नांगर बइला पागा खुमरी संग हावय हमरो मितानी होवत बिहनिया सूरूज जोत संग करथंन खेती किसानी
धरती दाई के सेवा बजाथंव चरण मा मांथ नवावंव रुख राई मोर डोंगरी पहाड़ी बनके मँय इतरावंव कलकल छलकत गंगा जइसन धार हे अरपा के पानी होवत बिहनिया सूरूज जोत संग करथंन खेती किसानी
हरियर हरियर खेती अउ डोली लहर लहर लहरावय पड़की परेवना कोयली मिट्ठू करमा ददरिया गावय धरती दाई के कोरा मा सगरो खुश होथे जिनगानी होवत बिहनिया सूरूज जोत संग करथंन खेती किसानी
भुंइया के भगवान हरन गा धनहा ले सोना उगाथंन रहिथन सुख दुख मा संग सबो के सुमता के दीया जलाथंन मया पीरीत के बंधना गजब हे दुनिया मा नइहे सानी होवत बिहनिया सूरूज जोत संग करथंन खेती किसानी
आवव भइय्या आवव दीदी आवव हितवा मितान रक्षा करबो धरती दाई के बनके जवान किसान छत्तीसगढ़ के महिमा अजब हे सुग्घर हावय निशानी होवत बिहनिया सूरूज जोत संग करथंव खेती किसानी
तोषण चुरेन्द्र दिनकर
मैं किसान बन जाऊंगा – संतराम सलाम
मां मुझे एक गमछा दे दे, सिर पर पगड़ी बंधवाउंगा। हल कंधे पर हाथ में लाठी, मैं किसान बन जाऊंगा।।
छोटा – छोटा हाथ है मेरा, छोटे छोटे बैल जूतवाउंगा। ऊंचा- नीचा खेत है मेरा, खोदा के समतल करवाऊंगा।।
दाना-दाना बीज छिड़कर, धान थरहा मैं ड़लवाउंगा। दवा-खाद और पानी डाल के, अच्छी उपज बढाउंगा।।
पीला धान के सुनहरे बाली, अब लहर-लहर लहराएगा। चींटी कीट – पतंगे मानव , अन्न के दाना-दाना खाएगा।।
दाने- दाने को कोई ना तरसे, ये किसान का कहना है। धूप बरसात ठंड को सह के, मेहनत करते ही रहना है ।
अन्न उपजेगा भूख मिटेगा, भूखा प्यासा जीव ना तरेगा। घर- द्वार खलिहान कोठी में, अनाज का भण्डार भरेगा।।
सन्त राम सलाम,
अन्नदाता -महेन्द्र कुमार गुदवारे
हे प्रभु, आनन्ददाता, कैसी ये तेरी शान। हो रहा तेरी धरती, हमारा अन्नदाता परेशान। थोड़ा बहुत बरसाया पानी। बिगड़ गई अब, उसकी कहानी। सतत वर्षा, अब होने देना। हिम्मत न उसको खोने देना। अब न तरसाना भगवान। हाथ जोड़कर, है विनती हमारी, अब बचा लेना, सबकी शान। ~~~~~~~~~~~~~ महेन्द्र कुमार गुदवारे बैतूल
मैं एक गरीब ग्रामीण बुढ़ा किसान हूँ
मैं एक गरीब ग्रामीण बुढ़ा किसान हूँ , कर्मठ साधारण निडर इंसान हूँ |
पहनता सफ़ेद कुरता धोती या पायजमा , रंग बिरंगी पगड़ी सर पर मेरी शान है |
जीवन के हर दौर में कुचला गया , सरकारों से संघर्ष करता बुढ़ा किसान हूँ |
मैं एक गरीब ग्रामीण बुढ़ा किसान हूँ.
मैं दो बैलो की जोड़ी का मालिक हूँ लकड़ी का हल ही बसी मेरी जान है | नंगे पाँव दिन रात बहाते खेत में पसीना , खाने का हो जाये अनाज उगाने के जुगाड़ में हूँ |
मैं एक गरीब ग्रामीण बुढ़ा किसान हूँ.
