जब भी कभी हम खुले आसमाँ बैठते है /दीपक राज़
जब भी कभी हम खुले आसमाँ बैठते है
ज़मीं से भी होती है ताल्लुक़ात जहाँ बैठते है
ये जो फूल खिल रहे है ये जो भौंरे उड़ते हैं
अच्छा लगता है जब अपनो से अपने जुड़ते हैं
पत्ते झर झर करते हैं हवाए सायं सायं चलती है
मदहोस हो कर ये चिड़ियें अब दाए बाए चलती है
सफ़र भी सुहाना है मंज़िल ख़ुद को बनाना है
दूसरों का क्या उनको तो बस अहसान जताना है
वो जो दूर गाँव में हमारे लिए कोई जगता था
वो ही था एक जो हमें अपना सा लगता था
मेरा हर अपना बिछड़ा मुझसे और ग़ैर हो गया
महज़ इसी बात से मुझे अपने आप से बैर हो गया
-दीपक राज़