Author: कविता बहार

  • आदमी और कविता – हरदीप सबरवाल

    आदमी और कविता – हरदीप सबरवाल द्वारा रचित आज के कविताओं के विषय पर यथार्थ और करारा व्यंग्य किया गया है।

    आदमी और कविता

    kavi sammelan


    सिर्फ आदमी ही नहीं बंटे हुए,
    जाति, धर्म, संप्रदाय या वर्ण में,
    इन दिनों
    जन्म लेती कविता भी,
    ऐसे कई साँचों में ,
    ढल कर निकलती है,
    यूँ कहने भर को
    कविता का उद्देश्य था
    आदमी को
    सांचों से मुक्त करना,
    पर आदमी ने
    कविता को ही
    अपने जैसे बना दिया…..

    © हरदीप सबरवाल

  • भावनाओं को कुछ ऐसा उबाल दो- रामकिशोर मेहता

    भावनाओं को कुछ ऐसा उबाल दो



    भावनाओं को
    कुछ ऐसा उबाल दो।
    जनता न सोचे
    सत्ता के बारे में,
    उसके गलियारे में,
    नित नये
    सवाल कुछ उछाल दो।

    खड़ा कर दो
    नित नया उत्पात कोई।
    भूख और प्यास की
    कर सके न बात कोई।
    शान्ति से क्यों सांस ले रहा
    कोई शहर।
    घोल दो हवाओं में
    नित नया जहर।

    अट्टालिकाओं की तरफ
    उठे अगर
    कोई नजर
    दूर सीमाओं पर
    उठा नया भूचाल दो।

    एक सीख सीख लो।
    छोटी लंकीर के सामने
    बड़ी लकीर खींच दो।
    नहीं मिटती गरीबी देश की
    जन में
    विभाजन की
    भावनाएं सींच दो।

    खींच दो दीवार
    बाँट दो परिवार
    धर्म, भाषा, जाति का
    फिर नया बबाल दो।

    रामकिशोर मेहता

  • स्वच्छता और मैं – नीता देशमुख

    स्वच्छता और मैं

    कविता स्वच्छता और मैं जो कि नीता देशमुख द्वारा रचित है जो हमें स्वच्छता अपनाने को प्रेरित कर रही है।

    चारों और फैला एक आवरण
    सभी का है वह पर्यावरण।
    चहुँ ओर हरितिमा की चादर
    सरोवर झीले व सुन्दर नहर।
    उपहार अनमोल दिए प्रकृति ने
    विकृत कर दिए उन्हें मानव ने।
    जन जन मे लाना जागरूकता
    सीखना सीखाना है स्वच्छता।
    स्वयं ही कर्तव्य है निभाना
    धरा को है स्वच्छ बनाना।
    नीर को है निर्मल करना
    मित्र बनाएंगे स्वच्छता को
    दूर करेंगे रोग शत्रु को।
    स्वच्छता और मै एक होंगे।
    तन ही नहीं मन नेक होंगे।
    पग पग उन्नति के प्रसून खिलेंगे।
    क़ामयाबी के दीप प्रदीप्त होंगे।

    नीता देशमुख
    इंदौर (स्वरचित )

  • मौत की आदत – नरेंद्र कुमार कुलमित्र

    मौत की आदत – नरेंद्र कुमार कुलमित्र

    सुबह-सुबह पड़ोस के एक नौजवान की मौत की खबर सुना
    एक बार फिर
    अपनों की तमाम मौतें ताजा हो गई

    अपनी आंखों से जितनी मौतें देखी है मैंने
    निष्ठुर मौत पल भर में आती है चली जाती है

    हम दहाड़ मार मार कर रोते रहते हैं
    एक दूसरे को ढांढस बंधाते रहते हैं
    क्रिया कर्म में लगे होते हैं
    मौत को इससे क्या
    वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती
    उसकी तो आदत है मारने की रोज-रोज प्रतिपल

    फर्क नहीं पड़ता उसे
    घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या…?