कभी खाद बीज पानी की किल्लत , कभी बिजली कभी कर्ज के नोटिस से हैरान हूँ मेरे अपने हार के कर चुके आत्महत्या , किसानी छोड़ मजदुरी करने को परेशान हूँ |
मैं एक गरीब ग्रामीण बुढ़ा किसान हूँ.
कब सरकारी लोग जमी हड़प ले , अपने खेत बचाने की लिए सर फोड़ रहा हूँ सड़कों पर सो रहे किसान के बच्चे , कितना भी चिल्लाओ सरकार के सर पर जूं रेंगती नहीं |
मैं एक गरीब ग्रामीण बुढ़ा किसान हूँ.
बढती महंगाई में बच्चों को कैसे पाले , पढ़लिख कर भी क्या होगा नौकरी हैं नहीं , बूढ़ी हड्डियों में अब वो दम कहा , अपनी जमीने बेचकर जिन्दा रहने को मजबूर हूँ | मैं एक गरीब ग्रामीण बुढ़ा किसान हूँ.
कमल कुमार आजाद
अन्नदाता पर कविता
स्वेद भालों में कृषक के, ध्यान होना चाहिए। नेक धरतीपुत्र तेरा, गान होना चाहिए।(2) अन्नदाता का धरा में, मान होना चाहिए…
तपता तन
जेठ की तपती धरा में, हेतु साधन को चला। फोड़ ढीले चीर धरती, मेढ़ बाँधन को जला। हैं पवन के तेज धारे, तन पसीना धार है। उठ रही है तेज़ लपटें, रवि अनल की मार है।
माथ सोने बालियों से, धान होना चाहिए… अन्नदाता का धरा में, मान होना चाहिए…
भीगता बदन
घोर बरखा तीव्र बूँदे, नाद गर्जन का सहे। खेत को अवलोकता जो, वज्र वर्जन में ढ़हे। शूल कांशी के चुभे हैं, खेत नंगे पाँव में। कृषक कुंदन हो चला अब, तप रहा है ताव में।
जो उदर पोषण कराता, शान होना चाहिए… अन्नदाता का धरा में, मान होना चाहिए…
टूटता मन
चौकसी में जो फसल के, एक प्रहरी सा खड़ा। मोल माटी का बिका तो, वह फफककर रो पड़ा। आपदा के काल में जब, बोझ ऋण बढ़ने लगे। काल को अपना रहे जब, योजना ठगने लगे।
धर्म में चढ़ते चढ़ावे, दान होना चाहिए… अन्नदाता का धरा में, मान होना चाहिए…
स्वेद भालों में कृषक के, ध्यान होना चाहिए। नेक धरतीपुत्र तेरा, गान होना चाहिए।(2) अन्नदाता का धरा में, मान होना चाहिए…
==डॉ ओमकार साहू
1. किसान है क्रोध •••••••••••••••••
निंदा की नज़र तेज है इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं बाज़ार की मक्खियाँ
अभिमान की आवाज़ है
एक दिन स्पर्द्धा के साथ चरित्र चखती है इमली और इमरती का स्वाद द्वेष के दुकान पर
और घृणा के घड़े से पीती है पानी
गर्व के गिलास में ईर्ष्या अपने इब्न के लिए लेकर खड़ी है राजनीति का रस
प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर
कुढ़न की खेती का किसान है क्रोध !
2.
ईर्ष्या की खेती ••••••••••••••••
मिट्टी के मिठास को सोख जिद के ज़मीन पर उगी है इच्छाओं के ईख
खेत में चुपचाप चेफा छिल रही है चरित्र और चुह रही है ईर्ष्या
छिलके पर मक्खियाँ भिनभिना रही हैं और द्वेष देख रहा है मचान से दूर बहुत दूर चरती हुई निंदा की नीलगाय !
3.
मूर्तिकारिन •••••••••••••
राजमंदिरों के महात्माओं मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ
समय की छेनी-हथौड़ी से स्वयं को गढ़ रही हूँ
चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!
