हो
सच में इसे अपनाओ
समझदार बनो !
अनिता मंदिलवार सपना
अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़
फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों
एक लड़की दीन, हीन और दुखिया,
खाक पर बैठी हुई है दिल-फ़िगार ।
चीथड़ो से उसका जिस्म है ढँका हुआ,
कायनाते-दिल में है प्रलय मचा हुआ ।
आँख में नींद का है हल्का खुमार,
कुंचित अलकों पर है गर्द -गुबार ।
एक कुहना है ओढ़नी ओढ़े हुए,
अंदरूनी दुख की है सच्ची दास्ताँ
कहती उसकी खून जैसी लाल आँखें,
बेकसी, बेचारगी का उसका हाल ।
उसके कोमल हाथ भीख की खातिर उठे,
आह ये आफत, और ये बर्बादियाँ ।
रास्ते में मिल जाते हमें अक्सर
ऐसे भिखारी, हाथ फैलाए हुए ।
सब सुविधाएँ मिलती है जब
फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों ।
आह ये जन्नत निशाँ ये हिन्दोस्तां,
तू कहाँ और यह तेरी हालत कहाँ ।
अनिता मंदिलवार “सपना”
अंबिकापुर सरगुजा छ.ग
मोबाइल नं 9826519494