अब नहीं सजाऊंगा मेला

अब नहीं सजाऊंगा मेला

अक्सर खुद को
साबित करने के लिए
होना पड़ता है सामने .
मुलजिम की भांति
दलील पर दलील देनी पड़ती है .

फिर भी सामने खड़ा व्यक्ति
वही सुनता है ,
जो वह सुनना चाहता है .
हम उसके अभेद कानों के
पार जाना चाहते हैं .
उतर जाना चाहते हैं
उसके मस्तिष्क पटल पर

बजाय ये सोचे कि
क्या वास्तव में फर्क पड़ता है उसे?
कहीं हमारी ऊर्जा और समय
ऐसे तो नहीं खो रही है.
बीच सफर में ,
किसी को साथ लेने की हसरत
“बुरा तो नहीं “
अगर वह साथ होना चाहे.

मगर मनाना ,रिझाना , मेला सजाना
मंजिल से पहले ,
मकसद भी नहीं .
अब नहीं सजाऊंगा मेला
रहना सीख जाऊंगा अकेला.

सब को साथ लेने के बजाय ,
स्वयं को ले जाने तक ही
तो आसान नहीं .
पीछे पलट देखूंगा नहीं ,
चाहे निस्तब्ध हो वातावरण .
या फिर सुनाई पड़ती रहे
और भी पैरों की आहट.

-मनीभाई नवरत्न

मनीभाई नवरत्न

यह काव्य रचना छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बसना ब्लाक क्षेत्र के मनीभाई नवरत्न द्वारा रचित है। अभी आप कई ब्लॉग पर लेखन कर रहे हैं। आप कविता बहार के संस्थापक और संचालक भी है । अभी आप कविता बहार पब्लिकेशन में संपादन और पृष्ठीय साजसज्जा का दायित्व भी निभा रहे हैं । हाइकु मञ्जूषा, हाइकु की सुगंध ,छत्तीसगढ़ सम्पूर्ण दर्शन , चारू चिन्मय चोका आदि पुस्तकों में रचना प्रकाशित हो चुकी हैं।

This Post Has 0 Comments

  1. रमेश शर्मा

    मैं पहले से जुड़ा हुआ हूँ। कृपया कविता बहार में कविता कैसे पोस्ट करूँ

  2. Akil khan

    बहुत सुंदर सर जी 👌👌

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