सूरज को लगा है गरहन लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं
चारो ओर अंधेरा है कहर रहे हैं हर शहर
समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव दीये बुझ रहे हैं तेजी से मणि निगल रहे हैं साँप
और आम चीख चली – दिल्ली!
4.
ऊख //
(१) प्रजा को प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से रस नहीं रक्त निकलता है साहब
रस तो हड्डियों को तोड़ने नसों को निचोड़ने से प्राप्त होता है (२) बार बार कई बार बंजर को जोतने-कोड़ने से ज़मीन हो जाती है उर्वर
मिट्टी में धँसी जड़ें श्रम की गंध सोखती हैं खेत में उम्मीदें उपजाती हैं ऊख (३) कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान तब खाँड़ खाती है दुनिया और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!
5.
लकड़हारिन (बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
••••••••••••••••••••••••••••••
तवा तटस्थ है चूल्हा उदास पटरियों पर बिखर गया है भात कूड़ादान में रोती है रोटी भूख नोचती है आँत पेट ताक रहा है गैर का पैर
खैर जनतंत्र के जंगल में एक लड़की बिन रही है लकड़ी जहाँ अक्सर भूखे होते हैं हिंसक और खूँखार जानवर यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी
हवा तेज चलती है पत्तियाँ गिरती हैं नीचे जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी मैं डर जाता हूँ…!
6.
उम्मीद की उपज •••••••••••••••••
उठो वत्स! भोर से ही जिंदगी का बोझ ढोना किसान होने की पहली शर्त है धान उगा प्राण उगा मुस्कान उगी पहचान उगी और उग रही उम्मीद की किरण सुबह सुबह हमारे छोटे हो रहे खेत से….!
7.
चिहुँकती चिट्ठी •••••••••••••••••
बर्फ़ का कोहरिया साड़ी
ठंड का देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों के डार पर
हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है
खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर
एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
खून का खत
मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है
आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य खुश हैं
विष्णु के आदेश सुन कर
मौसम कोई भी हो
कमजोर….
सदैव कराहते हैं
कर्ज के चोट से
इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था
पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह
मैं क्या करूँ?
8.
मेरे मुल्क की मीडिया •••••••••••••••••••••
बिच्छू के बिल में नेवला और सर्प की सलाह पर चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं- गोहटा!
गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं काने कुत्ते अंगरक्षक हैं बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं
टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी
गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं नीलगाय नृत्य कर रही हैं
छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद- सेनापति सर्प की मंत्री नेवला की राजा गोहटा की….
अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि खेत में
और मुर्गा मौन हो जाता है जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र मेरे मुल्क की मीडिया!
9.
मुसहरिन माँ •••••••••••••••
धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है
चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए
आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?
मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को
सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले
आज मेरी बारी है साहब!
10.
👁️आँख👁️ ••••••••••••••
1. सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार 2. दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत 3. दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों? 4. धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र 5. आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती 6. अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !
11.
श्रम का स्वाद ••••••••••••••
गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ? गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ एक दिन गोदाम से कहा ऐसा क्यों होता है कि अक्सर अकेले में अनाज सम्पन्न से पूछता है जो तुम खा रहे हो क्या तुम्हें पता है कि वह किस जमीन का उपज है उसमें किसके श्रम की स्वाद है इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई? तुम हो कि ठूँसे जा रहे हो रोटी निःशब्द!
12.
“जोंक” ———–
रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ; तब रक्त चूसते हैं जोंक! चूहे फसल नहीं चरते फसल चरते हैं साँड और नीलगाय….. चूहे तो बस संग्रह करते हैं गहरे गोदामीय बिल में! टिड्डे पत्तियों के साथ पुरुषार्थ को चाट जाते हैं आपस में युद्ध कर काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं! प्यासी धूप पसीना पीती है खेत में जोंक की भाँति! अंत में अक्सर ही कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए! इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!
