Author: कविता बहार

  • फिर कहते हो ये खराब थी

    फिर कहते हो ये खराब थी

    मोबाइल दिया, आया बनाया,

    खाना खिलाया होटल में;

    इंटरनेट पर पहली पीढ़ी सवार थी,

    फिर कहते हो पीढ़ी खराब थी।

    बाहें चढ़ाई, दुपहिया दौड़ाया,

    दुर्घटना घटी बीच बाजार में;

    पी रखी शराब थी

    फिर कहते हो सड़क खराब थी।

    बातें बनाई, दिन बिताया,

    बेरोजगार हुआ इंतजार में;

    नशे चिटे की आदत थी,

    फिर कहते हो किस्मत खराब थी।

    दल बनाया , उम्मीदवार जिताया,

    विकाश करवाया वंशवाद में;

    बंधी हुई समाज थी,

    फिर कहते हो पार्टी ख़राब थी।

    बच्चे पढ़ाए, घर बनाया,

    मनोरंजन किया संसार में;

    जीवन की मूकबधिर जवाब थी,

    फिर कहते हो जिंदगी ख़राब थी।

    रोशन जांगिड़

  • शीत/ठंड पर हाइकु

    शीत/ठंड पर हाइकु

    हाइकु

    शीत/ठंड पर हाइकु

    [1]
    शीत प्रदेश
    बरस रही चाँदी
    धूप बीमार ।

    [2]
    शीत लहर
    कँपकपाते होंठ
    हँसे धुनियाँ ।

    [3]
    बैरन शीत
    प्रीतम परदेश
    खुशियाँ सुन्न ।

    [4]
    मुस्काती धुँध
    सूरज असहाय
    जीवन ठप्प ।

    [5]
    ठण्ड में धूप
    देती गरमाहट
    ज्यों माँ की गोद ।

    अशोक दीप✍️
    जयपुर

  • महामारी से भी मिला उपहार-समय के सदुपयोग की कला और जीवन शैली में सुधार।

    महामारी से भी मिला उपहार-समय के सदुपयोग की कला और जीवन शैली में सुधार।

    कोरोना जैसी महामारी फैली,
    बदल गई, जीवन की शैली।।
    समय का इसने सदुपयोग सिखाया,
    जीने का नया ढंग समसाझा।

    आज मैं नौरा छतवाल,आई हूँ,इस मंच पर कुछ विचारों का आदान-प्रदान करने, इस वैषविक महामारी का कुछ बखान करनें। काफी कुछ इस महामारी ने हमसे छीन दिया है। हमें लगता है कि यह हमारी प्रगति के मार्ग में बाधा बन गई है,पर जानते हो यह एक पहलू है। हमें दूसरे पहलू को भी भूलना नहीं है। यह महामारी,हमारी अंधाधुंध दौड़ में एक बैरीगेटबन कर आई है।

    कोरोना वायरस चला जाएगा। अगर नहीं भी गया,तब भी हम इसी के साथ जी लेंगे,जैसे कई दूसरी बीमारियों के साथ जी रहे हैं। सच कहा है किसी ने कि दुख इंसान को माँजता है और उसे बेहतर बनाता है। आपदाएँ आती हैं और आती रहेंगी,पर इनके समय मनुष्य काम करना बिलकुल नहीं छोड़ सकता।

    आज यह उक्ति भी सत्य सिद्ध हो गई कि ‘आवश्यकता’आविष्कार की जननी है।
    महोदय! आज इस महामारी के कारण मनुष्य अपने घर तक सीमित जरूर है पर उसकी सोच उसके घर तक नहीं है,उसने इस बाधा का सामना करने के लिए लाइन ‘प्लेटफार्म’ढूँढ लिया है। आज ‘ज़ूम’पर ऑनलाइन क्लास से शिक्षा ली जा रही है। हम हर समय,समय की कमी की शिकायत करते थे। आज,हमारे पास काफी समय है,हम अपने भीतर की कला को सँवार सकते हैं, ज़िंदगी की भाग दौड़ को भूलकर, अपनों के बीच समय बिता सकते है।।

    प्रकृति के सुन्दर दर्शन हमें इसी महामारी के दौरान ही हुए हैं। प्रदूषण रहित प्रकृति,नदियों का कल-कल करता स्वच्छ जल,हम कह सकते हैं कि हमने देखा है इसी महामारी के दौरान। सड़कों पर गाड़ियाँ कम हैं, और पौधे ज़्यादा। नदियों में मछलियाँ ज़्यादा हैं और कचरा कम। विवाह जैसे अवसरों पर अब लोगों की फिजूलखर्ची नहीं होती।

    यही नहीं, खान-पान में भी सुधार लाई है यह कोरोना जैसी महामारी। लोग डर से ही सही,घर का सादा खाना,खाने लगे हैं,वरना तो लोगों की जीवन शैली इतनी विचित्र थी कि क्या कहूँ। बाहर से मंहगा खाना मँगवा कर खाना,फिर वह खाना खा-खा कर,उससे बेडौल बने शरीर को ‘जिम’ जाकर ठीक करने का प्रयास करना,लोगों के लिए ‘स्टेट्स सिंबल’बन गया था। कोरोना के फैलते हुए पैरों को देखकर लोग डरे हुए हैं,वे इसी महामारी के कारण ही सही,जीवन में सुधार लाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं।

    मुझे दुःख है इस महामारी से होने वाले नुकसान का,परन्तु मैं जीवन के प्रति साकारात्मक सोच रखती हूँ और,इसीलिए,इससे होने वाले परिवर्तन मुझे प्रभावित करते हैं। तो चलो,आओ,सभी मिलकर ढूँढते हैं कोरोना के काले बादलों में एक इंद्रधनुष…।

    खुशियों के लिए,
    क्यूँ करूँ किसी का इंतजार,
    मैं ही तो हूँ,
    अपने जीवन की शिल्पकार,
    चलो आज,
    मुश्किलों को हराते हैं
    और एक बार फिर इस महामारी में,
    शिद्दत से मुस्कराते हैं…

    • नौरा छतवाल
  • कैसे कहदूँ प्यार नहीं है ?

    कैसे कहदूँ प्यार नहीं है ?

    कैसे कहदूँ प्यार नहीं है ?
    वह मेरी झंकार नहीं है ?

    बिन बाती क्या दीप जला है ?
    कहीं रेत बिन बीज फला है ?
    कैसा सागर नदी नहीं तो
    जलद कहाँ जो धार नहीं है ?

    कैसे कहदूँ ………………

    देखा विधु को बिना जुन्हाई ?
    प्रीत बिना खिलती तरुणाई ?
    शुष्क मरुस्थल-सा है जीवन
    जबतक घर श्रृंगार नहीं है ।

    कैसे कहदूँ ………………

    रोम-रोम में गंध उसी की
    कर्ण- गेह में गूँज हँसी की
    अधर परस पाये बिन उसका
    बजता प्रेम- सितार नहीं है ।

    कैसे कहदूँ ………………..

    अशोक दीप✍️

  • जाने कैसी बात चली है

    जाने कैसी बात चली है

    जाने कैसी बात चली है।
    सहमी-सहमी बाग़ कली है।।

    जिन्दा होती तो आ जाती
    शायद बुलबुल आग जली है।

    दुख का सूरज पीड़ा तोड़े
    सुख की मीठी रात ढली है।।

    नींद कहाँ बसती आँखों में
    जब से घर बुनियाद हिली है।।

    महक उठा आँगन खुशियों से
    जब-जब माँ की बात चली है ।।


    अशोक दीप