    — नरेंद्र कुमार कुलमित्र

  • हाँ मैं भारत हूँ -रामनाथ साहू”ननकी”

    हाँ मैं भारत हूँ -रामनाथ साहू”ननकी”

    आधार — *थेथी छंद* ( मात्रिक ) आदि त्रिकल (14/10 ) , पदांत – 112

    मृत्यु तथा जीवन का सुख ,सर्व सदाकत हूँ ।
    अरब वर्ष से शुभचिंतक , हाँ मैं भारत हूँ ।।
    सभी उपनिषद् विश्लेषक , सद्गुरु ईश्वर के ।
    प्रश्न अनूठी जिज्ञासा , शंकास्पद स्वर के ।।

    लोक और परलोक सभी , भ्रम निवारक ये ।
    वृहद समस्या के हल दे , परम सुधारक ये ।।
    ब्रह्म जनित ज्ञान प्रणेता , मानस ज्ञान भरे ।
    अज्ञ विज्ञ चेतनता से , संचित मर्म धरे ।।

    एक अंश परमात्मा का , सबको ज्ञान दिया ।
    परंपरागत अनुयायी , शुभ सम्मान लिया ।।
    पुनर्जन्म की अवधारण , है सिद्धांत रचे ।
    विद्यमान महत् तत्व से , कोई नहीं बचे ।।

    पर्व उपनिषद् एकादश , अर्वाचीन जने ।
    चिंतनीय मानव के हित , अद्भुत शास्त्र बने ।।
    परम हितैषी सकल प्रकृति , कुशल वजाहत हूँ ।
    आदि मनीषी अन्वेषक , हाँ मैं भारत हूँ ।।

    ज्ञान पुंज की सरल सहज , सदा रफाकत हूँ ।।
    सभी सभ्यता का साक्षी , हाँ मैं भारत हूँ ।।
    मुख्य चार वेद अलावा , भी उपवेद बने ।
    परम सहायक हैं मानो , सद्गुण सुघर सने ।।

    अर्थशास्त्र पर दाँव पेच , राजनीतिक धरे ।
    गहन अध्ययन जो करता , जग में नाम करे ।।
    नृत्य एवं संगीत ज्ञान , हैं गंधर्व भरे ।
    सूक्ष्म मंत्रणा ये वैदिक , सभी अवगुण हरे ।।

    धनुर्वेद मे शिक्षा है , शस्त्र विधान सभी ।
    युद्ध कला पारंगतता ,आये काम कभी ।।
    देह चिकित्सा का वर्णन , आयुर्वेद करे ।
    रोग व्याधियाँ जो आये , पीड़ा सर्व हरे ।।

    शल्य एवं विष संबंधी , आयुर्वेद पढ़ो ।
    औषधियों को सब जानो , जीवन राह बढ़ो ।।
    ज्ञान महोदधि तन मन का , नेक इजारत हूँ ।
    करूँ निरोगी सब काया , हाँ मैं भारत हूँ ।।

    अन्य स्श्रोत में उत्तम है , यह साहित्य सुधा ।
    कभी नहीं कम है होती , ऐसी महा क्षुधा ।।
    आदि अंत का हरकारा , परिमल आरत हूँ ।
    छंद खजाने का दाता , हाँ मैं भारत हूँ ।।

    अगर जानना है मुझको , वैदिक छंद पढ़ो ।
    शनैः शनैः ही कदमों से , ईश्वर पंथ बढ़ो ।।
    समय समाजों की गाथा , ऋषि कुल वेद भरे ।
    छंद बद्ध लेखन शैली , हैं जीवंत हरे ।।

    छंद जनक हैं ऋषि पिंगल , जो उपलब्ध यहाँ ।
    शास्त्र लिखे कवि मन के हित , ऐसा और कहाँ ।।
    शोध किया वर्णाक्षर का , कल निर्माण किया ।
    नये विधानों को सर्जित , छंद विधान दिया ।।

    लोक हित्य छांदस लेखन , से अमरत्व मिले ।
    मनुज भावना सामाजिक , प्रिय नवदीप जले ।।
    लिखे गये मंत्र सूक्त सब , वही नवागत हूँ ।
    शिष्ट सर्जना का स्वामी , हाँ मैं भारत हूँ ।।


    —– *रामनाथ साहू* *” ननकी “*
    *मुरलीडीह*