भारत का किसान
धरती का वह लाल है रहम करे सरकार। भारत का किसान सदा,जग से करे दुलार। जग से करे दुलार,सदा अभाव मे रहता। रहता सदा उदास,प्रेम की फसले करता। कहे मदन कर जोर, बुद्धि दलाल है हरती। नही हुआ खुशहाल,उगाये फसले धरती।।
करते सब सियासत मिल,नेता भारत देश। भोला किसान फंसता,इनके साथ हमेश। इनके साथ हमेश , करे सदा बेइमानी। भरते खुद का पेट,नाम से कर मनमानी। कहे मदन समझाय,हर ओर से यह मरते। कृषक हुआ बदनाम,सियासत सबमिल करते।।
देना सब सम्मान जी , धरती का भगवान। अथक परिश्रम कर सदा, पैदा करता धान। पैदा करता धान, अभावों मे यह जीता। रखना उसका ध्यान, कभी वो रहे न रीता। कहे मदन समझाय, कभी मत रूखा लेना। दाता का हर भाव, कृषक को आदर देना।
मदन सिंह शेखावत ढोढसर
किसान – धरती के भगवान
धरती के भगवान को निज,मत करना अपमान जी।
जो करता सुरभित धरा को,उपजाकर धन धान जी। कॄषक सभी दुख पीर में जब,आज रहे है टूट जी। करते रहे बिचौलिए ने, इनसे निसदिन लूट जी। रत्ती भर जिनको नही हैं,फसल उपज का ज्ञान जी। वही गधे रचने लगे हैं , अब तो कृषि विधान जी। जब आंदोलन के नाम पर , डटे कृषक दिन रात जी। है फुर्सत कब सरकार को,करे सुलह की बात जी। निज खेतों में रातदिन वह, करता है अवदान जी। धरती का भगवान होता, अपना पुज्य किसान जी। स्वेद बहाकर करते सदा,मेहनत अमिट अनन्त जी। होते उसके सम्मान में , धरती और दिगन्त जी। कठिन परिश्रम से ही मिला,जितने उनको अन्न जी। उतने में ही संतुष्ट रहे,वहीं सही में धन्न जी।
डिजेन्द्र कुर्रे “कोहिनूर”
अन्नदाता की व्यथा
हे जगत के अन्नदाता, तू ही अनेक फसल उपजाता, रहकर दिन-रात खेतों में जन-जन को अन्न पहुँचाता, तेरे उपजे अन्न को खाते सब पेट भर फिर – खाली पेट तू सोता क्यों…. बदहालात पर रोता क्यों….
आग उगलती, जेठ की धूप में, नंगे पाँव तपती रेत में, नामोनिशान न कही हरियाली का तू बीज खेतों में बोता हैं, कपास की फसल उगाता हैं, तेरी उपजी कपास से ढकता जग सारा तन अपना फिर – नंगे बदन तू फिरता क्यों … फटे-पुराने चिथड़े पहनता क्यों….
गड़-गड़-गड़-गड़ बादल गरजे, कड़-कड़-कड़-कड़ बिजली कड़के, मूसलाधार बरसातों में, ओलावृष्टि व तूफानों में, तू कच्ची फसल पकाता है अपनी खेती बचाता है फिर – बाढ़ में तू बहता क्यों …. दिन रात पिटता क्यों….
पौह-माह की शरद बरसातों में, ओस-धुंध, बर्फीली रातों में, घर से कोई बाहर न निकले आठों पहर धूप को तरसे शीत लहर के प्रकोपों में गेहूं की फसल उगाता है, जन-जन को अन्न पहुंचाता हैं, फिर – तेरे बच्चे भूखे-प्यासे रोते क्यों…. तुम खुदकुशी के शिकार होते क्यों…
बलबीर सिंह वर्मा “वागीश”
महिनत के पुजारी-किसान
रचनाकार-महदीप जंघेल विधा- छत्तीसगढ़ी कविता (किसान दिवस विशेष)
जय हो किसान भइया, जय होवय तोर। भुइयाँ महतारी के सेवा मा, पछीना तैं ओगारत हस। नवा बिहनिया के अगवानी बर, महिनत के दिया ल बारत हस।।
दुनिया में सुख बगराये बर, तैं अब्बड़ दुःख पावत हस। अन्न पानी उपजाये बर, पथरा ले तेल निकालत हस।। जय हो किसान भइया, जय होवय तोर।
उजरा रंग के काया तोर, कोइला कस करिया जाथे। जब नांगर गड़थे भुइयाँ मा, कोरा ओकर हरिया जाथे।।
महिनत के पछीना तोर, जब भुइयाँ मा चुचवाथे। तब, धरती महतारी के कोरा मा, धान पान लहलहाथे।। जय हो किसान भइया, जय होवय तोर।
कभू नइ सुस्ताइस सुरुज देवता हर, नवा बिहान लाथे। ओकरे नाँव अमर होथे,जेन, नित महिनत के गीत गाथे।। जय हो किसान भइया, जय होवय तोर।
अपन फिकर ल ,तिरियाके तैं भुइयाँ के सेवा बजावत हस। चटनी बासी खाके ,जग के भूख ल तैं ह मिटावत हस।। जय हो किसान भइया, जय होवय तोर।
महदीप जंघेल
न्याय का हकदार किसान
मान सम्मान न्याय का हकदार,अन्न उपजाता किसान। जन जन के हितैषी सरकार, इस पर भी दें जरा ध्यान।
एक मशाल ले चलें हम,श्रम का दीप जलाने को। निकला अन्नदाता आज,अपनी व्यथा बताने को। ये कैसा दृश्य दिख रहा,सड़कों पर कृषक उतरें हैं। जिन्हें सर्दी गर्मी वर्षा की फिक्र नहीं,आज क्यों ठिठरे हैं। सड़कों में कब तक रहें,हक की लड़ाई लड़ता पूज्य किसान। मान सम्मान न्याय………………………….
अकाल,बाढ़, सूखा से,अन्नदाता की झोली अधूरी है। कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा,अब ये कैसी मजबूरी है। खेतों में अब फसल नहीं,बन रहे आग उगलने वाले कारखाने। गाँवों में वीरानी छाई,कॉलोनी,फ्लैटों से उजड़ रहे आशियाने। भूखे का पेट भरे, देश की अर्थव्यवस्था चलाता है किसान। मान सम्मान न्याय..………………………….
जगत के पालक धरतीपुत्र,अन्न उपजा कर करते धरती का श्रृंगार। आज कृषक को नहीं मिलता उचित अधिकार,सम्मान व प्यार। नए कृषि कानून से भ्रम व आशंकित है भारत का किसान। हाथ जोड़ विनती करता मधुर,जनप्रिय सरकार दो ध्यान। विफल न वार्ता होती रहे,निकालें उचित व स्थाई समाधान। मान सम्मान न्याय…………………………..
सुन्दर लाल डडसेना”मधुर
किसान की हालत
हालत देख किसान की , बदतर होता आज । कुर्सी वाले कर रहे , हैं किसान पर राज ।। हैं किसान पर राज , प्रहारी कुर्सी वाला । पिसता सदा किसान , तरसता रहा निवाला । कह ननकी कवि तुच्छ , पड़ी है इसकी आदत । जो करता संघर्ष , न होती ऐसी हालत ।।
हालत अब विकराल है , आतंकित हर लोग । अर्थ ग्राफ गिरने लगा , बंद सभी सहयोग ।। बंद सभी सहयोग , बहुत जन लूट मचाये । कोरोना का ढ़ोंग , लगा बैलेंस बढ़ाये । कह ननकी कवि तुच्छ , नागरिक सब हैं आहत । कोरोना से मुक्त , बनें कब सुधरे हालत ।।
हालत बिगड़ा जा रहा , दिखता नहीं उपाय । प्रश्न दागते हैं बहुत , उत्तर नहीं सुझाय ।। उत्तर नहीं सुझाय , नन्ही सी बिटिया रानी । दरिंदगी हद पार , बदल दी पूरी कहानी ।। कह ननकी कवि तुच्छ , प्रेम की करो इबादत । बेटी हो महफूज , बनाओ ऐसी हालत ।।
गुरु प्राचीन हैं पर विकास हैं गुरु चेतना हैं, प्रकाश हैं एक महान पद्धति का प्रमाण गुरु, भारतीय संस्कृति का मान हैं।
गुरु श्रम हैं, प्रोत्साहन हैं गुरु तप हैं, गुरु त्याग हैं गुरु निष्ठा हैं, विश्वास हैं गुरु हर चेष्टा का परिणाम हैं।
गुरु जिज्ञासा हैं, ज्ञान हैं गुरु अनुभव हैं, आदेश हैं गुरु कल्याण, गुरु उपदेश हैं गुरु, एक जागृत जीवन का उद्देश्य हैं।
गुरु शिल्पकार हैं, कुम्हार हैं गुरु स्तम्भ हैं, गुरु द्वार हैं गुरु सोच का विस्तार हैं प्रतिभाओं का उफान हैं ।
गंगोत्री व्यास तो प्रवाह एक प्यास है गुरु-शिष्य परंपरा आज की मांग कल्युग की आस हैं।
आशाओं का अस्मंजस
थम सी गयी है ज़िन्दगी आज भागा-दौड़ी से मन बेहाल ज़्यादा है धरोहर की पोटली बनानी है पर आज थकान ज़्यादा है हँसना है,कुछ खेलना है पर आज संजीदगी और व्यस्तता ज़्यादा है सफलता का स्वाद चकना है पर आज असफताओं का भार ज़्यादा है कोई सुगम मार्ग बनाना है पर आज कठिनाईओं से मन घबराया ज़्यादा है प्रेम और सम्मान मिले, ये आशा है पर आज दूसरों की कमियों का बोध ज़्यादा है बच्चों को सर्वश्रेष्ठ बनाना है पर आज अपने बचपन की भूलों का गुमाँ ज़्यादा है सुखमय ज़िन्दगी की कामना है पर आज दुखों को दिया न्योता ज़्यादा है मंदिर जैसा घर बनाना है पर आज मन मैला ज़्यादा है कहीं दूर स्वर्ग की कल्पना है पर आज हर जगह प्रदुषण ज्यादा है दुनिया में शान्ति रहे, ये प्रार्थना है पर आज जीवन का मूल्य कम और स्वार्थ का ज्यादा है।
ऐसा लगता है
खाली दिमाग शायर का लफ्जों का भूखा लगता है चलो,कुछ पका लें, कुछ खा लें ख्याल ये उम्दा लगता है।
बारिश की पहली बूँदें तपिश का इनाम लगता है आंसुओं से न मिटाओ किस्सा हमारा अभी भी जवान लगता है।
आती जब विमान में रफ़्तार वो रुका हुआ सा लगता है वक्त जब भरता उड़ान थमा हुआ सा लगता है।
सब कुछ मिलता आसानी से पर वक्त कहाँ मिलता है मशीनों ने ऐसा हाथ बंटाया कि हुनर की हैसियत बचाना अब मुश्किल लगता है।
छोड़ दिया
हैरान है हम ऐसी नादानी पर चलने की जल्दी में यू लड़खड़ाए कि हमने कदम बढ़ाना ही छोड़ दिया।
बचपन को भी चलना आ गया जब हमने बच्चों के जूतों में पैर डालकर उम्र का हिसाब रखना ही छोड़ दिया।
समय की कीमत जब से जानने लगे उसने हमारा मोल ही गिरा दिया बेकद्री से जो की बेवफाई उसने कद्र करना ही छोड़ दिया।
किन कसमों की बात करें किन लम्हों की फरियाद करें मिले तुम कुछ इस तरह कि हमने खुद से मिलना ही छोड़ दिया।
निकल पड़ी सैर पर सोच एक रोज़ जहान मैं बेशर्मी का यह आलम था कि सोच ने बेपर्दा होना